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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 159 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 159/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शची पौलोमी देवता - शची पौलोमी छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒स॒प॒त्ना स॑पत्न॒घ्नी जय॑न्त्यभि॒भूव॑री । आवृ॑क्षम॒न्यासां॒ वर्चो॒ राधो॒ अस्थे॑यसामिव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स॒प॒त्ना । स॒प॒त्न॒ऽघ्नी । जय॑न्ती । अ॒भि॒ऽभूव॑री । आ । अ॒वृ॒क्ष॒म् । अ॒न्यासा॑म् । वर्चः॑ । राधः॑ । अस्थे॑यसाम्ऽइव ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असपत्ना सपत्नघ्नी जयन्त्यभिभूवरी । आवृक्षमन्यासां वर्चो राधो अस्थेयसामिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असपत्ना । सपत्नऽघ्नी । जयन्ती । अभिऽभूवरी । आ । अवृक्षम् । अन्यासाम् । वर्चः । राधः । अस्थेयसाम्ऽइव ॥ १०.१५९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 159; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सपत्नघ्नी) मैं शत्रुनाशक होती हुई (असपत्ना) शत्रुरहिता हूँ (जयन्ती) जय प्राप्त करती हुई (अभिभूवरी) शत्रु पर अभिभव करनेवाली हूँ (अन्यासाम्-अन्येषाम्-इव) अन्य अस्थिर लताओं के समान विरोधियों के (वर्चः-राधः-अवृक्षम्) तेज धन वैभव को छिन्न-भिन्न करती हूँ ॥५॥

    भावार्थ

    श्रेष्ठ कर्मवती गुणसम्पन्ना कुलवधू कुलदेवी की कोई विरोधी स्त्री नहीं होती, अपितु विरोधी स्त्री के तेज वैभव नष्ट हो जाते हैं, जो उससे विरोध करती है ॥५॥

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    विषय

    सपत्न हनन

    पदार्थ

    [१] (अ - सपत्ना) = मैं रोगरूप सपत्नों से, शत्रुओं से रहित होती हूँ । (सपत्नघ्नी) = इन रोगों व वासनारूप शत्रुओं का हनन करनेवाली बनती हूँ । जयन्ती सदा विजयशील तथा (अभिभूवरी) = वासनारूप शत्रुओं को अभिभूत करनेवाली होती हूँ। [२] इन (अन्यासाम्) = मेरे से भिन्न, मेरी शत्रुभूत वासनाओं के (वर्चः) = तेज को (आवृक्षम्) = मैं काटनेवाली होती हूँ । उसी प्रकार इनके तेज को मैं विनष्ट करती हूँ (इव) = जैसे कि (अस्थेयसाम् राधा) = अस्थिर वृत्तिवालों के ऐश्वर्य को । 'राध:' शब्द का व्यापक अर्थ सफलता है। उस अर्थ को लेने पर भाव यह होगा कि जैसे अस्थिर वृत्तिवालों की सफलता विनष्ट होती है, इसी प्रकार इन वासनाओं की शक्ति को मैं विनष्ट करती हूँ । स्थिर वृत्तिवाली बनकर मैं अपने इस शत्रु संहार रूप कार्य में भी सफलता को प्राप्त करती हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - एक आदर्श माता रोग व वासना रूप शत्रुओं को अभिभूत करके, स्थिर वृत्तिवाली बनकर अपने सन्तान निर्माणरूप कार्य में सफल होती है ।

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    विषय

    वीर सेना और वीराङ्गना की विजयादि की महत्त्वाकांक्षा।

    भावार्थ

    मैं (असपत्ना) शत्रु से रहित, (सपत्न-घ्नी) शत्रुओं का नाश करने वाली, (जयन्ती) जय लाभ करती हुई, (अभि-भूवरी) सब को पराजित करती हुई, (अन्यासां) अन्य शत्रु जनों की (अस्थेयसाम् इव) अस्थिर सी सेनाओं के (वर्चः राधः) तेज और धन को (आ अवृक्षम्) सब ओर से काट गिराऊं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शची पौलोमी॥ देवता—शची पौलोमी॥ छन्दः–१–३, ५ निचृदनुष्टुप्। ४ पादनिचृदनुष्टुप्। ६ अनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सपत्नघ्नी-असपत्ना) अहं शत्रुनाशिनी सती शत्रुरहिताऽस्मि (जयन्ती-अभिभूवरी) अत एव जयं प्राप्नुवती तथा शत्रूनभिभवित्री खल्वस्मि (अन्यासाम्-अस्थेयसामिव वर्चः-राधः-आवृक्षम्) अस्थिराणां लतानामिवान्यासां विरोधिनीनां कासां पतिं पातयितुमिच्छन्तीनां तेजो वैभवं च छिनत्ति-इति शक्ताहम् “व्रश्च छेदने” लुङि ऊदित्त्वादिडभावे सम्प्रसारणं च छान्दसम् ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I have no rivals, I throw off the adversaries, I emerge the victor, greater than the challengers, I turn to naught the power and valour of others who are no better than passing gusts of mild winds.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    श्रेष्ठ कर्मवती गुणसंपन्ना कुलवधू कुलदेवीची कोणतीही विरोधी स्त्री नसते. एवढेच नव्हे तर जी तिच्या विरोधात असते त्या स्त्रीचे तेज वैभव नष्ट होते. ॥५॥

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