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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 132 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 132/ मन्त्र 6
    ऋषिः - शकपूतो नार्मेधः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यु॒वोर्हि मा॒तादि॑तिर्विचेतसा॒ द्यौर्न भूमि॒: पय॑सा पुपू॒तनि॑ । अव॑ प्रि॒या दि॑दिष्टन॒ सूरो॑ निनिक्त र॒श्मिभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वोः । हि । मा॒ता । अदि॑तिः । वि॒ऽचे॒त॒सा॒ । द्यौः । न । भूमिः॑ । पय॑सा । पु॒पू॒तनि॑ । अव॑ । प्रि॒या । दि॒दि॒ष्ट॒न॒ । सूरः॑ । नि॒नि॒क्त॒ । र॒श्मिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवोर्हि मातादितिर्विचेतसा द्यौर्न भूमि: पयसा पुपूतनि । अव प्रिया दिदिष्टन सूरो निनिक्त रश्मिभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवोः । हि । माता । अदितिः । विऽचेतसा । द्यौः । न । भूमिः । पयसा । पुपूतनि । अव । प्रिया । दिदिष्टन । सूरः । निनिक्त । रश्मिऽभिः ॥ १०.१३२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 132; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विचेतसा) हे विशिष्ट चेतानेवाले ज्ञानप्रदान से अध्यापक उपदेशक या प्राण अपान जीवनरसप्रदान से (युवोः-हि) तुम्हारे ही (माता-अदितिः) निर्माण करनेवाली ज्ञानशक्ति, वेदविद्याश्रुति या हृदयस्थ प्राणशक्ति अखण्डनीय है (द्यौः-न भूमिः) द्युलोक या पृथिवीलोक के समान जल से और अन्नरस से शोधन करनेवाली होती है (सूरः) सूर्य (रश्मिभिः) किरणों द्वारा (निनिक्त) जगत् के दोष को शोधन करता है, (प्रिया-अव दिदिष्टन) प्रिय सुखों को देता है ॥६॥

    भावार्थ

    ज्ञान द्वारा विशेषरूप से चेतानेवाले अध्यापक और उपदेशक होते हैं, उन्हें वेदविद्या या श्रुति योग्य बनाती है, वे द्युलोक और पृथिवीलोक की भाँति ज्ञान और आनन्दरस का सञ्चार करते हैं और मनुष्य के दोषों को शोधते हैं, सूर्य जैसे अपनी रश्मियों से जगत् को शोधता है एवं विशेष चेतानेवाले प्राण और अपान जीवनरस प्रदान करते हैं, हृदयस्थ प्राणशक्ति उनका निर्माण करती है, वह दोनों द्युलोक और पृथिवीलोक की भाँति जीवन और रसप्रदान करते हैं और शरीर का शोधन करते हैं ॥६॥

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    विषय

    निर्माणात्मक कार्य का महत्त्व

    पदार्थ

    [१] हे (विचेतसा) = विशिष्ट ज्ञान के कारणभूत मित्र व वरुण-नीरोगता [प्रमीतेः त्रायते] व निष्पापता ! [पापात् निवारयति] (युवोः) = तुम दोनों की (हि) = ही (माता) = निर्माण करनेवाली (अदिति:) = अदिति है । अदिति, मित्र और वरुण को जन्म देती है । सब देवों की माता अदिति है। इसी से देव 'आदित्य' कहलाते हैं। 'अदिति' अदीना देवमाता है। (अदिति) = अखण्डन, तोड़-फोड़ की वृत्ति का न होना, निर्माण की भावना । इस निर्माण की भावना से ही हम 'मित्र और वरुण' बन पाते हैं। उस समय (द्यौः) = नद्युलोक की तरह (भूमिः) = यह पृथिवी भी (पयसा) = अपनी आप्यायन शक्ति से पुपूतनि= पवित्रीकरण का हेतु बनती है । द्युलोकस्थ सूर्य अपने प्रकाश से मार्गदर्शन करता हुआ हमें पाप से बचाता है तथा पृथिवी अपनी ओषधियों से रोगों का दहन करती हुई हमें नीरोग बनाती है । [२] हे मित्र और वरुण ! आप (प्रिया) = प्रिय धनों को (अवदिदिष्टन) = हमारे लिए देनेवाले होवो । (सूर:) = सूर्य (रश्मिभिः) = अपनी किरणों से (निनिक्त) = हमारे जीवनों का शोधन व पोषण करनेवाला हो । प्रकाश के द्वारा यदि वह हमारे शरीर का शोधन करे तो प्राणशक्ति के संचार से वह हमारा पोषण करनेवाला हो। एवं मित्र और वरुण की आराधना हमारे जीवन को बड़ा तृप्त व कान्त [ प्रिय] बनानेवाली हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - निर्माण की वृत्ति नीरोगता व निष्पापता को जन्म देती है। इससे हमारे जीवन प्रिय बनते हैं। जीवन के शोधन व पोषण के लिए आवश्यक है कि निर्माणात्मक कार्यों में लगे रहें ।

