ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 120/ मन्त्र 6
ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स्तु॒षेय्यं॑ पुरु॒वर्प॑स॒मृभ्व॑मि॒नत॑ममा॒प्त्यमा॒प्त्याना॑म् । आ द॑र्षते॒ शव॑सा स॒प्त दानू॒न्प्र सा॑क्षते प्रति॒माना॑नि॒ भूरि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्तु॒षेय्य॑म् । पु॒रु॒ऽवर्प॑सम् । ऋभ्व॑म् । इ॒नऽत॑मम् । आ॒प्त्यम् । आ॒प्त्याना॑म् । आ । द॒र्ष॒ते॒ । शव॑सा । स॒प्त । दानू॑न् । प्र । सा॒क्ष॒ते॒ । प्र॒ति॒ऽमाना॑नि । भूरि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुषेय्यं पुरुवर्पसमृभ्वमिनतममाप्त्यमाप्त्यानाम् । आ दर्षते शवसा सप्त दानून्प्र साक्षते प्रतिमानानि भूरि ॥
स्वर रहित पद पाठस्तुषेय्यम् । पुरुऽवर्पसम् । ऋभ्वम् । इनऽतमम् । आप्त्यम् । आप्त्यानाम् । आ । दर्षते । शवसा । सप्त । दानून् । प्र । साक्षते । प्रतिऽमानानि । भूरि ॥ १०.१२०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 120; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(आप्त्यानाम्) प्राप्तव्यों का भी (आप्त्यम्) प्राप्तव्य (स्तुषेय्यम्) स्तुति करने योग्य (पुरुवर्पसम्) बहुतगुणरूप (ऋभ्वम्) उरुभूत-महान् (इनतमम्) सर्वेश्वर परमात्मा को (शवसा) बल से (सप्त दानून्) सर्पणशील भोगप्रद इन्द्रियों को (आ दर्षते) बहिर्मुख करता है (भूरि प्रतिमानानि) बहुत विषय प्रमाणवाली (प्र साक्षते) भलीभाँति प्राप्त कराता है ॥६॥
भावार्थ
सत्सङ्ग के लिये प्राप्तव्य विद्वानों का भी जो प्राप्तव्य, गुरुओं का गुरु, स्तुतियोग्य अनन्त गुणरूप सर्वेश्वर परमात्मा इन्द्रियों को बहिर्मुख खोलता है, जिनके लिये बहुत विषयों को प्राप्त कराता है, उपासनीय है ॥६॥
विषय
ऋषि आश्रय, नकि दानव - गृह
पदार्थ
[१] मैं उस इन्द्र का स्तवन करता हूँ जो (स्तुषेय्यम्) = [स्तोतव्यम्] स्तुति के योग्य हैं, (ऋभ्वम्) = [उरु भासमाने] खूब दीप्त हैं, (पुरुवर्पसप्) = नानारूपोंवाले हैं 'रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव' । (इनतमम्) = जो सर्वमहान् इश्वर हैं, (आप्त्यानां आप्त्यम्) = आप्त्यों में आप्त्य हैं, विश्वसनीयों में विश्वसनीय हैं। [२] स्तुति किये गये ये प्रभु (शवसा) = शक्ति के द्वारा (सप्त दानून्) = सप्त ऋषियों के विपरीत सप्त दानवृत्तियों को (आदर्षते) = विदीर्ण करते हैं । और (प्रतिमानानि) = इनके प्रत्येक निवास स्थान को (भूरि प्रसाक्षते) = खूब ही विनष्ट करते हैं । [प्रतिमानानि = असुराणां स्थानानि] । [३] 'सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीर' शरीर में सात ऋषियों की स्थापना हुई है। ये सात उत्तम भावनाएँ विकृत होती हैं, तो ये सात दानव बन जाते हैं। प्रभु इन दानवों के किलों का विनाश करते हैं हमारा जीवन प्रभु कृपा से विषयास्वाद् [लक् आस्वादने] से ऊपर उठकर फिर से अजेय हो जाता है, हमें वासनाएँ पराजित नहीं कर पाती ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु स्मरण से हमारा जीवन दानव-गृह नहीं, अपितु ऋषियों का आश्रय बनता है ।
विषय
आप्तों से श्रेष्ठ आप्त आत्मा की प्राप्ति, उसके सामर्थ्य का वर्णन।
भावार्थ
(स्तुषेय्यं) स्तुति करने योग्य (पुरु-वर्षसम्) नाना रूप वाले, नाना गुण वाले, (ऋभ्वं) खूब प्रकाशमान, (इन-तमम्) सबसे श्रेष्ठ स्वामी और (आप्त्यानाम् आप्त्यम्) आप्त पुरुषों में से सबसे श्रेष्ठ आप्त को मैं प्राप्त होऊं। वह (शवसा) अपने बल और ज्ञान से (सप्त दानून्) सातों ज्ञानदाता सुखप्रद इन्द्रिय रूप देवों को उनके छिद्रों को (दर्षते) विदारण करता, शरीर में उनके छिद्रों को रचता है (भूरि प्रति-मानानि) जिन से बहुत से ज्ञानों को (प्र साक्षते) प्राप्त करते हैं।
टिप्पणी
साक्षतिराप्नोतिकर्मेति यास्कः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्बृहद्दिव आथर्वणः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः– १ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ७, ८ विराट् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(आप्त्यानाम् आप्त्यम्) प्राप्तव्यानामपि प्राप्तव्यं (स्तुषेय्यम्) स्तोतव्यम् “स्तु धातोः” स्तुवः वसेय्यश्छान्दसः [उणा० ३।९६] (पुरुवर्पसम्) बहुगुणरूपम् (ऋभ्वम्) उरुभूतं महान्तम् (इनतमम्) ईश्वरतमं सर्वेश्वरं परमात्मानं (शवसा) बलेन (सप्त दानून्) सर्पणशीलान् दातॄन् भोगप्रदान्-इन्द्रियप्राणान् (आ दर्षते) आदृणाति छिनत्ति बहिर्मुखानि करोति, तथा (भूरि प्रतिमानानि प्र साक्षते) प्रतिविषयप्रमाणानि समन्तात् प्रापयति “साक्षतिराप्नोतिकर्मा” [निरु० ११।२३।६] ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
We love and celebrate Indra in song, lord adorable infinite in form, all pervasive, most glorious and wisest of the self-realised wise. With his might he breaks seven types of clouds and seven orders of sin and evil, and he challenges and subdues the many adversaries that arise in the world of nature and humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
सत्संगासाठी प्राप्तव्य विद्वानांचाही जो प्राप्तव्य, गुरूंचा गुरू, स्तुतीयोग्य अनंत गुणरूप सर्वेश्वर परमात्मा इंद्रियांना बहिर्मुख करतो, अनेक विषयांना प्राप्त करवितो, तो उपासनीय आहे. ॥६॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal