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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 120 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 120/ मन्त्र 8
    ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मा ब्रह्म॑ बृ॒हद्दि॑वो विव॒क्तीन्द्रा॑य शू॒षम॑ग्रि॒यः स्व॒र्षाः । म॒हो गो॒त्रस्य॑ क्षयति स्व॒राजो॒ दुर॑श्च॒ विश्वा॑ अवृणो॒दप॒ स्वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मा । ब्रह्म॑ । बृ॒हत्ऽदि॑वः । वि॒व॒क्ति॒ । इन्द्रा॑य । शू॒षम् । अ॒ग्रि॒यः । स्वः॒ऽसाः । म॒हः । गो॒त्रस्य॑ । क्ष॒य॒ति॒ । स्व॒ऽराजः॑ । दुरः॑ । च॒ । विश्वाः॑ । अ॒वृ॒णो॒त् । अप॑ । स्वाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा ब्रह्म बृहद्दिवो विवक्तीन्द्राय शूषमग्रियः स्वर्षाः । महो गोत्रस्य क्षयति स्वराजो दुरश्च विश्वा अवृणोदप स्वाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमा । ब्रह्म । बृहत्ऽदिवः । विवक्ति । इन्द्राय । शूषम् । अग्रियः । स्वःऽसाः । महः । गोत्रस्य । क्षयति । स्वऽराजः । दुरः । च । विश्वाः । अवृणोत् । अप । स्वाः ॥ १०.१२०.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 120; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (बृहद्दिवः) महाविद्यावान् वेदवेत्ता, विद्वान् (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् परमात्मा के लिये (इमा ब्रह्म) इन स्तोत्रों-स्तुतिवचनों को (विवक्ति) विशेषरूप से कहता है-प्रार्थित करता है (शूषम्) सुख जिससे हो इस प्रयोजन के लिये (अग्रियः) श्रेष्ठ (स्वर्षाः) सुख-सम्भाजक है (महः-स्वराजः) महान् स्वराजमान स्वतःप्रमाण (गोत्रस्य) वाणीसमूह वेद का (क्षयति) स्वामित्व करता है (च) और (स्वाः-विश्वाः) वेद-ज्ञान से स्वकीय सारे (दुरः) द्वारों को (अप-अवृणोत्) उद्घाटित करता है-प्रकाशित करता है ॥८॥

    भावार्थ

    वेदविद्या का विद्वान् अपने सुख के लिये परमात्मा की स्तुति प्रार्थना करता है, जो परमात्मा वेदज्ञान का स्वामी है और वेदज्ञान को प्राप्त करके अपने मन आदि द्वारों को खोलता है ॥८॥

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    विषय

    इन्द्रिय शक्तियों का विकास-सुख

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार जिसके जीवन में प्रभु द्वारा अवर व पर धन की स्थापना की गई है वह (बृहद्दिवः) = उत्कृष्ट ज्ञान-धनवाला व्यक्ति (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (इमा ब्रह्म) = इन स्तोत्रों का (विवक्ति) = उच्चारण करता है। [२] इस स्तवन से (अग्रियः) = जीवन मार्ग में आगे बढ़नेवाला (स्वर्षा:) = प्रकाश को प्राप्त करनेवाला यह 'बृहद्दिव' (शूषम्) = शत्रु-शोषक बल को [नि० ३ । ९] व सुख को [नि० ३ । ६] (क्षयति) = [क्षि गतौ ] प्राप्त होता है और (महः गोत्रस्य) = इस तेजस्वी इन्द्रिय-समूह का (क्षयति) = ईश्वर होता है [क्षि] । [३] यह (स्वराजः) = अपना शासन करनेवाला व्यक्ति (विश्वाः) = सब (स्वा:) = अपने (दुर:) = इन्द्रिय द्वारों को (अप अवृणोत्) = खोलनेवाला होता है, निवृत करनेवाला होता है। इसकी इन्द्रिय शक्तियों का विकास हो जाता है। यह इन्द्रिय शक्तियों का विकास ही वास्तविक 'सुख' है [सु-उत्तम, ख= इन्द्रियाँ] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का स्तवन करता हुआ ज्ञानी पुरुष इन्द्रियों का स्वामी बनता है, उनकी शक्तियों का विकास करता है और वास्तविक सुख को पाता है ।

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    विषय

    प्रभु के बल, सुख आदि का वर्णन।

    भावार्थ

    (बृहद्-दिवः) सूर्य और आकाश के समान महान्, तेजस्वी, ज्ञानी, प्रभु या विद्वान् (इमा ब्रह्म) इन वेद-वचनों का (विवक्ति) विविध प्रकार से उपदेश करता है । (इन्द्राय शूषम्) परमैश्वर्यवान्, प्रभु का बल वा सुख का सूर्य के तुल्य ही, वर्णन करता है। वह (अग्रियः) सबसे प्रथम, (स्वर्षाः) समस्त तेजों और सुखों का प्रदान करने वाला है। वह (स्व-राजः) स्वयं चमकने वाले (महः गोत्रस्य) बड़े भारी, वाणियों के पालक वेद-ज्ञान का (क्षयति) स्वामी है। वह ही (विश्वाः) समस्त (स्वः दुरः) अपने अनेको द्वारों को (आवृणोत्) खोलता है। वही अपने समस्त रहस्यों को प्रकट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्बृहद्दिव आथर्वणः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः– १ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ७, ८ विराट् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (बृहद्दिवः) महाविद्यावान् वेदवेत्ता “बृहद्दिवैः-बृहती दिवा विद्या येषां तेः” [ऋ० १।१६७।२ दयानन्दः] (इन्द्राय) ऐश्वर्यवते परमात्मने (इमा ब्रह्म विवक्ति) इमानि ब्रह्माणि स्तोत्राणि स्तुतिवचनानि विशेषेण ब्रवीति-प्रार्थयते (शूषम्) सुखं यथा स्यादिति स्वप्रयोजनार्थम् अतः (अग्रियः स्वर्षाः) श्रेष्ठः सुखसम्भाजकोऽस्ति ‘स्वः पूर्वकात् षण धातोः “जनसनखनक्रमगमो विट्” [अष्टा० ३।२।६७] पुनः “विड्वनोरनुनासिकस्यात्” [अष्टा० ६।४।४१] (महः स्वराजः-गोत्रस्य क्षयति) महतः स्वराजमानस्य स्वतःप्रमाणस्य वाक्समूहस्य वेदस्य खल्वीष्टेऽधिपतिर्भवति “क्षयति-ऐश्वर्यकर्मा” [निघ० २।२१] (स्वाः-विश्वाः-दुरः-च-अप-अवृणोत्) वेदज्ञानद्वारेण स्वकीयानि सर्वाणि स्वरूपद्वाराणि खलूद्घाटयति प्रकाशयति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The poet of boundless heavenly light speaks these divine verses in honour of Indra for his own spiritual peace and pleasure. First and foremost among eminent poets, self-illuminant, self-refulgent and self- controlled, he masters the mighty treasure of Vedic wisdom and he opens the flood gates of his own vision of universal light and wisdom.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदविद्येचा विद्वान आपल्या सुखासाठी परमात्म्याची स्तुती प्रार्थना करतो. परमात्मा वेदज्ञानाचा स्वामी आहे व वेदज्ञान प्राप्त केल्यावर आपल्या मन इत्यादी द्वारांना तो उघडतो. ॥८॥

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