ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 120/ मन्त्र 7
ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नि तद्द॑धि॒षेऽव॑रं॒ परं॑ च॒ यस्मि॒न्नावि॒थाव॑सा दुरो॒णे । आ मा॒तरा॑ स्थापयसे जिग॒त्नू अत॑ इनोषि॒ कर्व॑रा पु॒रूणि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनि । तत् । द॒धि॒षे॒ । अव॑रम् । पर॑म् । च॒ । यस्मि॑न् । आवि॒थ । अव॑सा । दु॒रो॒णे । आ । मा॒तरा॑ । स्था॒प॒य॒से॒ । जि॒ग॒त्नू इति॑ । अतः॑ । इ॒नो॒षि॒ । कर्व॑रा । पु॒रूणि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नि तद्दधिषेऽवरं परं च यस्मिन्नाविथावसा दुरोणे । आ मातरा स्थापयसे जिगत्नू अत इनोषि कर्वरा पुरूणि ॥
स्वर रहित पद पाठनि । तत् । दधिषे । अवरम् । परम् । च । यस्मिन् । आविथ । अवसा । दुरोणे । आ । मातरा । स्थापयसे । जिगत्नू इति । अतः । इनोषि । कर्वरा । पुरूणि ॥ १०.१२०.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 120; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यस्मिन् दुरोणे) जिस विशाल घर-संसार में (जिगत्नू) गमनशील (मातरा) द्यावापृथिवी-द्युलोक और पृथिवीलोक को (आ स्थापयसे) तू भलीभाँति स्थापित करता है रखता है (तत्-अवरं परं च) वहाँ उस जड़ और जङ्गम को (नि दधिषे) नियत करता है (अवसा-आविथ) उस-उसके अन्न-आहार से रक्षा करता है (अतः) अत एव (पुरूणि कर्वरा) बहुत कर्मों को (इनोषि) व्याप्त होता है ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा ने विशाल ब्रह्माण्ड बनाया, जिसमें प्रकाशात्मक पिण्ड और अप्रकाशात्मक प्रकाश्य पिण्ड स्थापित किये, उनमें जड़ जङ्गम-वृक्ष और मनुष्यादि योनियाँ नियत कीं, उनके लिये वैसे-वैसे अन्न आहार की व्यवस्था करी, इस प्रकार बहुत कर्मकलापों को करा ॥७॥
विषय
अवर व पर धन का स्थापन
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (यस्मिन् दुरोणे) = जिस यज्ञशील पुरुष के इस शरीर रूप गृह में (अवसा) = [protection, food, wealth] रक्षण के द्वारा, उत्तम भोजन के द्वारा व धनों के द्वारा (आविथ) = आप रक्षण करते हो, उस गृह में (तत्) = उस प्रसिद्ध (अवरम्) = इस निचले पार्थिव धन को (परं च) = और उत्कृष्ट दिव्य धन को (नि दधिषे) = निश्चय से स्थापित करते हो। आप संसार यात्रा के लिए पार्थिव धनों को प्राप्त कराते हो, तो अध्यात्म उत्कर्ष के लिए दिव्य धन को देते हो। अथवा आप शक्ति व ज्ञान की स्थापना करते हो-क्षत्र और ब्रह्म की। [२] आप (जिगत्नू) = गतिशील मातरा जीवन का निर्माण करनेवाली पार्थिव व दिव्यशक्तियों की आस्थापयसे स्थापना करते हैं। हमारा शरीर व मस्तिष्क [पृथिवीलोक व द्युलोक] दोनों ही बड़े गतिशील होते हैं। और अतः इससे क्षत्र व ब्रह्म के प्रायण से आप (पुरुणि कर्वरा) = पालक व पूरक कर्मों को [ कर्वर = work ] (इनोषि) = व्याप्त करते हैं। हम प्रभु से शक्ति व ज्ञान को प्राप्त करके उन कर्मों को करनेवाले बनते हैं जो हमारा पालन व पूरण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमारे में अवर और पर धन की स्थापना करते हैं। हमें शक्ति व ज्ञान देते हैं, जिनसे कि हम पालक व पूरक कर्म कर पाते हैं।
विषय
आत्मा के सामर्थ्य और कर्म।
भावार्थ
(यस्मिन् दुरोणे) जिस गृह में तू (जिगत्नू मातरा) एक दूसरे को प्राप्त होने वाले, माता पिता के तुल्य जगत् के निर्माता सूर्य और भूमि दोनों को (अवसा आविथ) अपने अन्न, तेज, बल से रक्षा करता और (स्थापयसे) स्थापित करता है उससे ही तू (अवरं परं च) इस और उस, पास और दूर के जगत् को सभी ऐश्वर्य वा लोक परलोक को भी (नि दधिषे) स्थापित करता है। (अतः) इसी से तू (पुरुणि कर्वरा इनोषि) नाना कर्मों को भी करता, वा अनेक फलों को भी देता है।
टिप्पणी
कर्वरा इति कर्मनाम। नि०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्बृहद्दिव आथर्वणः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः– १ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ७, ८ विराट् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यस्मिन् दुरोणे) यस्मिन् विशाले गृहे-जगति (जिगत्नू) गमनशीले “गमेः सन्वच्च” [उणा० ३।३१] क्त्नुः प्रत्ययः (मातरा) द्यावापृथिव्यौ (आ स्थापयसे) समन्तात् स्थापयसि (तत्-अवरं परं च नि दधिषे) तज्जडं जङ्गमं च नियतं करोषि (अवसा-आविथ) तत्तदन्नेनाहारेण रक्षसि (अतः पुरूणि कर्वरा-इनोषि) अतस्त्वं बहूनि कर्माणि “कर्वरं कर्मनाम” [निघं० २।१] व्याप्नोषि “इनोषि व्याप्नोषि” [ऋ० ६।४।३ दयानन्दः] ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
You sustain this visible world of physical reality and the other invisible world of meta-physical and spiritual reality in which you maintain and protect everything with your might in their very home. And you hold and stabilise the revolving motherly earth and heaven, inspire many great actions therein and see them accomplished.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराने विशाल ब्रह्मांड बनविलेले आहे. ज्यात प्रकाशात्मक व अप्रकाशात्मक पिंड स्थापन केलेले आहेत. त्यात जड जंगम वृक्ष व मनुष्य इत्यादी योनी नियत केलेल्या आहेत. त्यांच्यासाठी तशा तशा प्रकारची अन्न व आहाराची व्यवस्था केलेली आहे. या प्रकारे त्याने अनेक प्रकारचे कार्य केलेले आहे. ॥७॥
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