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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 142/ मन्त्र 4
    ऋषि: - शार्ङ्गाः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यदु॒द्वतो॑ नि॒वतो॒ यासि॒ बप्स॒त्पृथ॑गेषि प्रग॒र्धिनी॑व॒ सेना॑ । य॒दा ते॒ वातो॑ अनु॒वाति॑ शो॒चिर्वप्ते॑व॒ श्मश्रु॑ वपसि॒ प्र भूम॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । उ॒त्ऽवतः॑ । नि॒ऽवतः॑ । या॒सि॒ । बप्स॑त् । पृथ॑क् । ए॒षि॒ । प्र॒ग॒र्धिनी॑ऽइव । सेना॑ । य॒दा । ते॒ । वातः॑ । अ॒नु॒ऽवाति॑ । शो॒चिः । वप्ता॑ऽइव । श्मश्रु॑ । व॒प॒सि॒ । प्र । भूम॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदुद्वतो निवतो यासि बप्सत्पृथगेषि प्रगर्धिनीव सेना । यदा ते वातो अनुवाति शोचिर्वप्तेव श्मश्रु वपसि प्र भूम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । उत्ऽवतः । निऽवतः । यासि । बप्सत् । पृथक् । एषि । प्रगर्धिनीऽइव । सेना । यदा । ते । वातः । अनुऽवाति । शोचिः । वप्ताऽइव । श्मश्रु । वपसि । प्र । भूम ॥ १०.१४२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 142; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (उद्वतः-निवतः) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! तू ऊँचों-नीचों को (बप्सत्) प्रकाशित करता हुआ प्रकट करता हुआ (यासि) सर्वत्र व्याप्त है (प्रगर्धिनी सेना-इव) युद्ध की आकाङ्क्षा रखती सेना की भाँति (पृथक्-एषि) पृथक्-पृथक् स्वाधीन करता हुआ जाता है (यदा ते वातः) जब तेरा उपासक आत्मा (ते शोचिः-अनुवाति) तेरी ज्ञानदीप्ति का अनुसरण करता है-अनुभव करता है (वप्ता-इव-श्मश्रु) नाई जैसे दाढ़ी, मूछ, केशों का छेदन करता है-काटता है, उसी भाँति तू उपासक आत्मा के (भूम प्र-वपसि) बहुत अज्ञानों को काटता है ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा अपने प्रकाश से ऊँचों-नीचों को प्रकाशित करता हुआ संसार में व्याप्त है, युद्ध की आकाङ्क्षा करती हुई सेना की भाँति व्याप्त हुआ पृथक्-पृथक् सबको स्वाधीन करता है, तो उसके अज्ञानों को नाई के समान छिन्न-भिन्न कर देता है ॥४॥

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उद्वतः-निवतः-बप्सत्) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! त्वम् उच्चान् नीचान् प्रकाशयन्-प्रकटयन् च सर्वत्र (यासि) गच्छसि व्याप्नोषि (प्रगर्धिनी-सेना-इव) प्रकाङ्क्षिणी सेनेव (पृथक्-एषि) पृथक् पृथक् स्वाधीनं कुर्वन् गच्छसि (यदा ते वातः) यदा खलु तवोपासको गन्ताऽऽत्मा “वातः प्राणस्तद्वानात्मा” [काठ० ९।१३] (ते शोचिः अनुवाति) तव दीप्तिमनुवाति ज्ञानदीप्तिमनुसरति अनुभवति (वप्ता-इव श्मश्रु) यथा श्मश्रु केशान् छिनत्ति तद्वत् उपासकस्यात्मनः (भूम प्र-वपसि) बहूनि खल्वज्ञानानि प्रकर्तयसि नाशयसि ॥४॥

    English (1)

    Meaning

    When you rise and spread, devouring both high and low like a fierce army thirsting for victory, and specially when the wind blows favourable to your blaze, then like a barber shaving off beard and moustache you lay waste vast areas of land.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आपल्या प्रकाशाने उच्च-नीचाला प्रकाशित करत संसारात व्याप्त आहे. युद्धाची आकांक्षा करणाऱ्या सेनेप्रमाणे व्याप्त असलेला तो सर्वांना पृथक-पृथक स्वाधीन करतो. उपासक आत्मा जेव्हा त्याच्या ज्ञानदीप्तीचा अनुभव घेतो तेव्हा त्यांच्या अज्ञानाला न्हाव्याप्रमाणे छाटून टाकतो. ॥४॥

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