ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 32/ मन्त्र 9
ऋषिः - कवष ऐलूषः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒तानि॑ भ॒द्रा क॑लश क्रियाम॒ कुरु॑श्रवण॒ दद॑तो म॒घानि॑ । दा॒न इद्वो॑ मघवान॒: सो अ॑स्त्व॒यं च॒ सोमो॑ हृ॒दि यं बिभ॑र्मि ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तानि॑ । भ॒द्रा । क॒ल॒श॒ । क्रि॒या॒म॒ । कुरु॑ऽश्रवण । दद॑तः । म॒घानि॑ । दा॒नः । इत् । वः॒ । म॒घ॒ऽवा॒नः॒ । सः । अ॒स्तु॒ । अ॒यम् । च॒ । सोमः॑ । हृ॒दि । यम् । बिभ॑र्मि ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतानि भद्रा कलश क्रियाम कुरुश्रवण ददतो मघानि । दान इद्वो मघवान: सो अस्त्वयं च सोमो हृदि यं बिभर्मि ॥
स्वर रहित पद पाठएतानि । भद्रा । कलश । क्रियाम । कुरुऽश्रवण । ददतः । मघानि । दानः । इत् । वः । मघऽवानः । सः । अस्तु । अयम् । च । सोमः । हृदि । यम् । बिभर्मि ॥ १०.३२.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 32; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कलश कुरुश्रवण) ज्ञानकलाओं से पूर्ण तथा आज्ञाकारी श्रवणयोग्य शिष्योंवाले हे आचार्य ! (ददतः) तुझ ज्ञान देते हुए के प्रतीकारार्थ (एतानि मघानि) ये विविध धन वस्त्रादि हम लोग भेंट देते हैं (मघवानः) हे विविध धनवस्त्र आदि दान देनेवाले शिष्यों ! (वः-सः-दानः-इत्-अस्तु) तुम्हारा वह दातव्य पदार्थ स्वीकार करने योग्य है (अयं सोमः-च) और यह सोम्य ज्ञानप्रवाहशिक्षण विषय भी तुम्हारे अन्दर स्थिर हो (यं हृदि बिभर्मि) जिस ज्ञानविषय को अपने हृदय में मैं धारण कर रहा हूँ ॥९॥
भावार्थ
समस्त ज्ञानकलाओं से पूर्ण और आज्ञाकारी सुननेवाले शिष्य जिसके हों, वह आचार्य कहलाता है। उसके लिये भाँति-भाँति के धन वस्त्र आदि भेंट करने चाहियें। वह आचार्य भी अपने ज्ञान का दान उनके हृदयों में भली-भाँति बिठा दे ॥९॥
विषय
कलश- कुरुश्रवण
पदार्थ
[१] हे (कलश) = [कलाः शेरते अस्मिन्] 'प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, ज्योति, जल, पृथिवी, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म, लोक व नाम' रूप १६ कलाओं के आधारभूत ! (कुरुश्रवण) = उस पिता प्रभु की वाणी को सुननेवाले व करनेवाले ! प्रभु की वाणी को सुनते ही तदनुसार कार्य करनेवाले जीव ! (मघानि ददतः) = ऐश्वर्यों के देनेवाले तेरे एतानि भद्रा इन कल्याणों को (क्रियाम) = हमने किया है। गत मन्त्र में वर्णित प्रकार से तेरे जीवन को उत्तम बनाया है । [२] हे (मघवान:) = ऐश्वर्य सम्पन्न पुरुषो! (वः) = तुम्हारा (अयम्) = यह दान देना (इत्) = सचमुच (दान:) = दान ही अस्तु हो 'दाय् लवने' यह तुम्हारी बुराइयों का लवन करनेवाला हो, उनको नष्ट करनेवाला हो और इस प्रकार बुराइयों को नष्ट करके 'दैप् शोधने' यह तुम्हारे जीवन का शोधन करनेवाला हो । (अयं च सोमः) = और यह (सोम) = वीर्यशक्ति भी तुम्हारे जीवन में रोगादि को दूर करके शोधन करनेवाली हो, (यम्) = जिस सोमशक्ति को (हृदि) = तुम्हारे हृदय में (बिभर्मि) = मैं धारण करता हूँ । तुम्हारे हृदय में सम्पूर्ण आहार-विहारों को करते समय यह भावना हो कि मेरे ये आहार- विहार सोम का रक्षण करनेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु की वाणी को सुनें और तदनुसार क्रिया को करें। दान देनेवाले हों, इसी में हमारा कल्याण है। यह दान हमारी