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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 32/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - निषादः

    प्र वोऽच्छा॑ रिरिचे देव॒युष्प॒दमेको॑ रु॒द्रेभि॑र्याति तु॒र्वणि॑: । ज॒रा वा॒ येष्व॒मृते॑षु दा॒वने॒ परि॑ व॒ ऊमे॑भ्यः सिञ्चता॒ मधु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वः॒ । अच्छ॑ । रि॒रि॒चे॒ । दे॒व॒ऽयुः । प॒दम् । एकः॑ । रु॒द्रेभिः॑ । या॒ति॒ । तु॒र्वणिः॑ । ज॒रा । वा॒ । येषु॑ । अ॒मृते॑षु । दा॒वने॑ । परि॑ । वः॒ । ऊमे॑भ्यः । सि॒ञ्च॒त॒ । मधु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वोऽच्छा रिरिचे देवयुष्पदमेको रुद्रेभिर्याति तुर्वणि: । जरा वा येष्वमृतेषु दावने परि व ऊमेभ्यः सिञ्चता मधु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । वः । अच्छ । रिरिचे । देवऽयुः । पदम् । एकः । रुद्रेभिः । याति । तुर्वणिः । जरा । वा । येषु । अमृतेषु । दावने । परि । वः । ऊमेभ्यः । सिञ्चत । मधु ॥ १०.३२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 32; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एकः-देवयुः) विद्वानों का नेता केवल परमात्मा है (वः) हे विद्वानों ! तुम्हारे लिये (पदम्-अच्छ प्र रिरिचे) प्रापणीय सुफल-मोक्ष को सम्यक् नियत करता है (रुद्रेभिः-तुर्वणिः-याति) और जो दुष्टों को रुलानेवाले बलों के साथ शीघ्रकारी प्राप्त होता है (येषु-अमृतेषु जरा दावने परि) और जिन मुमुक्षुओं में परमात्मा की स्तुति सर्वभाव से देने के लिये वर्तमान रहती है (वः-ऊमेभ्यः-मधु सिञ्चत) तुम लोग उन रक्षकों मुमुक्षुओं के लिये मधुर खाने-पीने योग्य वस्तु समर्पित करो ॥५॥

    भावार्थ

    मुमुक्षु विद्वान् का इष्ट देव नेता परमात्मा ही है। वह उसके लिये मोक्ष पद प्रदान करता है। मुमुक्षुजनों के लिये मधुर खान-पान की वस्तुएँ समर्पित करना पुण्य कार्य है। दुष्टों को रुलानेवाले उसके बल हैं ॥५॥

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    विषय

    दुरित - विरेचन

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (वः) = हे मनुष्यो ! तुम्हारे में से (देवयुः) = देव के साथ अपने को जोड़ने की कामनावाला व्यक्ति, प्रभु प्राप्ति की प्रबल इच्छावाला व्यक्ति, (पदं अच्छा) = 'पद्यते मुनिभिर्यस्मात् तस्मात् पद उदाहृतः' उस गन्तव्य स्थान, परागति प्रभु का लक्ष्य करके (प्ररिरिचे) = [रेचति = [To give up]] बुराइयों को छोड़ता है, दुरितों को अपने से दूर करता है । दुरितों को दूर करके और भद्रों को अपनाकर ही तो हम उस प्रभु के समीप पहुँचनेवाले होते हैं। [२] (एक:) = यह गतिशील [इ गतौ ] अथवा औरों की पड़ताल न करता हुआ अपने आप (रुद्रेभिः) = प्राणों के साथ (याति) = उस प्रभु को प्राप्त करता है । प्राणसाधना के द्वारा चित्तवृत्ति का निरोध करता हुआ यह प्रभु का दर्शन करनेवाला बनता है और (तुर्वणिः) = शत्रुओं का संहार करनेवाला होता है 'तुर्व् हिंसायाम्' अथवा त्वरा से शत्रुओं का जीतनेवाला होता है [त्वर् वन्] [३] (येषु अमृतेषु) = जिन विषय-वासनाओं के पीछे न मरनेवाले व्यक्तियों में (जरा) = प्रभु का स्तवन (दावने) = सब उत्तम वस्तुओं के देनेवाला होता है। मनुष्य विषयों से आक्रान्त न हो और प्रभु का स्मरण करनेवाला बने तो उसे योगक्षेम की किसी प्रकार से चिन्ता नहीं रहती। सब आवश्यक वस्तुएँ तो उसे प्राप्त हो ही जाती हैं। [४] प्रभु कहते हैं कि (वः) = तुम्हारी (ऊमेभ्यः) = रक्षा करनेवाले इन देवों के लिये, इन देवों की प्राप्ति के लिये (मधु) = सोम को, वीर्यशक्ति को (परि सिञ्चता) = शरीर में चारों ओर सिक्त करने का प्रयत्न करो । इस मधु के शरीर में सुरक्षित होने पर ही जीवन के सारे माधुर्य निर्भर हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु प्राप्ति का मार्ग यही है कि हम दुरितों से दूर हों । प्राणसाधना द्वारा कामादि शत्रुओं को वश में करे। प्रभु-स्तवन को अपनाएँ। सोम को शरीर में ही सुरक्षित करें।

