ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 142/ मन्त्र 2
प्र॒वत्ते॑ अग्ने॒ जनि॑मा पितूय॒तः सा॒चीव॒ विश्वा॒ भुव॑ना॒ न्यृ॑ञ्जसे । प्र सप्त॑य॒: प्र स॑निषन्त नो॒ धिय॑: पु॒रश्च॑रन्ति पशु॒पा इ॑व॒ त्मना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽवत् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । जनि॑म । पि॒तु॒ऽय॒तः । सा॒चीऽइ॑व । विश्वा॑ । भुव॑ना । नि । ऋ॒ञ्ज॒से॒ । प्र । सप्त॑यः । प्र । स॒नि॒ष॒न्त॒ । नः॒ । धियः॑ । पु॒रः । च॒र॒न्ति॒ । प॒शु॒ऽपाःऽइ॑व । त्मना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रवत्ते अग्ने जनिमा पितूयतः साचीव विश्वा भुवना न्यृञ्जसे । प्र सप्तय: प्र सनिषन्त नो धिय: पुरश्चरन्ति पशुपा इव त्मना ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽवत् । ते । अग्ने । जनिम । पितुऽयतः । साचीऽइव । विश्वा । भुवना । नि । ऋञ्जसे । प्र । सप्तयः । प्र । सनिषन्त । नः । धियः । पुरः । चरन्ति । पशुऽपाःऽइव । त्मना ॥ १०.१४२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 142; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (पितूयतः) जीवात्मा के अन्न को चाहते हुए का (ते जनिम-प्रवत्) तेरा साक्षात्कार बहुत श्रेष्ठ है (साची-इव) सङ्गी साथी के समान (विश्वा भुवनानि) सब भूतों को (नि-ऋञ्जसे) योग्य सम्पादित करता है (नः-धियः) हमारी स्तुतियाँ वाणियाँ (सप्तयः) परिचरण करती हुई या तुझे स्पर्श करती हुई (प्र प्र सनिषन्त) प्रकृष्ट रूप में सेवन करती हैं (त्मना पुरः-चरन्ति) आत्मभाव से प्रेरित हुए तेरे सम्मुख विचरते हैं (पशुपाः-इव) जैसे पशु के सम्मुख पशुपालक विचरते हैं ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा का साक्षात्कार साथी के समान है योग्य बनाने के लिए, मनुष्यों की स्तुतियाँ उसे घेर लेती हैं, आत्मभाव से प्रेरित की हुई उसके सम्मुख वर्तमान रहती हैं, पशुपालकों की भाँति जैसे पशुपालक पशुओं के सामने रहते हैं ॥२॥
विषय
उपासक का उत्कृष्ट विकास
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (ते) = तेरे (पितूयतः) = अन्न की कामनावाले इस उपासक का (जनिमा) = विकास (प्रवत्) = उत्कृष्ट होता है। संसार में जो व्यक्ति प्रभु का उपासक बनता है और अन्न का ही सेवन करता है उसका विकास उत्तम होता है । [२] हे परमात्मन्! आप (साची इव) = सर्वत्र समवेत हुए हुए (विश्वा भुवना) = सब लोकों को (नि ऋञ्जसे) = निश्चय से प्रसाधित करते हैं । पृथिवी आदि सब लोकों में आप समवेत हैं और सब का नियमन कर रहे हैं । [३] (सप्तयः) = हमारे ये इन्द्रियाश्व (प्र सनिषन्त) = आपका सम्भजन करते हैं, तथा (नः धियः) = हमारी ये बुद्धियाँ भी (प्रसनिषन्त) = आपका ही उपासन करती हैं। आँख यदि तारों में प्रभु की व्यवस्था को देखती हैं, नासिका यदि फूलों की गन्ध में प्रभु की महिमा का अनुभव करती है, जिह्वा यदि फलों के रस को आस्वादित करती हुई प्रभु का स्मरण करती है, तो यह सब इन्द्रियों द्वारा प्रभु का सम्भजन हो जाता है। इस प्रकार इन्द्रियों व बुद्धियों से प्रभु का सम्भजन करनेवाले लोग (पशुपाः इव) = ग्वालों के समान, जैसे ग्वाले गौओं को चराते हुए उनके साथ-साथ आगे बढ़ते हैं, उसी प्रकार ये प्रभु के उपासक भी (त्मना) = स्वयं (पुरः चरन्ति) = आगे और आगे चलते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - उपासक के जीवन का उत्कृष्ट विकास होता है। यह इन्द्रियों का रक्षण करता हुआ इन्द्रियों के साथ आगे और आगे बढ़ता है ।