बुराइयों को नष्ट करके जीवन का शोधन करे। हमारे हृदय में सोम के रक्षण की भावना हो । हम उत्तम से उत्तम मार्ग की ओर चलें। [१] दिव्य प्रकाश को प्राप्त करें, [२] 'भद्र पुरुष' बनें, [३] हमारे पर इन्द्रियों का शासन न हो, [४] दुरित का विरेचन हो, [५] विद्वानों से अनुशिष्ट होकर हम भद्र मार्ग पर चलें, [६] ज्ञानी से ही मार्ग का ज्ञान प्राप्त होता है, [७] मार्ग पर चलने से ही सुन्दर जीवन का प्रारम्भ होता है, [८] हमें चाहिए कि प्रभु की वाणी को सुनें और करें। प्रभु कह रहे हैं 'दान दो और सोम का रक्षण करनेवाले बनो, तभी देव हमारा रक्षण करेंगे'।
विषय
षोडश-कल आत्मा वा गुरु की उपासना।
भावार्थ
हे (कलश) ज्ञान और शोडष कलाओं को धारण करने हारे ! विद्वन् ! हे (कुरु-श्रवण) ‘यह कार्य कर, यह कार्य कर’ ऐसी नाना कर्म करने योग्य प्रेरणाओं को सुनने वाले पुरुष ! अथवा क्रियाशील पुरुषों से श्रवणीय आज्ञा वाले ! गुरो ! (मघानि) उत्तम पूज्य ज्ञानों, धनों को (ददतः) देने वाले तेरे लिये हम (एतानि भद्रा क्रियाम) इन नाना सुखजनक कल्याणकारक कर्मों को करें, तेरी नाना सेवाएं करें। हे (मघवानः) पूज्य धन ज्ञान आदि के स्वामी जनो ! (सः वः दानः इत्) वह प्रभु तुम्हें देने हारा (अस्तु) हो और (अयं च सोमः) यह सोम, सत् शिष्य भी तुम्हें सुख ज्ञानादि देवे, (यं हृदि बिभर्मि) जिसको मैं अब अपने चित्त में धारण करता हूं। इति त्रिंशो वर्गः॥ इति सप्तमाष्टके सप्तमोऽध्यायः समाप्तः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कवष ऐलूष ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः- १, २ विराड्जगती। ३ निचृज्जगती ४ पादनिचृज्जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। ६ त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, निचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कलश कुरुश्रवण) हे ज्ञानकलापूर्ण कुरव आज्ञाकारिणः श्रवणयोग्याः शिष्या यस्य तादृश ! आचार्य ! (ददतः) तव ज्ञानं प्रयच्छतः प्रतीकाराय (एतानि मघानि) इमानि विविधानि धनवस्त्रादीनि वयमुपहरामः (मघवानः) हे विविधधनवस्त्राणि विद्यन्ते दानाय येषां तं यूयं धनवन्तः शिष्याः (वः सः-दानः इत्-अस्तु) युष्माकं स दातव्यपदार्थः स्वीकृतोऽस्तु (अयं सोमः-च) एष सोम्यज्ञानप्रवाहः शिक्षणविषयश्च युष्मासु तिष्ठतु (यं हृदि बिभर्मि) यं सोम्यं ज्ञानविषयं स्वहृदये खल्वहं धारयामि ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O treasure hold of knowledge, Indra, O learned teacher, O listener of my praises and prayers, these are the holy acts of reverence and adoration which we, givers of thanks and presents, perform in homage to your honour. O men of wealth and power of knowledge, let this knowledge and this presentation of thanks and appreciation be a holy gift of gracefulness and culture, and so may this soma of knowledge be for you, the knowledge which I hold at heart in myself.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याचे शिष्य संपूर्ण ज्ञान कलांनी पूर्ण व आज्ञाधारक असतील त्याला आचार्य म्हटले जाते. आचार्याला नाना प्रकारचे धन-वस्त्र इत्यादी भेट द्यावी. आचार्यानेही त्यांना ज्ञानदान करावे. ॥९॥
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