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    विषय

    अद्वितीय प्रधान पुरुष का सूर्यवत् दुष्टदमनकारी और ज्ञान-दाता विद्वानों के सत्कार का उपदेश।

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! जो (एकः) एक, अद्वितीय, (तुर्वणिः) अति शीघ्रगामी, दुष्टों और दुःखों का नाशक, होकर (रुद्रेभिः याति) दुष्टों को रुलाने, भगाने, दुःखों को दूर करने वाले जनों सहित प्रयाण करता है, वह (देव-युः) किरणों के स्वामी सूर्य के समान, विजिगीषु जनों का स्वामी होकर (वः अच्छ) तुम्हें प्राप्त होकर (पदं) ज्ञान, एवं प्राप्तव्य पद को (प्र रिरिचे) आप लोगों के बीच प्राप्त करता है। (वा) और (येषु) जिन (अमृतेषु) जीवित, दीर्घजीवी जनों के बीच में (जरा दावने) स्तुति वा उत्तम वाणी भी उत्तम ज्ञान, सुखादि देने के लिये है, उन (ऊमेभ्यः) रक्षाकारी गुरुजनों के लिये आप लोग (मधु परि सिञ्चत) सब प्रकार से अन्न और जल को प्रदान करो। उनका अन्न-जल, मधुपर्कादि से सत्कार करो। इत्येकोनत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः- १, २ विराड्जगती। ३ निचृज्जगती ४ पादनिचृज्जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। ६ त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, निचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एकः-देवयुः) देवानां नेता प्रापयिता वा परमात्मा केवलः (वः) युष्मभ्यम् (पदम्-अच्छ प्र रिरिचे) प्रापणीयं सुफलं मोक्षं सम्यक्-नियतं करोति (रुद्रेभिः-तुर्वणिः-याति) यश्च दुष्टानां रोदयितृभिर्बलैः शीघ्रकारी शीघ्रमायाति (येषु-अमृतेषु जरा दावने परि) अथ च येषु मुमुक्षुषु परमात्मनः स्तुतिर्दानाय परितः सर्वतो वर्त्तते (वः-ऊमेभ्यः मधु सिञ्चत) यूयं तेभ्यो रक्षकेभ्यो मधुरं भोज्यं पेयं च समर्पयत ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O seekers of divinity, there is only one guide and leader for you who creates and provides the ultimate haven for you with the divines. And that is Indra who readily and instantly comes with his powers of justice, reward and punishment. And among the seekers of immortality and freedom, divine worship and adoration alone is the ultimate and unfailing giver. Therefore offer honeyed hospitality and sincere worship for the divinities that provide the means of protection, advancement and immortality.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मुमुक्षू विद्वानांचा इष्ट देव नेता परमात्माच आहे. तो त्यांच्यासाठी मोक्षपद प्रदान करतो. मुमुक्षू जनांसाठी मधुर खान पानाच्या वस्तू समर्पित करणे पुण्यकर्म आहे. परमात्म्याचे बल दुष्टांना रडविणारे आहे. ॥५॥

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