ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 117/ मन्त्र 9
ऋषिः - भिक्षुः
देवता - धनान्नदानप्रशंसा
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स॒मौ चि॒द्धस्तौ॒ न स॒मं वि॑विष्टः सम्मा॒तरा॑ चि॒न्न स॒मं दु॑हाते । य॒मयो॑श्चि॒न्न स॒मा वी॒र्या॑णि ज्ञा॒ती चि॒त्सन्तौ॒ न स॒मं पृ॑णीतः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मौ । चि॒त् । हस्तौ॑ । न । स॒मम् । वि॒वि॒ष्टः । स॒म्ऽमा॒तरा॑ । चि॒त् । न । स॒मम् । दु॒हा॒ते॒ इति॑ । य॒मयोः॑ । चि॒त् । न । स॒मा । वी॒र्या॑णि । ज्ञा॒ती इति॑ । चि॒त् । सन्तौ॑ । न । स॒मम् । पृ॒णी॒तः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समौ चिद्धस्तौ न समं विविष्टः सम्मातरा चिन्न समं दुहाते । यमयोश्चिन्न समा वीर्याणि ज्ञाती चित्सन्तौ न समं पृणीतः ॥
स्वर रहित पद पाठसमौ । चित् । हस्तौ । न । समम् । विविष्टः । सम्ऽमातरा । चित् । न । समम् । दुहाते इति । यमयोः । चित् । न । समा । वीर्याणि । ज्ञाती इति । चित् । सन्तौ । न । समम् । पृणीतः ॥ १०.११७.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 117; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(समौ चित्) समान भी (हस्तौ) दोनों हाथ (समं न) किसी कार्य में समान नहीं (विविष्टः) प्रवेश करते हैं (सम्मातरा चित्) बच्चे का निर्माण करनेवाली पालन करनेवाली धायें भी (समं न) समान नहीं (दुहाते) दूध पिलाती हैं (यमयोः-चित्) सहजात दोनों मनुष्यों को भी (वीर्याणि) बल-पराक्रम (समा न) समान नहीं होते (ज्ञाती चित्) एक वंशवाले भी (सन्तौ) होते हुए (समं न) समान नहीं (पृणीतः) अपने अन्न धनादि से दूसरे को तृप्त करते हैं, दान में स्पर्धा या तुलना नहीं करना चाहिये, यह श्रद्धा से देना होता है-देना चाहिये ॥९॥
भावार्थ
मनुष्य के हाथ समान हैं, पर किसी कार्य में समान प्रवेश नहीं करते। बालक को पालनेवाली दो धाइयाँ बालक को समान दूध नहीं पिलाती, माता से उत्पन्न हुए जुडवाँ दो मनुष्यों के समान बल नहीं होते। वंशवाले दो बड़े मनुष्य अपने अन्न धनादि से किसी अधिकारी को समानरूप से तृप्त नहीं करते हैं, इसलिये दान को स्पर्धा या तुलना पर न छोड़ना चाहिये, किन्तु श्रद्धा से देना ही चाहिये ॥९॥
विषय
दानवृत्ति का वैषम्य
पदार्थ
[१] (समौ चित् हस्तौ) = दो हाथ एक ही शरीर में होते हुए भी (समम्) = समानरूप से (न विविष्ट:) = कार्यों में व्याप्त नहीं होते । दाहिना हाथ अधिक कार्य करता है, सामान्यतः बाँया कम । [२] इसी प्रकार (सम्मातरा चित्) = एक ही गाय से उत्पन्न हुई-हुई बछियाएँ बड़ी होकर (समं न दुहाते) = समान दूध नहीं देती। एक दस सेर दूध देनेवाली बन जाती है, तो दूसरी पाँच ही सेर देनेवाली होती है। [३] (यमयोः चित्) = जुड़वाँ [twins] उत्पन्न हुए-हुए बच्चों के भी (वीर्याणि समा न) = शक्तियाँ समान नहीं होती। एक स्वस्थ व सशक्त होता है, तो दूसरा अस्वस्थ व निर्बल ही रह जाता है । [४] इसी प्रकार (ज्ञाती चित् सन्तौ) = समीप के रिश्तेदार होते हुए भी (सं न पृणीत:) = बराबर दान देनेवाले नहीं होते। एक अत्यन्त उदार होता है तो कई बार दूसरा बड़ा कृपण प्रमाणित होता है ।
भावार्थ
