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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 32/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    तदित्स॒धस्थ॑म॒भि चारु॑ दीधय॒ गावो॒ यच्छास॑न्वह॒तुं न धे॒नव॑: । मा॒ता यन्मन्तु॑र्यू॒थस्य॑ पू॒र्व्याभि वा॒णस्य॑ स॒प्तधा॑तु॒रिज्जन॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । इत् । स॒धऽस्थ॑म् । अ॒भि । चारु॑ । दी॒ध॒य॒ । गावः॑ । यत् । शास॑न् । व॒ह॒तुम् । न । धे॒नवः॑ । मा॒ता । यत् । मन्तुः॑ । यू॒थस्य॑ । पू॒र्व्या । अ॒भि । वा॒णस्य॑ । स॒प्तऽधा॑तुः । इत् । जनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदित्सधस्थमभि चारु दीधय गावो यच्छासन्वहतुं न धेनव: । माता यन्मन्तुर्यूथस्य पूर्व्याभि वाणस्य सप्तधातुरिज्जन: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । इत् । सधऽस्थम् । अभि । चारु । दीधय । गावः । यत् । शासन् । वहतुम् । न । धेनवः । माता । यत् । मन्तुः । यूथस्य । पूर्व्या । अभि । वाणस्य । सप्तऽधातुः । इत् । जनः ॥ १०.३२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 32; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तत्-इत्-चारु सधस्थम्-अभि दीधय) उसे ही सुन्दर समानस्थान परिवारवासयोग्य घर को आधार बना-सम्पन्न कर (यत्) जहाँ (गावः-धेनवः-वहतुं न शासन्) दूध देनेवाली गौवें सब निर्वाहसाधन के समान बनी रहें (यत्) और जहाँ (मन्तुः-यूथस्य पूर्व्या माता) मान करनेवाले सन्तानवर्ग की श्रेष्ठ गुणों से पूर्ण माता हो (जनः) और उत्पन्न हुआ पुत्र (वाणस्य) इन्द्रिय-संस्थान अर्थात् देह का (सप्तधातुः) रस-रक्तादि सात धातुओं से युक्त पुष्टाङ्ग बनाओ (इत्) ऐसा ही (अभि) होना चाहिये ॥४॥

    भावार्थ

    गृहस्थ के घर में गौवें दूध देनेवाली हों और सन्तानों की माता श्रेष्ठ गुणों से युक्त तथा सर्वाङ्गपूर्ण होवें, ऐसा घर आदर्श है ॥४॥

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    विषय

    'माता' व 'जन' का लक्षण

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! आप (इत्) = निश्चय से (तत्) = उस (सधस्थम्) = आत्मा और परमात्मा के मिलकर बैठने के स्थान 'हृदय' को (चारु) = सुन्दरता से (अभि दीधय) = दीप्त करिये। इस प्रकार हमारे इस हृदय को ज्ञान से दीप्त करिये (यत्) = कि (धेनवः गा)वः = विषयों के द्वारा प्रीणित करनेवाली इन्द्रियरूप गौवें (वहतुम्) = हमारे विवाह सम्बन्धों को (न शासन्) = न शासित करनेवाली हों, अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा विषयों के भोग ही वैवाहिक जीवन में प्रधान स्थान न ले लें। हमारा हृदय दीप्त हो और इस प्रकार दीत हो कि हमारा वैवाहिक जीवन भी पवित्र बना रहे । [२] (माता) = माता वही है जो कि (मन्तुः) = आज्ञा को माननेवाले पुत्र को (यूथस्य पूर्व्या) = बाल समूह में पूर्व स्थान प्राप्त कराने में उत्तम है । अचानक किन्हीं पूर्व संस्कारों के कारण बच्चा कहना ही न माननेवाला हो तो माता के लिये उसे उन्नत करना कठिन हो जाता है, परन्तु सामान्य स्थिति में माता का पूर्ण प्रयत्न यही होना चाहिए कि उसका सन्तान बाल समूह में अग्रणी हो। इसी निर्माण में माता का मातृत्व है । [३] (जन:) = विकासशील मनुष्य वही हैं जो (वाणस्य अभि) = स्तुति शब्दों का लक्ष्य करके (सप्तधातुः) = सात छन्दोंवाली वेदवाणी को धारण करता है [ धार्यन्ते कर्माणि एभिः इति धातव: छन्दांसि ] इन सात छन्दोंवाली वेदवाणी के द्वारा वह प्रभु का गुणगान करता हुआ अपने जीवन के लक्ष्य को ऊँचा बनाता है इसी प्रकार उसके जीवन की शक्तियों का विकास होता है और उसका जन यह नाम अन्यर्थक होता है। 'सप्तधातु' शब्द का अर्थ 'रस, रुधिर, मांस, अस्थि, मेदस्, मज्जा, वीर्य' इन 'सात धातुओंवाला' भी है। विकास के लिये इन सातों धातुओं का ठीक होना आवश्यक है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारे हृदय को ऐसा दीप्त करें कि हमारा गृहस्थ जीवन भी बड़ा पवित्र हो । हम माता बनें तो निर्माण करनेवाली हों। जन हों तो 'सप्तधातु' बनकर जन नाम को अन्वर्थक करें ।

