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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    सं मा॑ तपन्त्य॒भित॑: स॒पत्नी॑रिव॒ पर्श॑वः । नि बा॑धते॒ अम॑तिर्न॒ग्नता॒ जसु॒र्वेर्न वे॑वीयते म॒तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । मा॒ । त॒प॒न्ति॒ । अ॒भितः॑ । स॒पत्नीः॑ऽइव । पर्श॑वः । नि । बा॒ध॒ते॒ । अम॑तिः । न॒ग्नता॑ । जसुः॑ । वेः । न । वे॒वी॒य॒ते॒ । म॒तिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं मा तपन्त्यभित: सपत्नीरिव पर्शवः । नि बाधते अमतिर्नग्नता जसुर्वेर्न वेवीयते मतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । मा । तपन्ति । अभितः । सपत्नीःऽइव । पर्शवः । नि । बाधते । अमतिः । नग्नता । जसुः । वेः । न । वेवीयते । मतिः ॥ १०.३३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मा पर्शवः सपत्नीः-इव-अभितः-सं तपन्ति) मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म में गर्भाशय में मातृदेह की पसलियाँ मुझे सपत्नियों की भाँति इधर-उधर से पीड़ित करती हैं (अमतिः-नग्नता नि बाधते) और तब मतिरहितता-अज्ञता तथा निर्लज्जता वस्त्र-विहीनता की भाँति साधनहीनता दुःख देती है (जसुः-वेः-न मतिः-वेवीयते) पुनः संसार में जीते हुए युवक को क्षीण करनेवाला जराप्रवाह भी पीड़ित करता है, जैसे पक्षी की मति नाश करनेवाले शिकार के भय से विचलित हो जाती है ॥२॥

    भावार्थ

    जीवात्मा जब माता के गर्भ में जाता है, तो तङ्ग स्थान में पीड़ा अनुभव करता है तथा अज्ञता और कर्म करने में असमर्थता भी उसे पीड़ित करती है, मृत्यु का भय भी छाया हुआ रहता है ॥२॥

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    विषय

    धृति की परीक्षा - ' क्षुधा व नग्नता' का कष्ट

    पदार्थ

    [१] जिस समय गत मन्त्र के अनुसार मनुष्य लोकहित के कर्मों में, यज्ञात्मक कर्मों में ही लगा रहता है, उस समय एक समय वह भी आता है जिसमें कि मनुष्य सांसारिक दृष्टिकोण से अत्यन्त कष्टमय स्थिति में होता है। ये कष्ट वस्तुतः उसके धैर्य की परीक्षा के लिये आते हैं। यदि इनमें वह उत्तीर्ण हो जाता तो प्रभु की कृपा का पात्र बनता है । उन्हीं कष्टों का अनुभव करते हुए मन्त्र कहता है कि (मा) = मुझे (पर्शवः) = पार्श्व-स्थितियाँ- पसलियाँ अन्नभाव के कारण दुर्बलता से (अभितः) = दोनों ओर से (संतपन्ति) = पीड़ित करती हैं। इस प्रकार पीड़ित करती हैं, (इव) = जैसे कि (सपत्नी:) = सपत्नियाँ एक पुरुष को पीड़ित कर देती हैं । बहुविवाह के कारण जैसे एक पुरुष को सदा परेशानी ही परेशानी का सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार इस धर्ममार्ग पर चलनेवाले पुरुष को भी एक समय गरीबी के कष्ट के कारण अन्न भी न मिल सकने से क्षुधा का कष्ट पीड़ित करता है, इसकी पसलियाँ ही दुर्बलता से दुःखने लगती हैं । [२] परेशानी इतनी अधिक हो जाती है कि (अमतिः निबाधते) = अचेतनता पीड़ित करने लगती है, होशोहवास के कायम न रहने की आशंका हो जाती है। वस्त्राभाव के कारण (नग्नता) = नग्नता के कष्ट का सामना करना पड़ता है। [३] ऐसी स्थिति में (मतिः) = बुद्धि (वेवीयते) = उस प्रकार डाँवाडोल हो जाती है (न) = जैसे कि (वेः) = पक्षी के होश (जसुः) = व्याधे से व्याधे के देखने पर नष्ट हो जाते हैं। मृत्यु चेहरे में झाँकती प्रतीत होती है और सब समाप्ति ही समाप्ति दृष्टिगोचर होती है, इस भयंकर स्थिति में बुद्धि का डाँवाडोल हो जाना स्वाभाविक है। यदि हम विचलित हो गये तो धृति की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाएँगे और हमारा पतन हो जाएगा।

