ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
मूषो॒ न शि॒श्ना व्य॑दन्ति मा॒ध्य॑ स्तो॒तारं॑ ते शतक्रतो । स॒कृत्सु नो॑ मघवन्निन्द्र मृळ॒याधा॑ पि॒तेव॑ नो भव ॥
स्वर सहित पद पाठमूषः॑ । न । शि॒श्ना । वि । अ॒द॒न्ति॒ । मा॒ । आ॒ऽध्यः॑ । स्तो॒तार॑म् । ते॒ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । स॒कृत् । सु । नः॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । मृ॒ळ॒य॒ । अध॑ । पि॒ताऽइ॑व । नः॒ । भ॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्य स्तोतारं ते शतक्रतो । सकृत्सु नो मघवन्निन्द्र मृळयाधा पितेव नो भव ॥
स्वर रहित पद पाठमूषः । न । शिश्ना । वि । अदन्ति । मा । आऽध्यः । स्तोतारम् । ते । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । सकृत् । सु । नः । मघऽवन् । इन्द्र । मृळय । अध । पिताऽइव । नः । भव ॥ १०.३३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 33; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शतक्रतो-इन्द्र) हे बहुत प्रज्ञानवन् परमेश्वर ! (मा-आध्यः) मुझे मानसिक वासनाएँ (वि-अदन्ति) विविधरूप से खा रही हैं-सता रही हैं (मूषः-न शिश्ना) जैसे चूहे अन्नादि रस से लिप्त सूत्रों को या अपने पुच्छादि अङ्गों को खाते हैं (मघवन्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (सकृत् नः सुमृळय) एक बार तो हमें मोक्ष प्रदान कर, सुखी कर (नः पिता-इव भव) तू हमारे पिता के समान हो-है ॥३॥
भावार्थ
मानसिक वासनाएँ मनुष्य के आन्तरिक जीवन को खाती रहती हैं। उनसे बचने का उपाय केवल परमात्मा की शरण है या उसकी उपासना है। मानव के सांसारिक कल्याण और मोक्ष पाने का भी परम साधन है ॥३॥
विषय
परीक्षार्थी की प्रार्थना
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में की गई कष्ट पीड़ित भक्त की प्रार्थना को सुनकर प्रभु कहते हैं कि (ऋषिः) = तात्त्विक स्थिति का द्रष्टा मैं (आवृणिः) = वरता हूँ, उसको जो (कुरुश्रवणम्) = सुनता है और करता है। जो मेरे आदेश को सुनकर उसके अनुसार कार्य करता है। (राजनम्) = जो अपने जीवन को ज्ञान से दीप्त बनाता है अथवा अपने जीवन को [well regulated] व्यवस्थित करता है । (त्रासदस्यवम्) = जो दस्युओं को त्रास देनेवाला है, अशुभ भावनाएँ जिससे भयभीत होकर दूर भाग जाती हैं। (वाघताम्) = मेधावी ऋत्विजों को (मंहिष्ठम्) = अधिक से अधिक देनेवाला है। [२] प्रभु कहते हैं कि मैं भक्त के कष्टों को देखता हूँ। मुझे उनका ज्ञान न हो सो बात नहीं, परन्तु ये कष्ट तो उसकी परीक्षा के लिये उपस्थित किये गये हैं, सो मैं तो यही देखता हूँ कि यह भक्त कहाँ तक उन कष्टों को सहनेवाला बनता है। इन कष्टों की अग्नि में तपकर उसका जीवन अधिक निखर उठेगा।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु-भक्त कष्टों की व्याकुलता में कष्ट निवारण के लिये याचना करता है, परन्तु वह मार्ग से विचलित होना नहीं चाहता ।
विषय
मानसी चिन्ताओं से पीड़ित भक्त की प्रार्थना।
भावार्थ
(मूषः शिश्ना न) चूहा जिस प्रकार अन्न रस से भीगे सूतों को खा जाता है, उसी प्रकार हे (शत-क्रतो) अनेक बल और बुद्धियों वाले प्रभो ! (आध्यः मा वि अदन्ति) मानसी चिन्ताएं मुझे विविध प्रकार से खाए डालती हैं हे (इन्द्र) विघ्ननाशक ऐश्वर्यवन् प्रभो ! स्वामिन् ! हे (मघवन्) उत्तम दानयोग्य पदार्थों के स्वामिन् ! (नः सकृत् सु मृडय) हमें एक बार अच्छी प्रकार खूब सुखी कर। (अध पिता इव नः भव) और तू तो हमारे पिता के समान हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- १ विश्वे देवाः। २,३ इन्द्रः। ४, ५ कुरुश्रवणस्य त्रासदस्यवस्य दानस्तुतिः ६-९ उपमश्र व मित्रातिथिपुत्राः॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् २ निचृद् बृहती। ३ भुरिग् बृहती। ४–७, ९ गायत्री। ८ पादनिचृद् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(शतक्रतो-इन्द्र) हे बहुप्रज्ञानवन् परमेश्वर ! (मा-आध्यः) मां मानसवासनाः कामनाः “आध्यः कामाः” [निरु०४।७] (व्यदन्ति) विविधं खादन्ति (मूषः-न शिश्ना) यथा मूषिकाः खल्वन्नरसादिषु क्लिन्नानि सूत्राणि स्वाङ्गानि पुच्छादीनि वा “स्नातानि सूत्राणि स्वाङ्गाभिधानं वा” [निरु०४।७] विविधं खादन्ति तद्वत् (मघवन्) हे ऐश्वर्यवन् ! परमात्मन् ! (सकृत्-नः सुमृळय) एकवारं तु अस्मान् सम्यक् सुखय मोक्षप्रदानेन (नः-पिता-इव भव) त्वमस्माकं पिता-इव पितृसमानो भव ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
As mice eat up the weaver’s thread soaked in starch, so do the afflictions of want and worry consume me, your celebrant, O lord of a hundred grand acts of protection, promotion and boundless generosity. O lord of power and glory, Indra, be kind and save us now as ever, and always be our saviour and protector like a father.
मराठी (1)
भावार्थ
मानसिक वासना माणसाच्या आन्तरिक जीवनाला त्रस्त करतात. त्यांच्या पासून बचाव करावयाचा असेल तर परमेश्वराला शरण जाणे किंवा त्याची उपासना करणे होय. मानवाचे सांसारिक कल्याण व मोक्ष प्राप्त करण्याचे ते उत्कृष्ट साधन आहे. ॥३॥
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