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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 120 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 120/ मन्त्र 4
    ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इति॑ चि॒द्धि त्वा॒ धना॒ जय॑न्तं॒ मदे॑मदे अनु॒मद॑न्ति॒ विप्रा॑: । ओजी॑यो धृष्णो स्थि॒रमा त॑नुष्व॒ मा त्वा॑ दभन्यातु॒धाना॑ दु॒रेवा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इति॑ । चि॒त् । हि । त्वा॒ । धना॑ । जय॑न्तम् । मदे॑ऽमदे । अ॒नु॒ऽमद॑न्ति । विप्राः॑ । ओजी॑यः । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । स्थि॒रम् । आ । त॒नु॒ष्व॒ । मा । त्वा॒ । द॒भ॒न् । या॒तु॒ऽधानाः॑ । दुः॒ऽएवाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इति चिद्धि त्वा धना जयन्तं मदेमदे अनुमदन्ति विप्रा: । ओजीयो धृष्णो स्थिरमा तनुष्व मा त्वा दभन्यातुधाना दुरेवा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इति । चित् । हि । त्वा । धना । जयन्तम् । मदेऽमदे । अनुऽमदन्ति । विप्राः । ओजीयः । धृष्णो इति । स्थिरम् । आ । तनुष्व । मा । त्वा । दभन् । यातुऽधानाः । दुःऽएवाः ॥ १०.१२०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 120; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ओजीयः) हे अत्यन्त ओजस्वी-अत्यन्त आत्मबलवाले (धृष्णो) धर्षणशील परमात्मन् ! (स्थिरम्) दृढ़ शस्त्र को (आ तनुष्व) सन्नद्ध कर या प्रसारित कर (यातुधानाः) यातनाधारक (दुरेवाः) बुरी गति करनेवाले कुटिल नास्तिक दुष्टजन (त्वा) तुझे (मा दभन्) दबा नहीं सकते (इति चित्-हि) इस प्रकार तुझे स्थित हुए (धना जयन्तम्) धनों-तृप्ति करनेवाली वस्तुएँ अधिकार में करते हुए (त्वा-अनु) तुझको आश्रित करते हैं (मदे मदे) प्रत्येक हर्षप्रसङ्ग में (विप्राः) मेधावी स्तुति करनेवाले (मदन्ति) तेरी स्तुति करते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा अत्यन्त आत्मबलवाला है, उसका न्यायशस्त्र सबल है, प्राणियों को पीड़ा देनेवाले कुटिलगामी नास्तिक दुष्ट जन उसके न्यायदण्ड से बच नहीं सकते, समस्त तृप्त करनेवाली वस्तुओं के अधिष्ठाता परमात्मा के आश्रय में रहनेवाले विद्वान् उपासक प्रत्येक आनन्द उत्सव में उसकी स्तुति किया करते हैं ॥४॥

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    विषय

    धन के साथ प्रभु स्मरण

    पदार्थ

    [१] (इति चित् हि) = इस प्रकार निश्चय से (धना जयन्तं त्वा) = सब धनों का विजय करनेवाले आपको (विप्राः) = ये ज्ञानी पुरुष (मदे मदे) = प्रत्येक हर्ष के अवसर (अनुमदन्ति) = [स्तुवन्ति सा० ] अनुकूलता से स्तुत करते हैं। ज्ञानी पुरुष सब धनों की विजय को आपकी ही विजय समझते हैं और इन विजयों में प्रसन्नता के प्राप्त होने पर आपका ही स्तवन करते हैं, जिससे इन विजयों के हर्ष में वास्तविकता को भूलकर वे अहंकार व ममता का शिकार न हो जाएँ। [२] हे (धृष्णो) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले प्रभो ! (ओजीयः) = ओजस्वितावाले (स्थिरम्) = स्थिर धन को (आतनुष्व) = हमारे लिए विस्तृत करिये। हमें धन प्राप्त हो, वह धन हमारी ओजस्विता को बढ़ानेवाला हो और हमारी चित्तवृत्ति को अस्थिर करनेवाला न हो। उस धन के कारण हम व्यर्थ के विषयों में भटकनेवाले न बन जाएँ। इन धनों के कारण हमारे जीवनों में (दुरेवा:) = दुर्ग मनवाले (यातुधानाः) = पीड़ा को आहित करनेवाले आसुरभाव (त्वा मा दभन्) = आपके स्मरण को हमारे हृदयों से हिंसित न कर दें। धनों में व्यासक्त हो हम आपको भूल न जाएँ। 'धन हों, धनों के साथ प्रभु का स्मरण हो' वही जीवन धन्य है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें धन प्राप्त हों। ये धन हमारी ओजस्विता व चित्तवृत्ति की स्थिरता को नष्ट करनेवाले न हों। धनों में आसक्त होकर हम प्रभु को न भूल जाएँ ।

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    विषय

    प्रजापालक राज्य के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (इति चित् हि त्वा) इसी प्रकार हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् प्रजापालक ! (धना जयन्तं त्वा) नाना ऐश्वर्यों को विजय करते हुए तुझको देख कर वा प्राप्त करके (विप्राः मदेमदे अनु मदन्ति) विद्वान् पुरुष प्रत्येक हर्ष के अवसर पर तेरी ही स्तुति किया करते हैं। हे (धृष्णो) शत्रु को पराजय करने हारे ! तू (ओजयः) सबसे अधिक पराक्रम वाला है, तू (स्थिरम्) स्थिर राज्य का (आ नुष्व) विस्तार कर। (दुरेवाः) बुरी चालों वाले (यातु-धानाः) पीड़ादायक दुष्ट लोग (त्वा मा दभन्) तेरा नाश न कर सकें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्बृहद्दिव आथर्वणः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः– १ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ७, ८ विराट् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ओजीयः-धृष्णो) हे अत्योजस्विन् ! अत्यात्मबलवन् धर्षणशील ! परमात्मन् ! (स्थिरम्-आ तनुष्व) स्थिरं दृढं शास्त्रं सन्नद्धं कुरु, प्रसारय वा (यातुधानाः-दुरेवाः-त्वा मा दभन्) यातनाधारकाः-दुर्गमनाः-नास्तिका दुष्टाः-त्वां न दभ्नुवन्ति दब्धुं न शक्नुवन्ति (इति चित्-हि) इत्थं स्थितं खलु (धना जयन्तं त्वा-अनु) धनानि तृप्तिकराणि वस्तूनि खल्वधिकुर्वन्तं त्वामनु (मदे मदे) हर्षप्रसङ्गमात्रे (विप्राः मदन्ति) मेधाविनो जनाः स्तुवन्ति “मदति-अर्चतिकर्मा” [निघ० ३।२] ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thus with joy on every happy occasion of life, grateful people and vibrant sages celebrate you, winner, creator and giver of wealth and excellence. Illustrious lord of shattering power, expand the commonwealth of permanent values. Let not the crooked and fiendish forces on the prowl suppress the creative gifts of divine generosity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा अत्यंत आत्मबलयुक्त आहे. त्याचे न्यायशास्त्र सबल आहे. प्राण्यांना त्रास देणारे कुटिलगामी नास्तिक दुष्ट जन त्याच्या न्यायदंडापासून वाचू शकत नाहीत. संपूर्ण तृप्ती करणाऱ्या वस्तूंचा अधिष्ठाता असलेल्या परमात्म्याच्या आश्रयाने राहणारे विद्वान उपासक प्रत्येक आनंदोत्सवात त्याची स्तुती करतात. ॥४॥

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