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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 32/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒द्येदु॒ प्राणी॒दम॑मन्नि॒माहापी॑वृतो अधयन्मा॒तुरूध॑: । एमे॑नमाप जरि॒मा युवा॑न॒महे॑ळ॒न्वसु॑: सु॒मना॑ बभूव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒द्य । इत् । ऊँ॒ इति॑ । प्र । आ॒णी॒त् । अम॑मन् । इ॒मा । अहा॑ । अपि॑ऽवृतः । अ॒ध॒य॒त् । मा॒तुः । ऊधः॑ । आ । ई॒म् । ए॒न॒म् । आ॒प॒ । ज॒रि॒मा । युवा॑नम् । अहे॑ळन् । वसुः॑ । सु॒ऽमनाः॑ । ब॒भू॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अद्येदु प्राणीदममन्निमाहापीवृतो अधयन्मातुरूध: । एमेनमाप जरिमा युवानमहेळन्वसु: सुमना बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अद्य । इत् । ऊँ इति । प्र । आणीत् । अममन् । इमा । अहा । अपिऽवृतः । अधयत् । मातुः । ऊधः । आ । ईम् । एनम् । आप । जरिमा । युवानम् । अहेळन् । वसुः । सुऽमनाः । बभूव ॥ १०.३२.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 32; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अद्य-इत्-उ) अभी जो (प्र आनीत्) स्त्री के गर्भ में आया हुआ आत्मा प्राण लेता है (इमा-अहा-अपिवृतः-अमीमन्) इस गर्भवास के दिनों में गर्भ के अन्दर रहता हुआ अपने को मानता है-अनुभव करता है, फिर बाहर आकर (मातुः-ऊधः-अधयत्) अपनी माता के स्तन को पीता है (एनं युवानम्-ईम्-जरिमा-आ-आप) इस युवा होते हुए को फिर जरावस्था प्राप्त होती है, तो भी जब तक जीता है, (अहेळन् वसुः सुमनाः बभूव) उस जरावस्था का अनादर न करता हुआ शरीर में वसा रहता हुआ प्रसन्न मनवाला होता है ॥८॥

    भावार्थ

    आत्मा जैसे ही गर्भ में रहता है, प्राण लेना-श्वास लेना आरम्भ कर देता है। गर्भ में रहता हुआ अपने को अनुभव करता है। गर्भ से बाहर आकर माता के स्तन को पीता है, पुनः युवा बनता है, फिर जरावस्था को प्राप्त हुआ भी उसका अनादर न करता हुआ भी शरीर में प्रसन्न रहता है ॥८॥

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    विषय

    उत्तम जीवन या जीवन मार्ग

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार क्षेत्रविदों से अनुशिष्ट होकर जब मनुष्य ऋजु मार्ग का आक्रमण करने लगा अद्य इत् उ उस ही दिन निश्चय से प्राणीत् इसने प्रकृष्ट जीवन पाया। इससे कुटिल व भोग-प्रधान जीवन कोई जीवन थोड़े ही था ! [२] अब यह इमा अहा- इन दिनों निरन्तर, बिना विच्छेद के अममन्- [ अमन्यत सा० ] मनन करनेवाला हुआ । प्रत्येक कार्य को विचारपूर्वक करनेवाला बना और इस प्रकार अपने 'मनुष्य' [मत्वा कर्माणि सीव्यति], 'विचारपूर्वक करता है' इस नाम को इसने चरितार्थ किया। [३] अपीवृतः - तेज से परिवृत हुए हुए इसने (मातुः) = वेदमाता के (ऊधः) = ज्ञान दुग्ध के स्रोत का (अधयत्) = पान किया। [स्तुता मया वरदा वेदमाता] । 'वेदवाणी को पढ़ना, उसके अन्दर निहित ज्ञान को अपनाना' यह इसका दैनिक कृत्य हो गया। [४] (एनम्) = इस (युवानम्) = दोषों के अभिक्षण व गुणों के मिश्रणवाले युवक को (ईम्) = निश्चय से (जरिमा) = स्तुति (आप) = प्राप्त हुई। यह प्रातः - सायं प्रभु का स्तवन करनेवाला बना । [५] और इस स्तुति का यह परिणाम हुआ कि यह (अहडन्) = घृणा न करनेवाला [हेड् = Hate] सब से प्रेमपूर्वक वर्तनेवाला, (वसुः) = [ वसति, वासयति] स्वयं उत्तम निवासवाला और औरों के उत्तम निवास का कारण बननेवाला, (सुमनाः) = उत्तम मनवाला (बभूव) = हुआ। इस संसार में उत्तम व शान्त मनवाला व्यक्ति वही होता है जो कि 'Live and let live 'जीने और औरों के जीने में सहायक होने के सिद्धान्त को समझ लेता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उत्तम जीवन यही है कि मनुष्य विचारपूर्वक कर्म करे, स्वाध्यायशील हो, स्तुति करनेवाला, घृणा से परे, सबका वासयिता व सुमना हो ।