विषय
वशी आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
हे (अग्ने) स्वप्रकाश आत्मन् ! (पितू-यतः) अन्न या समय के समान अंकुरित होने वाले (ते) तेरा (जनिमा) प्रादुर्भाव या जन्म (प्रवत्) उत्तम रीति से वा आगे की ओर बढ़ने वाला होता है। तू (साची इव) व्यापक, सहयोगी के समान ही (विश्वा भुवनानि) समस्त उन देहों वा प्राणों को (निऋञ्जसे) सर्वथा वश करता है। (सप्तयः) आगे २ बढ़ने वाले ये इन्द्रियगण, (नः) हमें (घिया) नाना प्रकार के ज्ञान (प्रप्र सनिषन्त) बराबर देते रहते हैं, और (त्मना) अपने आत्म-सामर्थ्य से ही (पशुपाः इव) पशु-पालक के समान (पुरः) आगे २ विचरते हैं। अथवा—(नः घियः सप्तयः) हमारी बुद्धियां या ज्ञानेन्द्रियां अश्वों के तुल्य पशुपालवत् आगे २ (चरन्ति) विषयों का भोग करती हैं।
टिप्पणी
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्। अत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः॥ गीता॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शार्ङ्गाः। १, २ जरिता। ३, ४ द्रोणः। ५, ६ सारिसृक्वः। ७,८ स्तम्बमित्रः अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, २ निचृज्जगती। ३, ४, ६ त्रिष्टुप्। ५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ७ निचृदनुष्टुप्। ८ अनुष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (पितूयतः) जीवात्मनोऽन्नमिच्छतः “छन्दसि परेच्छायां च” वार्तिकेन परेच्छायां क्यच् (ते जनिम प्रवत्) तव प्रादुर्भावः साक्षात्कारः प्रकृष्टः श्रेष्ठोऽस्ति (साची-इव विश्वा भुवना-नि-ऋञ्जसे) सचते समवैति साची “षच समवाये” [भ्वादि०] ततो णिनिश्छान्दसः सङ्गीव सर्वाणि भूतानि “भुवनानां भूतानाम्” [निरु० ७।२२] सर्वे प्राणिनो नितरां प्रसाधयसे योग्यान् सम्पादयसि “ऋञ्जति प्रसाधनकर्मा” [निरु० ६।२१] (नः-धियः) अस्माकं स्तुतिवाचः “वाग्वै धीः” [ऐ० १।१।४] (सप्तयः) त्वां परिचरन्त्यः “सपति परिचरणकर्मा” [निघ० ३।५] स्पृशन्त्योषा “सपतेः स्पृशतिकर्मणः” [निरु० ५।१६] (प्र प्र सनिषन्त) प्रकर्षेण सम्भजन्ते (त्मना पुरः चरन्ति पशुपाः-इव) आत्मना प्रेरितास्तव सम्मुखं चरन्ति पशुपाला इव, यथा पशुपालाः पशूनां सम्मुखं चरन्ति ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, your presence radiates, desiring to take things into your fold like a companion power reaching all regions of the world. And our thoughts and songs of homage too, spontaneously flying vibrations of heart and soul, reach on to you like eager servants of the divine master.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याचा साक्षात्कार मित्राप्रमाणे आहे. योग्यता निर्माण होण्यासाठी माणसांची स्तुती त्याला घेरते किंवा अत्यंत स्पर्श करते. जसे पशुपालक पशूंच्या बरोबरच फिरत असतात. तसे आत्मभावाला ती प्रेरित करत असते. ॥२॥
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