ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 118/ मन्त्र 7
ऋषिः - उरुक्षय आमहीयवः
देवता - अग्नी रक्षोहा
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अदा॑भ्येन शो॒चिषाग्ने॒ रक्ष॒स्त्वं द॑ह । गो॒पा ऋ॒तस्य॑ दीदिहि ॥
स्वर सहित पद पाठअदा॑भ्येन । शो॒चिषा॑ । अग्ने॑ । रक्षः॑ । त्वम् । द॒ह॒ । गो॒पाः । ऋ॒तस्य॑ । दी॒दि॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अदाभ्येन शोचिषाग्ने रक्षस्त्वं दह । गोपा ऋतस्य दीदिहि ॥
स्वर रहित पद पाठअदाभ्येन । शोचिषा । अग्ने । रक्षः । त्वम् । दह । गोपाः । ऋतस्य । दीदिहि ॥ १०.११८.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 118; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे परमात्मन् ! या-भौतिक अग्नि ! (अदाभ्येन) अपने अहिंसनीय (शोचिषा) तेज से (त्वं रक्षः) तू दुष्टजन या रोग को (दह) दग्ध कर (गोपाः) तू रक्षक होता हुआ (ऋतस्य) अध्यात्मयज्ञ या होमयज्ञ को (दीदिहि) प्रकाशित कर ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा रक्षक है, दुष्टजन को अपने प्रबल तेज से दग्ध कर देता है और अध्यात्मयज्ञ को प्रकाशित करता है एवं अग्नि अपने प्रबल ताप से रोग को दग्ध कर देती है जब कि वह होमयज्ञ को प्रकाशित करती है ॥७॥
विषय
ऋतस्य गोपाः
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (अदाभ्येन शोचिषा) = अपनी कभी हिंसित न होनेवाली ज्ञानदीप्ति से (रक्षः) = राक्षसी भावों का (दह) = दहन कीजिए। आपकी उपासना से मेरे में भी वह ज्ञान की ज्योति जगे, जिसमें कि सभी राक्षसी भावों का दहन हो जाए। [२] हे प्रभो ! (ऋतस्य) = ऋत के (गोपाः) = रक्षक आप (दीदिहि) = मेरे हृदय में दीप्त होइये । हृदय में आपकी ज्योति जगने पर मेरा जीवन ऋत से परिपूर्ण हो उठता है। आप 'ऋत' स्वरूप हैं, आपकी उपस्थिति में मेरा हृदय भी अनृत का निवास-स्थान नहीं बन पाता। ऋत का अर्थ यज्ञ भी है। प्रभु के प्रकाश के होने पर मेरा जीवन यज्ञमय हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की ज्योति से मेरे राक्षसी भावों का दहन हो जाए। मेरा जीवन ऋतमय हो । मैं यज्ञों में ही आनन्द लेनेवाला बनूँ ।
विषय
तेजस्वी दुष्टों का नाश करे, न्याय की रक्षा करे।
भावार्थ
हे (अग्ने) प्रकाशस्वरूप, ज्ञान के प्रकाशक, तेजस्विन् ! (अदाभ्येन शोचिषा) अविनाशी तेज से (त्वं रक्षः दह) तू दुष्टों को दग्ध कर। तू (ऋतस्य गोपाः) सत्य ज्ञान, न्याय धर्मतत्त्व का और रक्षक होकर (दीदिहि) प्रकाशित हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरुरुक्षय आमहीयवः॥ देवता—अग्नी रोहा॥ छन्दः—१ पिपीलिकामध्या गायत्री। २, ५ निचृद्गायत्री। ३, ८ विराड् गायत्री। ६, ७ पादनिचृद्गायत्री। ४, ९ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे परमात्मन् ! भौतिकाग्ने ! वा (अदाभ्येन शोचिषा) स्वकीयेनाहिंसनीयेन तेजसा (त्वं रक्षः-दह) त्वं रक्षन्ति यस्मात् तं दुष्टजनं रोगं वा दग्धं कुरु (गोपाः-ऋतस्य-दीदिहि) रक्षकः सन् “ऋतम् द्वितीयार्थे षष्ठी छान्दसी” अध्यात्मयज्ञं होमयज्ञं वा प्रकाशय ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, with your inviolable and irresistible light and heat, burn the negative forces that damage life, and shine and blaze as protector and promoter of the yajna of life’s progress.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा रक्षक आहे. दुष्ट लोकांना आपल्या प्रबल तेजाने दग्ध करतो व अध्यात्मयज्ञ प्रकाशित करतो, तसेच अग्नी आपल्या प्रबल तापाने रोग दग्ध करतो व अध्यात्मयज्ञ प्रकाशित करतो, तसेच अग्नी आपल्या प्रबल तापाने रोग दग्ध करतो. होमयज्ञाला प्रकाशित करतो. ॥७॥
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