ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 118/ मन्त्र 2
ऋषिः - उरुक्षय आमहीयवः
देवता - अग्नी रक्षोहा
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उत्ति॑ष्ठसि॒ स्वा॑हुतो घृ॒तानि॒ प्रति॑ मोदसे । यत्त्वा॒ स्रुच॑: स॒मस्थि॑रन् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ति॒ष्ठ॒सि॒ । सुऽआ॑हुतः । घृ॒तानि॑ । प्रति॑ । मो॒द॒से॒ । यत् । त्वा॒ । स्रुचः॑ । स॒म्ऽअस्थि॑रन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तिष्ठसि स्वाहुतो घृतानि प्रति मोदसे । यत्त्वा स्रुच: समस्थिरन् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । तिष्ठसि । सुऽआहुतः । घृतानि । प्रति । मोदसे । यत् । त्वा । स्रुचः । सम्ऽअस्थिरन् ॥ १०.११८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 118; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सु-आहुतः) हे अग्रणेता परमात्मन् या अग्नि ! सुष्ठु आह्वान को प्राप्त या सुष्ठु होम से आहुत (उत् तिष्ठसि) साक्षात् होता है या उज्ज्वलित होता है (व्रतानि प्रति) देवव्रतों-मुमुक्षुओं के कर्मों को लक्ष्य करके या घृतादि हव्य पदार्थ को लेकर (मोदसे) अन्यों को हर्षित करता है (यत्-त्वा) जब तुझे (स्रुचः) स्तुतिवाणियों या जुहू आदि पात्र (समस्थिरन्) सम्यक् प्राप्त हो जाते-सङ्गत हो जाते हैं ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा प्रार्थना द्वारा आमन्त्रित किया हुआ साक्षात् होता है, तो मुमुक्षुजनों के कर्मों को लक्ष्य करके उन्हें आनन्दित करता है और उनकी स्तुतियाँ उसमें सङ्गत हो जाती हैं एवं होम द्वारा आधान को प्राप्त हुआ अग्नि उद्दीप्त हो जाता है, तब घृतादि हव्य द्रव्यों को लेकर सुगन्ध से आनन्दित कर देता है, जब कि जुहू आदि पात्र सम्यक् वर्त्तमान होते हैं ॥२॥
विषय
स्वस्थ- दीप्त-यज्ञशील
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! आप (सु आहुतः) = अच्छी तरह अर्पित हुए हुए, जिनके प्रति उपासक ने अपना सम्यक् अर्पण किया है, (उत्तिष्ठासि) = उठ खड़े होते हैं । उपासक के रक्षण के लिए आप सदा उद्यत रहते हैं । [२] (घृतानि प्रति) = [घृ क्षरणदीप्त्योः] मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्तियों के अनुसार मोदसे आप प्रसन्न होते हैं। जैसे एक पिता अपने पुत्र को स्वस्थ व ज्ञानदीप्त देखकर प्रसन्न होता है, उसी प्रकार प्रभु उपासक को निर्मल व दीप्त देखकर प्रसन्न होते हैं । (यत्) = जब (त्वा) = तुझे (स्रुच:) = [यजमानः स्रुचः तै ३ । ३ । ६ । ३] यज्ञशील पुरुष (समस्थिरन्) = अपने में संस्थित करते हैं। [३] यहाँ मन्त्र में 'घृतानि' शब्द शरीरों के मलों के दूरीकरण के द्वारा स्वास्थ्य तथा ज्ञानदीप्ति का संकेत करता है और 'स्रुचः ' शब्द यज्ञशीलता का । शरीर स्वस्थ हो, मस्तिष्क दीप्त हो तथा हृदय यज्ञिय - वृत्तियों से पूर्ण हो तो प्रभु क्यों न प्रसन्न होंगे।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें, प्रभु हमारा रक्षण करें। हम स्वस्थ - दीप्त- यज्ञशील बनें, प्रभु हमारे से प्रसन्न होंगे ।
विषय
आहुतिप्राप्त अग्नि के तुल्य तेजस्वी को उत्तम वचनों से प्रसन्न होने का उपदेश।
भावार्थ
हे (अग्ने) स्वप्रकाश ! उत्तम नायक ! आत्मन् ! (आहुतः उत् तिष्ठसि) जिस प्रकार अग्नि चरु, घृत आदि की आहुति पाकर ऊपर उठता है उसी प्रकार तू भी (सु-आहुतः) उत्तम रीति से आदर सत्कार पाकर उदय को प्राप्त होता है। (घृतानि प्रति मोदसे) घृतों को प्राप्त होकर जैसे अग्नि प्रसन्न होता, अधिक उज्ज्वल होकर चमकता है उसी प्रकार हे विद्वन् ! तू (घृतानि) आदरार्थ जलों वा स्निग्ध वचनों को पाकर (प्रति मोदसे) सत्कार करने वाले के प्रति हर्ष प्रकट कर। (स्रुचः सम् अस्थिरन्) जिस प्रकार स्त्रुवे अग्नि को स्थिर भाव से रखते हैं उसी प्रकार हे विद्वन् ! (त्वा) तुझको (स्रुचः) प्राणगण (सम् अस्थिरन्) अच्छी प्रकार स्थिर करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरुरुक्षय आमहीयवः॥ देवता—अग्नी रोहा॥ छन्दः—१ पिपीलिकामध्या गायत्री। २, ५ निचृद्गायत्री। ३, ८ विराड् गायत्री। ६, ७ पादनिचृद्गायत्री। ४, ९ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सु-आहुतः) हे अग्रणेतः परमात्मन् ! यद्वा अग्ने ! त्वं सुष्ठु-आह्वानं प्राप्तः “स्वाहुतः सुष्ठु कृताह्वानः” [यजु० १५।१३ दयानन्दः] सुष्ठु होमेनाहुतो वा (उत् तिष्ठसि) साक्षाद् भवसि-उज्ज्वलसि वा (घृतानि प्रति मोदसे) देवव्रतानि मुमुक्षुकर्माणि “देवव्रतं वै घृतम्” [तां० १८।१२।६] घृतादीनि वा प्रतिकृत्य मोदयसेऽन्यान् (यत्-त्वा स्रुचः समस्थिरन्) यदा त्वां स्तुतिवाचः “वाग्वै स्रुक्” [श० ६।३।१।८] जुह्वादीनि पात्राणि सन्तिष्ठन्ते ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
You rise in flames of glory and respond with fragrant joy to the oblations of ghrta when ladlefuls are brought close to the vedi and poured into the fire.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा प्रार्थनेद्वारे साक्षात होतो. मुमुक्षू जनांच्या कर्मांना लक्ष्य करून त्यांना आनंदित करतो व त्यांची स्तुती त्यात अभिप्रेत असतेच. होमाद्वारे आधान केलेला अग्नी उद्दीप्त होतो व घृत इत्यादी हव्य द्रव्यांनी सुगंधित करून आनंदित करतो. स्रुपा इत्यादि पात्र तेथे उपस्थित असतात ॥२॥
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