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    विषय

    माता वा आचार्य के कर्तव्य और उनके प्रति पुत्रों वा शिष्यों का कर्त्तव्य उनका प्रियाचरण।

    भावार्थ

    हे (वि-चेतसा) विशेष ज्ञान वाले स्त्री पुरुषो ! (युवोः हि माता) क्योंकि तुम दोनों की माता, जननी के तुल्य, तुम दोनों को बनाने वाला ज्ञानवान् पुरुष (अदितिः) अखण्ड व्रत का पालक, एवं भूमि है। (द्यौः न भूमिः) आकाश के समान यह भूमि भी (पयसा) जलवत् पुष्टिकारक अन्न से (पुपूतनि) पवित्र एवं पुष्टि करने वाली है। आप लोग (प्रिया) नाना प्रीति एवं तृप्तिकारक पदार्थ (अव दिदिष्टन) प्रदान करो और (सूरः) सूर्य अपनी (रश्मिभिः) किरणों से जैसे तेजस्वी पुरुष अपने तेजस्वी सहायकों से (निनिक्त) प्रजागण को शुद्ध करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शकपूतो नार्मेधः॥ देवता—१ लिङ्गोक्ताः। २—७ मित्रावरुणौ। छन्दः- १ बृहती। २, ४ पादनिचृत् पंक्तिः। ३ पंक्तिः। ५,६ विराट् पंक्तिः ७ महासतो बृहती ॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विचेतसा युवोः-हि माता-अदितिः) हे विशिष्टं चेतयितारौ ज्ञानप्रदानेनाध्यापकोपदेशकौ प्राणापानौ वा जीवनरसप्रदानेन युवयोर्माता ज्ञानशक्तिर्वेदविद्याश्रुतिः यद्वा हृदयस्य प्राणशक्तिः-अखण्डनीयाऽस्ति (द्यौः-न भूमिः पयसा पुपूतनि) द्यौः-पृथिवीव पयसा जलेनान्नरसेन शोधयित्री भवति “पूतशब्दादाचारे क्विबन्तादौणादिकः-कनिप्रत्ययः”, (सूरः-रश्मिभिः-निनिक्त) यथा सूर्यरश्मिर्जगद्दोषं शोधयति (प्रिया-अव दिदिष्टन) प्रियाणि सुखानि दत्तः, बहुवचनमादरार्थम् ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Mitra and Varuna, givers of light and intelligence, known with special effort of the mind, your mother power is eternal Nature, the giver of knowledge about you is eternal Veda which washes the cover of ignorance as heaven and earth wash away the evils of darkness and want. The sun illuminates with rays of light, the earth gives cherished wealth of food.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अध्यापक व उपदेशक ज्ञानाद्वारे विशेषरूपाने जागृत करणारे असतात. त्यांना वेदविद्या किंवा श्रुती योग्य बनविते. ते द्युलोक पृथ्वीलोकाप्रमाणे ज्ञान व आनंदरसाचा संचार करतात व माणसाचे दोष काढून टाकतात. सूर्य जसा आपल्या रश्मींनी जगाला स्वच्छ करतो व विशेष जागृत प्राण व अपान जीवनरस प्रदान करतात. हृदयातील प्राणशक्ती त्यांची निर्मिती करते. ते दोन्ही द्युलोक व पृथ्वीलोकाप्रमाणे जीवन व रस प्रदान करतात आणि शरीर शुद्ध करतात. ॥६॥

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