ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 118/ मन्त्र 5
ऋषिः - उरुक्षय आमहीयवः
देवता - अग्नी रक्षोहा
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
जर॑माण॒: समि॑ध्यसे दे॒वेभ्यो॑ हव्यवाहन । तं त्वा॑ हवन्त॒ मर्त्या॑: ॥
स्वर सहित पद पाठजर॑माणः । सम् । इ॒ध्य॒से॒ । दे॒वेभ्यः॑ । ह॒व्य॒ऽवा॒ह॒न॒ । तम् । त्वा॒ । ह॒व॒न्त॒ । मर्त्याः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जरमाण: समिध्यसे देवेभ्यो हव्यवाहन । तं त्वा हवन्त मर्त्या: ॥
स्वर रहित पद पाठजरमाणः । सम् । इध्यसे । देवेभ्यः । हव्यऽवाहन । तम् । त्वा । हवन्त । मर्त्याः ॥ १०.११८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 118; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(हव्यवाहन) हे ग्रहण करने योग्य वस्तुओं के प्राप्त करानेवाले परमात्मन् ! या होतव्य हवन करने योग्य वस्तु को वहन करनेवाले (जरमाणः) स्तुति में लाया हुआ या प्रशंसित किया हुआ (देवेभ्यः) मुमुक्षुजनों के लिये या भौतिक देवों के लिये (सम् इध्यसे) सम्यक् प्रकाशित होता है या प्रज्वलित होता है (तं त्वा)) उस तुझको (मर्त्याः) मनुष्य (हवन्त) प्रार्थित करते हैं या हवन में उपयुक्त करते हैं ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करानेवाला है, वह स्तुति में लाया हुआ मुमुक्षुओं के लिये साक्षात् होता है, उसकी स्तुति प्रार्थना सब मनुष्यों को करनी चाहिये एवं अग्नि होम करने योग्य वस्तु को सूक्ष्म करती है और वायु आदि देवों के लिये पहुँचा देती है, इसलिये वायु आदि देवों को अनुकूल बनाने के लिये मनुष्यों को अग्नि में होम करना चाहिये ॥५॥
विषय
'हव्यवाहन' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (हव्यवाहन) = हव्य - पवित्र पदार्थों को प्राप्त करानेवाले प्रभो! आप (जरमाणः) = स्तुति किये जाते हुए (देवेभ्यः) = देवों के लिए समिध्यसे दीप्त होते हो । देववृत्ति के पुरुषों के हृदय में, स्तवन के होने पर, प्रभु प्रकट होते हैं । [२] हे प्रभो ! (तं त्वा) = उन आपको (मर्त्याः हवन्त) = सब मनुष्य पुकारते हैं । सब व्यक्ति कष्ट के आने पर प्रभु का ही स्मरण करते हैं। कष्ट निवारण के लिए प्रभु का ही आराधन करते हैं। देव तो सदा प्रभु का स्मरण करते ही हैं, वस्तुतः उनके देवत्व का रहस्य इस प्रभु स्मरण में ही है। मर्त्य भी प्रभु को ही पुकारते हैं। वे प्रभु ही सब हव्यपदार्थों को प्राप्त कराके हमारे कष्टों को दूर करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु देववृत्ति के पुरुषों के हृदयों में प्रकट होते हैं।
विषय
विद्वान् ज्ञानोपदेश से प्रकाशित हो।
भावार्थ
हे (हव्य-वाहन) हव्य, चरु, घृत आदि आहुति देने योग्य पदार्थों को दूर २ तक लेजाने वाले अग्नि के तुल्य ग्राह्य, धनों, दातव्य ज्ञानों को स्वयं ग्रहण करने और अन्यों को प्रदान करने वाले ! तू (देवेभ्यः) कामनावान् मनुष्यों के हितार्थ (जरमाणः) उपदेश करता हुआ (समिध्यसे) अधिक प्रकाशित हो। (तं त्वा) उस तुझको (मर्त्याः) मनुष्य (हवन्त) प्रार्थना करते हैं। इति चतुर्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरुरुक्षय आमहीयवः॥ देवता—अग्नी रोहा॥ छन्दः—१ पिपीलिकामध्या गायत्री। २, ५ निचृद्गायत्री। ३, ८ विराड् गायत्री। ६, ७ पादनिचृद्गायत्री। ४, ९ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(हव्यवाहन) हे हव्यानि आदातव्यानि वस्तूनि वहति प्रापयति तत्सम्बुद्धौ परमात्मन्, यद्वा होतव्यं वहतुमर्ह ! अग्ने ! (जरमाणः) स्तूयमानः सन् प्रशस्यमानः सन् वा (देवेभ्यः सम् इध्यसे) मुमुक्षुभ्यः सम्यक् प्रकाशितो भवसि भौतिकदेवेभ्यो ज्वलितो भवसि वा (तं त्वा मर्त्याः-हवन्त) तं त्वां मनुष्याः प्रार्थयन्ते यद्वा होमे-उपयुञ्जन्ति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Invoked, celebrated and exalted, you rise and shine, harbinger of fragrances for the divinities of nature and noble humanity, and as such the mortals invoke and adore you in their yajnic celebrations.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आवश्यक वस्तूंना प्राप्त करविणारा आहे. तो स्तुती करणाऱ्या मुमुक्षूसाठी साक्षात होतो. त्याची स्तुती प्रार्थना सर्व माणसांनी केली पाहिजे. अग्नी होम वस्तूला सूक्ष्म करतो व वायू इत्यादी देवांना पोचवितो. त्यासाठी वायू इत्यादी देवांना अनुकूल बनविण्यासाठी माणसांनी अग्नीत होम केला पाहिजे. ॥५॥
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