ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 142/ मन्त्र 8
आय॑ने ते प॒राय॑णे॒ दूर्वा॑ रोहन्तु पु॒ष्पिणी॑: । ह्र॒दाश्च॑ पु॒ण्डरी॑काणि समु॒द्रस्य॑ गृ॒हा इ॒मे ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽअय॑ने । ते॒ । प॒रा॒ऽअय॑ने । दूर्वाः॑ । रो॒ह॒न्तु॒ । पु॒ष्पिणीः॑ । ह्र॒दाः । च॒ । पु॒ण्डरी॑काणि । स॒मु॒द्रस्य॑ । गृ॒हाः । इ॒मे ॥
स्वर रहित मन्त्र
आयने ते परायणे दूर्वा रोहन्तु पुष्पिणी: । ह्रदाश्च पुण्डरीकाणि समुद्रस्य गृहा इमे ॥
स्वर रहित पद पाठआऽअयने । ते । पराऽअयने । दूर्वाः । रोहन्तु । पुष्पिणीः । ह्रदाः । च । पुण्डरीकाणि । समुद्रस्य । गृहाः । इमे ॥ १०.१४२.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 142; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 8
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ते) हे उपासक वैराग्यवन् ! तेरा जब तक शरीर है, तब तक (आयने) इन्द्रियकामनाओं के आगमन में (परायणे) मन के सङ्कल्प में (दूर्वाः पुष्पिणी) दूब और फूलोंवाली बेलें लताओं जैसी भावनाएँ (रोहन्तु) उद्भव हों (समुद्रस्य) पुरुष अर्थात्-आत्मा के (इमे गृहाः) ये गृहरूप इन्द्रिय और मन (ह्रदाः पुण्डरीकाणि च) जलस्रोत और कमल जैसे शोभन सुखप्रद हों ॥८॥
भावार्थ
वैराग्यवान् उपासक का जब तक शरीर है, अन्य शरीरों की भाँति विषयवासनाओं का घर ना बना रहे, किन्तु हरी-हरी दूबों और फूलोंवाली लताओं के समान भावनाएँ तथा इन्द्रिय और मन स्रोतों और कमल के समान आत्मा को हर्षित करनेवाले स्थान बनें ॥८॥
विषय
'सौन्दर्य शान्ति व लक्ष्मी' के साथ 'प्रभु'
पदार्थ
[१] (ते) = तेरे (आयने) = अन्दर आने के मार्ग पर तथा (परायणे) = बाहर जाने के मार्ग पर (पुष्पिणीः) = फूलोंवाली, खूब खिली हुई (दूर्वा:) = दूब (रोहन्तु) = उगें । अर्थात् तेरे हर्म्य में सौन्दर्य की कमी न हो। यहाँ दूर्वावाले भूमिभाग घर के सौन्दर्य का चित्रण करते हैं । (च) = और वहाँ (ह्रदाः) = जलाशय हों। ये जलाशय शान्ति के प्रतीक हैं । (पुण्डरीकाणि) = इस घर में कमल हों। ये कमल लक्ष्मी के प्रतीक हैं । [२] इस प्रकार सौन्दर्य शान्ति व लक्ष्मी के निवास स्थान होते हुए इमे ये (गृहाः) = घर (समुद्रस्य) = [स+मुद्] उस आनन्दमय प्रभु के बने रहें । इन घरों में लक्ष्मी हो, पर उस लक्ष्मी में हम आसक्त न हो जाएँ । लक्ष्मी में स्थित हों, लक्ष्मी के दास न बन जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारे घर 'सौन्दर्य, शान्ति व लक्ष्मी' के निवास हों, परन्तु इनमें हम प्रभु के उपासक बने रहें । लक्ष्मी में फँस न जाएँ । सम्पूर्ण सूक्त की मूल भावना यही है कि इस वासनामय जगत् में, लक्ष्मी में रहते हुए भी हम लक्ष्मी में न फँस जाएँ । यह लक्ष्मी में न फँसनेवाला व्यक्ति 'अत्रि' बनता है 'काम-क्रोध- लोभ' तीनों से ऊपर । विचारशील होने से यह 'सांख्य' है । यह प्राणापान की साधना करता हुआ कहता है कि-
विषय
आत्मा का इस वा अन्य लोकों में आने जाने का वर्णन। लोकों में रहने विहरने योग्य स्थानों का वर्णन।
भावार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! (ते आ-अयने) आने और रहने के स्थानों में चारों ओर और (परा अयने) उस स्थान के दूर भी (दूर्वाः) उत्तम २ दूबें और (पुष्पिणीः) फूलवाली नाना लताएं तथा पौधे भी (रोहन्तु) उगे हों। और (ह्रदाः च) नाना जलाशय हों और उनमें (पुण्डरीकाणि) नाना कमल हों। (इमे) ये (गृहाः) गृह, एवं गृह के निवासी जन स्त्री पुत्रादि (समुद्रस्य) उमड़ते हर्ष और आनन्द एवं काम्य सुखों के स्थान हों। इति त्रिंशो वर्गः। इति सप्तमोऽध्यायः॥
टिप्पणी
कामो हि समुद्रः। नहि कामस्यान्तोस्ति न समुद्रस्य। कौ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शार्ङ्गाः। १, २ जरिता। ३, ४ द्रोणः। ५, ६ सारिसृक्वः। ७,८ स्तम्बमित्रः अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, २ निचृज्जगती। ३, ४, ६ त्रिष्टुप्। ५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ७ निचृदनुष्टुप्। ८ अनुष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ते) हे उपासक वैराग्यवन् ! तव यावच्छरीरं तावत् (आयने) इन्द्रियकामानामागमने (परायणे) मनसः परागमने-सङ्कल्पे (दूर्वाः-पुष्पिणीः) दूर्वाः पुष्पिणीरिव (रोहन्तु) उद्भवन्तु (समुद्रस्य) पुरुषस्य-आत्मनः “पुरुषो वै समुद्रः” [जै० ३।६] (इमे गृहाः) इमानि गृहाणि-इन्द्रियमनांसि (ह्रदाः पुण्डरीकाणि च) स्रोतांसि कमलानीव च सुखप्रदानि भवन्तु ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, may flowers and holy grass grow on your arrival, may flowers and holy grass shower on your departure. Let all these homes be homes close to the infinite ocean, with reservoirs and flowers around.$(The seventh and eighth verses may be addressed to the human soul as well as to Agni, leading light and creative spirit of the cosmos.)
मराठी (1)
भावार्थ
वैराग्यवान उपासकांचे जोपर्यंत शरीर आहे तोपर्यंत त्यांनी इतर विषयवासनांचे घर बनवू नये; परंतु हिरवे-हिरवे गवत व फुलांनी डवरलेल्या लतांप्रमाणे भावना व इंद्रिये, तसेच मनस्रोत व कमलाप्रमाणे आत्म्याला हर्षित करणारे स्थान बनावे. ॥८॥
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