भावार्थ-दानवृत्ति सर्वत्र समान नहीं होती । अन्य बातों की तरह इस वृत्ति में भी पुरुषों का वैषम्य है। जितना देंगे उतना ऊँचा उठेंगे। सारा सूक्त धन व अन्न दान की प्रशंसा कर रहा है। दान 'धन के अधिक होने पर ही होगा' ऐसी बात नहीं है। यह तो हृदय की उदारता पर निर्भर करता है । भौतिक वृत्तिवाला दान नहीं दे पाता। सो अगला सूक्त 'अमहीयु' के सन्तान 'आमहीयव' का है, अ-मही-यु-न भौतिक वृत्तिवाला । यह उरुक्षय:- विस्तृत गतिवाला बनता है [क्षि= गतौ] । इसका घर विशाल होता है, उसमें आये गये के लिए सदा स्थान होता है। लोकहित के उद्देश्य से यह अग्निहोत्र की वृत्तिवाला होता है । यह अग्नि इसके रोगकृमियों का भी संहार करनेवाला होता है। 'रक्षोहा अग्नि' ही सूक्त का देवता है-
विषय
दान-सामर्थ्यादि की विषमता।
भावार्थ
(समौ चित् हस्तौ) दोनों हाथ एक समान होकर भी (समं न विविष्टः) एक समान व्यापार नहीं करते। (सम् मातरा चित्) एक समान दो माताएं भी (न समं दुहाते) एक समान दूध नहीं देतीं। (यमयोः चित् वीर्याणि न समा) एक साथ उत्पन्न जोड़े पुत्रों के भी एक समान बल-सामर्थ्य नहीं होते। (ज्ञाती चित् सन्तौ) दोनों समान सम्बन्धी होकर भी (समं न पृणीतः) एक समान दान देने में समर्थ नहीं होते इति त्रयोविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्भिक्षुः॥ इन्द्रो देवता—घनान्नदान प्रशंसा॥ छन्दः—१ निचृज्जगती—२ पादनिचृज्जगती। ३, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(समौ चित्-हस्तौ समं न विविष्टः) एक जैसे हाथ भी कार्य में समान प्रवेश नहीं करते (सम्मातरा चित्-न समं दुहाते) बच्चे का एक जैसा निर्माण करने वाली दो धायाए समान रूप में दूध नहीं पिलाती (यमयोः-चित् समा वीर्याणि न) दो युगलों-जुडवां बच्चों के भी कार्य करने में समान बल नहीं होते, एवं (ज्ञाती चित् सन्तौ न समं पृणीतः) परस्पर सम्बन्धी एकवंशीय दो बन्धु होते हुए भी समान अन्न-धनसम्पत्ति से अधिकारी याचक को समान रूप में तृप्त नहीं करते ॥९॥
विशेष
ऋषिः- भिक्षुः परमात्म सत्सङ्ग का भिक्षु गौणरूप में अन्न का भी भिक्षु परमात्मसत्सङ्गार्थ ही भिक्षु [(अन्न का भिक्षु)] देवता- धनान्नदान प्रशंसा, इन्द्रश्च (धनान्नदान की प्रशंसा और भिक्षाचर्या में अभीष्ट परमात्मा)
संस्कृत (1)
पदार्थः
(समौ चित्-हस्तौ समं न विविष्टः) समानावपि हस्तौ कार्ये न समानं प्रवेश कुरुतः (सं मातरा चित्-न समं दुहाते) शिशोर्निर्माणकर्त्र्यो द्वौ धात्र्यौ समानं दुग्धं न पाययतः (यमयोः-चित्-न समा वीर्याणि) सहजातयोर्मनुष्ययोर्न समानि बलानि भवन्ति (ज्ञाती चित् सन्तौ न समं पृणीतः) एकवंशकौ पुरुषावपि धनादिना समानं न तर्पयतः दाने न स्पर्धा तुलना वा कार्या दानं तु स्वश्रद्धया देयम्-दातव्यमेव ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The two hands, howsoever alike, do not perform equally well, two mother cows, alike and equal otherwise, do not yield the same quality and quantity of milk, the power and performance of even twins is not equal and the same, and two persons may be closely related, still they are not equal and exactly alike in charity.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाचे हात समान आहेत; परंतु एखादे कार्य समान रूपाने करत नाही. बालकाला पाळणाऱ्या दोन दाया बालकाला समान रूपाने दूध पाजवित नाहीत. एका मातेपासून उत्पन्न झालेल्या दोन जुळ्या माणसांचे समान बल नसते. एकाच वंशातील दोन माणसे अन्नधान्य व धन इत्यादीने एखाद्याला समान रूपाने तृप्त करत नाहीत. त्यासाठी दानाची स्पर्धा किंवा तुलना करता कामा नये, तर ते श्रद्धेने दिले पाहिजे. ॥९॥
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