ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 118/ मन्त्र 6
ऋषिः - उरुक्षय आमहीयवः
देवता - अग्नी रक्षोहा
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
तं म॑र्ता॒ अम॑र्त्यं घृ॒तेना॒ग्निं स॑पर्यत । अदा॑भ्यं गृ॒हप॑तिम् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । म॒र्ताः॒ । अम॑र्त्यम् । घृ॒तेन॑ । अ॒ग्निम् । स॒प॒र्य॒त॒ । अदा॑भ्यम् । गृ॒हऽप॑तिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं मर्ता अमर्त्यं घृतेनाग्निं सपर्यत । अदाभ्यं गृहपतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । मर्ताः । अमर्त्यम् । घृतेन । अग्निम् । सपर्यत । अदाभ्यम् । गृहऽपतिम् ॥ १०.११८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 118; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मर्ताः) हे मनुष्यों ! (तम्) उस (अमर्त्यम्-अग्निम्) अविनाशी परमात्मा को या पृथिवी जलादि की भाँति कण-कण नष्ट न होनेवाले अग्नि को (अदाभ्यम्) अहिंसनीय (गृहपतिम्) हृदयगृह-स्वामी या यज्ञगृह के स्वामी को (घृतेन) देवकर्म-मुमुक्षुकर्म ब्रह्मचर्यादि से या होम से सेवन करो ॥६॥
भावार्थ
मनुष्यों अहिंसनीय अमर परमात्मा हृदयगृह के स्वामी को ब्रह्मचर्य, शम, दमादि के द्वारा अपने अन्दर साक्षात् करें एवं पृथिवी जलादि के समान कणशः नष्ट न होनेवाले यज्ञगृह के स्वामी अग्नि को होम के द्वारा प्रतिदिन सेवन करें ॥६॥
विषय
अदाभ्य-गृहपति
पदार्थ
[१] हे (मर्ताः) = मनुष्यो ! (तम्) = उस (अमर्त्यम्) अविनाशी (अग्निम्) = प्रभु को (घृतेन) = ज्ञान की दीप्ति तथा मलों के क्षरण से सपर्यत पूजित करो। वे प्रभु (अदाभ्यम्) हिंसित होने योग्य नहीं । (गृहपतिम्) = इस शरीररूप गृह के वे रक्षक हैं । [२] जब तक मनुष्य प्रभु के उपासन से दूर रहते हैं तब तक संसार के इन तुच्छ विषयों में ही फँसे रह जाते हैं। इन विषयों के लिए अत्यन्त लालायित होने से इनके पीछे मरते रहने से ही वे 'मर्त' कहलाते हैं । प्रभु अमर्त्य हैं, प्रभु का उपासक भी अमर्त्य बनता है। प्रभु प्राप्ति के आनन्द की तुलना में विषयरस समाप्त हो जाता है। विषयों से हमें ऊपर उठाकर प्रभु हमारे इन शरीरों को जीर्ण होने से बचाते हैं, इसी से प्रभु 'गृहपति' कहलाते हैं। वे प्रभु हमारे काम-क्रोधादि शत्रुओं को विनष्ट करते हैं। हमें ये शत्रु हिंसित कर ले, पर प्रभु 'अदाभ्य' हैं, प्रभु हमारे लिये इनका संहार करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करते हैं, प्रभु हमारे शत्रुओं का संहार करके हमारे शरीर- गृह का रक्षण करते हैं।
विषय
मनुष्यों को विद्वान की परिचर्या का उपदेश।
भावार्थ
हे (मर्ताः) साधारण कोटि के मनुष्यो ! आप लोग (घृतेन अग्निम्) घी से अग्नि के तुल्य स्नेह से उस (अमर्त्यं) अविनाशी पुरुष की, (अदाभ्यं गृहपतिं) उस अहिंसनीय, गृहों के स्वामीवत् अवलम्ब ग्रहण करने वालों के पालक पुरुष की (सपर्यत) सेवा, परिचर्या और उपासना करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरुरुक्षय आमहीयवः॥ देवता—अग्नी रोहा॥ छन्दः—१ पिपीलिकामध्या गायत्री। २, ५ निचृद्गायत्री। ३, ८ विराड् गायत्री। ६, ७ पादनिचृद्गायत्री। ४, ९ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मर्ताः) हे मनुष्याः ! “मर्ताः-मनुष्यनाम” [निघ० २।३] (तम्-अमर्त्यम्-अग्निम्) तमविनाशिनं परमात्मानं यद्वा पृथिवीजलादिवत् कणशो न नश्यति तथाभूतं विनाशरहितमग्निं वा (अदाभ्यं गृहपतिम्) अहिंसनीयं हृदयगृहस्वामिनं यद्वा यज्ञगृहस्वामिनं (घृतेन सपर्यत) देवकर्मणा मुमुक्षुकर्मणा ब्रह्मचर्यादिना यद्वा होमेन सेवध्वम् ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That immortal Agni, the mortals serve with ghrta, Agni that is the redoubtable master protector of the home and family.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी अहिसंनीय, अमर परमात्म्याला हृदयगृहातील स्वामी असणाऱ्याला ब्रह्मचर्य, शम, दम इत्यादीद्वारे आपल्यामध्ये साक्षात करावे व पृथ्वीजलाप्रमाणे कणाकणांत राहणाऱ्या नष्ट न होणाऱ्या यज्ञगृहाचा स्वामी असलेल्या अग्नीला होम करून प्रत्येक दिवशी स्वीकारावे. ॥६॥
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