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    विषय

    जीवरूप अग्नि की गति।

    भावार्थ

    देखो इस जीवरूप अग्नि की गति। वह (अद्य इत् उ प्राणीत्) आज ही प्रथम दिन प्राण लेने लगता है (इमा अममन्) इन नाना संकल्पों को सोचता, नाना पदार्थों को जानने, चीन्हने भी लगता है। (अपि-वृतः) देह में आवृत रहकर वह (मातुः ऊधः अधयत्) माता का स्तन्य पान भी ठीक उसी प्रकार से करता है जैसे तेजों से आवृत अग्नि वा सूर्य माता पृथिवी का जलपान करता है। (ईम् एनम् युवानं) अनन्तर इस युवा को जिस प्रकार बुढ़ापा आता है उसी प्रकार (युवानम्) माता से पृथक होते हुए नव उत्पन्न इस बालक को भी (जरिमा) वाणी (आप) प्राप्त होती है। वह (अहेडन्) अनाहत होकर, वा गुरुओं का अनादर न करता हुआ, (वसुः) गुरु के अधीन वास करता हुआ, ब्रह्मचारी होकर (सुमनाः बभूव) उत्तम ज्ञान से सम्पन्न होजाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः- १, २ विराड्जगती। ३ निचृज्जगती ४ पादनिचृज्जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। ६ त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, निचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अद्य-इत्-ऊ) सम्प्रत्येव हि खलु (प्राणीत्) गृहिण्या गर्भे प्राप्त आत्मा प्राणिति (इमा-अहा-अपिवृतः-अममन्) इमानि गर्भवासभवानि दिनानि गर्भान्तर्हितः सन् स्वात्मानं मन्यते, अथ बहिरागत्य (मातुः-ऊधः-अधयत्) स्वमातुः स्तनं पिबति (एनं युवानम्-ईम्-जरिमा-आ-आप) एतं युवानं सन्तं पुनर्जरावस्था प्राप्नोति तथापि यावज्जीवति (अहेळन् वसुः सुमनाः बभूव) तां जरावस्थामनाद्रियमाणोऽपि “हेडृ अनादरे” [भ्वादि०] शरीरं वसिता वासशीलः प्रसन्नमना भवति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just today Indra, the soul, starts receiving the energy of prana in the womb, then, covered in the womb these days, it has the feel of its existence, then, when born it sucks the mother’s milk, then it grows, thought and language comes to it, adolescence and youth, and finally old age takes it over the youth. O lord, let the resident soul in the body be holy at heart without anger and frustration.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मा जसा गर्भात येतो तसे प्राण घेणे, श्वास घेणे सुरू करतो. गर्भात राहून स्वत:ला अनुभवतो. गर्भाच्या बाहेर येऊन मातेचे स्तन पितो नंतर तरुण बनतो. त्यानंतर जरावस्था प्राप्त करून त्याचा अनादर न करता शरीरात प्रसन्न राहतो. ॥८॥

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