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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 117/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भिक्षुः देवता - धनान्नदानप्रशंसा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कृ॒षन्नित्फाल॒ आशि॑तं कृणोति॒ यन्नध्वा॑न॒मप॑ वृङ्क्ते च॒रित्रै॑: । वद॑न्ब्र॒ह्माव॑दतो॒ वनी॑यान्पृ॒णन्ना॒पिरपृ॑णन्तम॒भि ष्या॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒षन् । इत् । फालः॑ । आशि॑तम् । कृ॒णो॒ति॒ । यन् । अध्वा॑नम् । अप॑ । वृ॒ङ्क्ते॒ । च॒रित्रैः॑ । वद॑न् । ब्र॒ह्मा । अव॑दतः । वनी॑यान् । पृ॒णन् । आ॒पिः । अपृ॑णन्तम् । अ॒भि । स्या॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृषन्नित्फाल आशितं कृणोति यन्नध्वानमप वृङ्क्ते चरित्रै: । वदन्ब्रह्मावदतो वनीयान्पृणन्नापिरपृणन्तमभि ष्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृषन् । इत् । फालः । आशितम् । कृणोति । यन् । अध्वानम् । अप । वृङ्क्ते । चरित्रैः । वदन् । ब्रह्मा । अवदतः । वनीयान् । पृणन् । आपिः । अपृणन्तम् । अभि । स्यात् ॥ १०.११७.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 117; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (कृषन्-इत्) खेती करता हुआ-खेत जोतता हुआ ही (फालः) फालवान्-हलवाला किसान (आशितं कृणोति) अपने को अन्नभोक्ता बनाता है (चरित्रैः-यन्) चलने के साधनों से चलता हुआ (अध्वानम्) मार्ग को (अपवृङ्क्ते) पार करता है-तै करता है, न कि बैठा हुआ (ब्रह्मा वदन्) ब्राह्मण प्रवचन करता हुआ (अवदतः) न बोलनेवाले-न प्रवचन करनेवाले से (वनीयान्) अधिक सम्भजनीय है, सत्सङ्ग करने योग्य है (आपिः) समीपवर्ती सम्बन्धी जन (पृणन्) अन्नादि से तृप्त करता हुआ (अपृणन्तम्) न तृप्त करते हुए न देते हुए को (अभिष्यात्) अभिभव करता है, नीचे कर देता है ॥७॥

    भावार्थ

    हल आदि साधन रखनेवाला किसान खेत जोतता हुआ खेती करता हुआ अपने को अन्न का भोक्ता बनाता है। हलादि साधन होते हुए खेती न करता हुआ किसान अपने को अन्नवान् नहीं बनाता है, चलने के साधन रखता हुआ-उनसे मार्ग को तै करता है-पार करता है न कि चलने के साधन होते हुए न चलते हुए पार करता है, विद्वान् प्रवचन करता हुआ न प्रवचन करनेवाले से श्रेष्ठ और सत्सङ्ग करने योग्य है, इसी प्रकार सम्बन्धी समीपी-जन अपने अन्नादि से तृप्त करता हुआ, न तृप्त करनेवाले के ऊपर हो जाता है-सम्मान का पात्र बन जाता है-अर्थात् अन्न धनादि होते हुए उससे दूसरों को तृप्त करना चाहिये ॥७॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (कृषन्-इत् फालः-आशितं-कृणोति) कृषिं कुर्वन् फालवान् हलवान् कृषक आत्मानमन्नभोक्तारं करोति न तु ऋषिमकुर्वन् (यन्-चरित्रैः-अध्वानम्-अपवृङ्क्ते) गच्छन् जनश्च चलनसाधनैर्मार्गमप पारयति न तु खल्वगच्छन् (वदन् ब्रह्मा-अवदतः-वनीयान्) प्रवचनं कुर्वन् ब्राह्मणः न प्रवचनमकुर्वतो सम्भजनीयः सङ्गमनीयः (पृणन्-आपिः-अपृणन्तम्-अभि स्यात्) अन्नादिना तर्पयन् समीपवर्ती सम्बन्धी जनो न तर्पयन्तमभिभवति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The ploughman ploughing the land produces food for the hungry, the traveller while moving crosses the path to destination, the vocal sage is better than the silent, and the giving friend and brother is better than the non-giving.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    नांगर इत्यादी साधन बाळगणारा शेतकरी शेत नांगरत शेती करत आपल्याला अन्नाचा भोक्ता बनवितो. नांगर इत्यादी साधन असूनही शेती न करता शेतकरी आपल्याला अन्नवान बनवत नाही. चालण्याचे साधन ठेवत - त्याद्वारे मार्ग ठरवतो - पार करतो. चालण्याचे साधन नसताना न चालता पार करत नाही. विद्वान प्रवचन करत प्रवचन न करणाऱ्यापेक्षा श्रेष्ठ व सत्संग करण्यायोग्य आहे. याच प्रकारे नातेवाईक जवळचे लोक आपल्या अन्न इत्यादीने तृप्त करत, न तृप्त करणाऱ्याच्या वरचढ ठरतो. सन्मानाचे पात्र बनतो अर्थात् अन्न, धन इत्यादी असणाऱ्यांनी दुसऱ्यांना तृप्त केले पाहिजे. ॥७॥

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