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    विषय

    गौओं वा बैलों और माता पिता वाद्य-यन्त्रादि के दृष्टान्तों से अध्यक्ष में प्रमातृ शक्ति के शासन का वर्णन।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! आत्मन् ! (धेनवः वहतुं न) गौएं जिस प्रकार रथादि उठाने वाले बैल, वा शरीर में बल देने वाले घृत, दुग्ध, अन्नादि (शासन्) प्रदान करती है और (यत् गावः वहतुं शासन्) बैल या घोड़े आवाहन योग्य जीव जिस प्रकार गाड़ी आदि का शासन करते हैं। (तद् इत्) उसी प्रकार हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (चारु सधस्थम्) उत्तम स्थान (अभि दीधय) प्रदान कर। (यत्) जिस प्रकार (पूर्व्या) प्रेम से परिपूर्ण, (मन्तुः) माननीय (माता) माता (पूर्व्यस्य अभि) अपने पुत्रसमूह के प्रति प्रेम से आती है और जिस प्रकार (जनः) (सप्त-धातुः वाणस्य) सात स्वरों को धारण करने वाले वाद्य यन्त्र को सुन उसकी ओर आकृष्ट होता है उसी प्रकार हे प्रभो ! हमें भी तू (चारु-सधस्थम्) उत्तम ऐसा स्थान (अभि दीधय) प्रदान कर (यत्) जिससे (वहतुं न) रथ के तुल्य (धेनवः शासन्) उत्तम रस पान कराने वाले इन्द्रियगण अनुशासन करें । (यत्) जिसे (पूर्व्या माता) सब से पूर्व विद्यमान ज्ञान कराने वाली प्रातृशक्ति (मन्तुः) मनन करने वाली बुद्धि (यूथस्य अभि शासन्) प्राणगण को अपने शासन में रखे। और (जनः) उत्पन्न हुआ प्राणी (इत्) भी (सप्त-धातुः) सात धारक रस, रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा, मेद, शुक्र इन सात धातुओं से बने (वाणस्य) इस देह को (अभि शासत्) अपने वश करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः- १, २ विराड्जगती। ३ निचृज्जगती ४ पादनिचृज्जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। ६ त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, निचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तत्-इत्-चारु सधस्थम्-अभि दीधय) तदेव सुन्दरं समानस्थानं परिवारवासयोग्यं गृहमभिधारयाभिसम्पादय “धीङ् आधारे” [दिवादि०] परस्मैपदाभ्यासदीर्घत्वं शप् च सर्वं छान्दसम्’ (यत्) यत्र (गावः-धेनवः-वहतुं न शासन्) दुग्धदात्र्यो गावो सर्वं निर्वाहसाधनमिव वर्त्तेरन् (यत्) यत्र च (मन्तुः-यूथस्य पूर्व्या माता) मानकर्त्तुः सन्तानसमूहस्य श्रेष्ठगुणैः पूर्णा माता स्यात् (जनः) जन्यमानः पुत्रः (वाणस्य) इन्द्रियसंस्थानस्य देहस्य (सप्तधातुः) रसरक्तादिसप्तधातुभिः पूर्णः पुष्टः सकलाङ्गः (इत्) एव (अभि) अभिष्यात्-अवश्यं भवेत् ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, give us a bright happy home where illuminative voices of divine Vedic wisdom rule and lead the family as horses draw the chariot, where the mother is honoured as the first and intelligent centre of the family and where the inmates are healthy and virile with all the seven vitalities of physical health.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गृहस्थाच्या घरात गायी दूध देणाऱ्या असाव्यात व संतानाच्या माता श्रेष्ठ गुणांनी युक्त व पुत्र सर्वांगपूर्ण व्हावेत. असे घर आदर्श आहे. ॥४॥

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