ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 159/ मन्त्र 4
ऋषिः - शची पौलोमी
देवता - शची पौलोमी
छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
येनेन्द्रो॑ ह॒विषा॑ कृ॒त्व्यभ॑वद्द्यु॒म्न्यु॑त्त॒मः । इ॒दं तद॑क्रि देवा असप॒त्ना किला॑भुवम् ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । इन्द्रः॑ । ह॒विषा॑ । कृ॒त्वी । अभ॑वत् । द्यु॒म्नी । उ॒त्ऽत॒मः । इ॒दन्म् । तत् । अ॒क्रि॒ । दे॒वाः॒ । अ॒स॒प॒त्ना । किल॑ । अ॒भु॒व॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
येनेन्द्रो हविषा कृत्व्यभवद्द्युम्न्युत्तमः । इदं तदक्रि देवा असपत्ना किलाभुवम् ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । इन्द्रः । हविषा । कृत्वी । अभवत् । द्युम्नी । उत्ऽतमः । इदन्म् । तत् । अक्रि । देवाः । असपत्ना । किल । अभुवम् ॥ १०.१५९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 159; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवाः) हे विद्वानों ! (येन हविषा) जिस दानादि कर्म से (इन्द्रः) मेरा पति (उत्तमः) उत्तम (कृत्वी) कर्मकर्त्ता (द्युम्नी) यशस्वी (अभवत्) होता है (असपत्ना किल) शत्रुरहित ही (अभुवम्) होऊँ-हो जाऊँ (इदं तत्-अक्रि) यह मेरे द्वारा किया जाता है ॥४॥
भावार्थ
परिवार में पति के श्रेष्ठ कर्मों और यशस्वी गुणों का अनुसरण पत्नी के द्वारा भी होना चाहिए ॥४॥
विषय
कृत्वी - द्युम्नी - उत्तमः
पदार्थ
[१] हे (देवाः) = सूर्य आदि देवो! अथवा समय-समय पर घरों पर पधारनेवाले विद्वानो ! (इदम्) = यह (तत्) = वह काम (अक्रि) = किया जाये (येन) = जिससे मेरे पति (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय (अभवत्) = हों । (हविषा) = दानपूर्वक अदन के द्वारा वे कृत्वी सदा उत्तम कर्मों को करनेवाले, (द्युम्नी) = ज्ञान की ज्योति से दीप्त जीवनवाले, (उत्तमः) = मन में दिव्य उत्कृष्ट वृत्तियोंवाले हों। [२] बालकों की माता कहती है कि मैं भी (किल) = निश्चय से (असपत्ना) = सपत्नों से रहित अभुवम् हो जाऊँ । शरीर में रोग ही हमारे सपत्न हैं, और मन में वासनाएँ सपना के रूप से रहती हैं। मैं इन रोगों व वासनाओं से ऊपर उठकर 'असपना' होऊँ ।
भावार्थ
भावार्थ- देवों की कृपा से पति कृत्वी, द्युम्नी व उत्तम' हों तथा पत्नी असपत्न हो ।
विषय
पति के प्रति उत्तम भाव।
भावार्थ
(येन) जिस (हविषा) अन्न आदि साधन सामग्री से, (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् मेरा स्वामी, (कृत्वी द्युम्नी उत्तमः अभवत्) कर्म करने में समर्थ, यशस्वी, और उत्तम हो। हे (देवाः) विद्वान् जनो ! (इदं तत् अक्रि) वही साधन किया जाय। और मैं (असपत्ना किल अभुवम्) शत्रु वा सपत्नी से रहित होऊं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शची पौलोमी॥ देवता—शची पौलोमी॥ छन्दः–१–३, ५ निचृदनुष्टुप्। ४ पादनिचृदनुष्टुप्। ६ अनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवाः) हे विद्वांसः (येन हविषा-इन्द्रः-उत्तमः कृत्वी द्युम्नी-अभवत्) येन दानादिकर्मणा इन्द्रो मे पतिरुत्तमकर्मकर्त्ता यशस्वी भवति (असपत्ना किल, अभुवम्) अहं शत्रुरहिता खलु भवेयम् (इदं तत्-अक्रि) तन्मयाऽपि क्रियते ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The means and holy materials by which Indra, master and ruler, rises to honour and glory in action, I create and follow, and thereby I become free from rivals and adversaries.
मराठी (1)
भावार्थ
कुटुंबात पतीच्या श्रेष्ठ कर्मांचे व यशस्वी गुणांचे अनुसरण पत्नीद्वारा झाले पाहिजे. ॥४॥
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