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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 113/ मन्त्र 8
    ऋषिः - शतप्रभेदनो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडार्चीजगती स्वरः - निषादः

    विश्वे॑ दे॒वासो॒ अध॒ वृष्ण्या॑नि॒ तेऽव॑र्धय॒न्त्सोम॑वत्या वच॒स्यया॑ । र॒द्धं वृ॒त्रमहि॒मिन्द्र॑स्य॒ हन्म॑ना॒ग्निर्न जम्भै॑स्तृ॒ष्वन्न॑मावयत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । अध॑ । वृष्ण्या॑नि । ते । अव॑र्धयन् । सोम॑ऽवत्या । व॒च॒स्यया॑ । र॒द्धम् । वृ॒त्रम् । अहि॑म् । इन्द्र॑स्य । हन्म॑ना । अ॒ग्निः । न । जम्भैः॑ । तृ॒षु । अन्न॑म् । आ॒व॒य॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वे देवासो अध वृष्ण्यानि तेऽवर्धयन्त्सोमवत्या वचस्यया । रद्धं वृत्रमहिमिन्द्रस्य हन्मनाग्निर्न जम्भैस्तृष्वन्नमावयत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वे । देवासः । अध । वृष्ण्यानि । ते । अवर्धयन् । सोमऽवत्या । वचस्यया । रद्धम् । वृत्रम् । अहिम् । इन्द्रस्य । हन्मना । अग्निः । न । जम्भैः । तृषु । अन्नम् । आवयत् ॥ १०.११३.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 113; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (अधा) आक्रमणकारी शत्रु के नष्ट हो जाने के अनन्तर (ते) हे राजन् ! तेरे (वृष्ण्यानि) वर्षक बलों को (विश्वे देवासः) सारे विद्वान् (सोमवत्या) सुख ऐश्वर्यवाली (वचस्यया) स्तुति करने की इच्छा से-प्रशंसा की इच्छा से (अवर्धयन्) बढ़ाते हैं-उत्साहित करते हैं (इन्द्रस्य) तुझ राजा के (हन्मना) हननसाधन से (रद्धम्) हिंसित (वृत्रम्-अहिम्) आक्रमणकारी हनन करने योग्य शत्रु को (अन्नम्) अन्न (तृषु) शीघ्र (आवयत्) पृथिवी भक्षण करती है विलीन करती है (अग्निः-न) जैसे अग्नि (जम्भैः) नाशक लपटों से किसी भी वस्तु को भक्षण करती है ॥८॥

    भावार्थ

    आक्रमणकारी शत्रु के मारे जाने पर राजा के वर्षक बलों की सब विद्वान् प्रशंसा करते हैं बड़ा आदर करते हैं, राजा के हननसाधन से मरे हुए आक्रमणकारी शत्रु को पृथिवी अन्न बनाकर भक्षण करती है विलीन करती है और अग्नि भी अपनी ज्वालाओं से अन्न बना लेती है ॥८॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अधा) हते वृत्रे दस्यौ (ते) हे राजन् ! तव (वृष्ण्यानि) वर्षकबलानि (विश्वे देवासः) सर्वे विद्वांसः (सोमवत्या वचस्यया-अवर्धयन्) सुखैश्वर्यवत्या स्तवनेच्छया वर्धयन्ति खलूत्साहयन्ति (इन्द्रस्य हन्मना) तव इन्द्रस्य हननसाधनेन (रद्धं वृत्रम्-अहिम्-अन्नं तृषु-आवयत्) हतं वृत्रमावरकं हन्तव्यं शत्रुं खल्वन्नं शीघ्रं पृथिवी भक्षयति विलीनीकरोति (अग्निः-न जम्भैः) यथाऽग्निः स्वनाशकज्वलनैः किमपि वस्तु भक्षयति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And then all saints and holy men of the world celebrate and exalt your mighty deeds with voices full of sweetness, love and adoration. And when Vrtra is destroyed by the fatal blow of Indra and darkness is dispelled, Indra like the sun waxes in glory as fire rises in flames, having consumed fuel food with its jaws and crackling tongues.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आक्रमक शत्रू मारले गेल्यावर राजाच्या बलाची सर्व विद्वान प्रशंसा करतात व अत्यंत आदर करतात. राजाच्या शस्त्रांनी मृत्यू पावलेल्या आक्रमणकारी शत्रूला पृथ्वी अन्न बनवून भक्षण करते, विलीन करते व अग्नी आपल्या ज्वालांनी अन्न बनवितो. ॥८॥

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