    भावार्थ

    भावार्थ-धर्म के मार्ग पर चलनेवाले की परीक्षा होती है तो उसे 'क्षुधा व नग्नता' का कष्ट भी झेलना पड़ता है। कई बार तो ये कष्ट बुद्धि को विचलित कर देते हैं ।

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    विषय

    भक्त का प्रभु से व्यथाओं का निवेदन। सौतों से पीड़ित स्त्री के तुत्य उसकी हार्दिक वेदना।

    भावार्थ

    (सपत्नीः) सौतों के समान (पर्शवः) मेरे आत्मा से स्पर्श करने वाली, कुवासनाएं, आत्मा पर संग-दोष उत्पन्न करने वाली (मा अभितः तपन्ति) मुझे सब ओर से सन्ताप देती हैं। (अमतिः) अज्ञान (मा नि बाधते) मुझे बहुत पीड़ित करता है। और (नग्नता मा नि बाधते) वस्त्रादि न होने से नंगे शरीर को नंगापन जिस प्रकार लज्जित, व्यथित, शीत ग्रीष्मादि से पीड़ित करती है उसी प्रकार (नग्नता नि बाधते) मेरे पास हे प्रभो ! तेरी स्तुति करने योग्य वाणी नहीं है, वह वाणी का अभाव भी मुझे दुःख देता है। इसी प्रकार (जसुः नि बाधते) हिंसावृत्ति वा सर्वनाशक मृत्यु वा सबका नाश होना यह भय भी मुझे व्यथित, बेचैन कर रहा है। (वेः न मतिः) हे प्रभो ! पक्षी के समान उत्तम ज्ञानी वा रक्षक की (मतिः) शत्रुस्तम्भनकारिणी शक्ति और ज्ञानी की बुद्धि, (मा वे वीयते) मुझे निरन्तर प्राप्त हो। मेरी बराबर रक्षा करे। अथवा (वेः न मतिः वेवीयते) भयव्यथित पक्षी के तुल्य मेरी बुद्धि भी निरन्तर भय से व्यथित हो कांपती और चंचल, अस्थिर रहती है।

    टिप्पणी

    पर्शुः स्पृशतेः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- १ विश्वे देवाः। २,३ इन्द्रः। ४, ५ कुरुश्रवणस्य त्रासदस्यवस्य दानस्तुतिः ६-९ उपमश्र व मित्रातिथिपुत्राः॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् २ निचृद् बृहती। ३ भुरिग् बृहती। ४–७, ९ गायत्री। ८ पादनिचृद् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मा पर्शवः सपत्नीः-इव-अभितः सं तपन्ति) मृत्योरनन्तरं पुनर्जन्मनि मां मातृगर्भाशये मातृदेहपर्शवः-अन्यपत्न्य इवोभयतः सम्पीडयन्ति (अमतिः-नग्नता निबाधते) तदाऽज्ञताऽबोधावस्था निर्लज्जता वस्त्रविहीनतेव साधनहीनता-अकर्मण्यता अन्तर्दुःखयति (जसुः-वेः-न मतिः-वेवीयते) पुनः संसारे जीवन्तं युवानं चोपक्षयकर्त्ता जराप्रवाहोऽपि पीडयति ततस्तु यथा पक्षिणो मतिर्बुद्धिरुपक्षयितुर्व्याधाद् ‘जसुः’ षष्ठीस्थाने प्रथमा भृशं विचलिता भवति ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All round the pressures of life oppress me like rival mistresses, adversity, depression and exhaustion bind me down to loss of self-awareness, and my understanding is paralysed like the bird’s before the hunter.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्मा जेव्हा मातेच्या गर्भात जातो तेव्हा अरुंद जागेत कष्टाचा अनुभव घेतो, तसेच अज्ञान व कर्म करण्याची असमर्थताही त्याला त्रस्त करते. त्याला मृत्यूचे भयही वाटते. ॥२॥

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