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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 33/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यस्य॒ प्रस्वा॑दसो॒ गिर॑ उप॒मश्र॑वसः पि॒तुः । क्षेत्रं॒ न र॒ण्वमू॒चुषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । प्रऽस्वा॑दसः । गिरः॑ । उ॒प॒मऽश्र॑वसः । पि॒तुः । क्षेत्र॑म् । न । र॒ण्वम् । ऊ॒चुषे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य प्रस्वादसो गिर उपमश्रवसः पितुः । क्षेत्रं न रण्वमूचुषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । प्रऽस्वादसः । गिरः । उपमऽश्रवसः । पितुः । क्षेत्रम् । न । रण्वम् । ऊचुषे ॥ १०.३३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 33; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यस्य-उपमश्रवसः पितुः) जिस सर्वोच्च ज्ञानवाले पिता परमात्मा की (गिरः प्रस्वादसः) मन्त्रवाणियाँ प्रकृष्ट आनन्द देनेवाली हैं, उस परमात्मा की (ऊचुषे रण्वं क्षेत्रं न) स्तुति करनेवाले उपासक के लिये रमणीय सर्वसुखप्रद अन्नक्षेत्र की भाँति उसकी शरण है ॥६॥

    भावार्थ

    उच्च ज्ञानश्रवण करानेवाला परमात्मा पिता के समान है, उसकी मन्त्रवाणियाँ बहुत आनन्दरस प्रदान करती हैं। स्तुति करनेवाले के लिये रमणीय शरण प्राप्त होती है ॥६॥

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    विषय

    मधुर वाणी

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार प्रभु उसका स्तवन करते हैं (यस्य) = जिसकी (गिरः) = वाणियाँ (प्रस्वादसः) = प्रकृष्ट स्वादवाली हैं। किसकी ? (उपमश्रवसः) = 'उप' समीपता से 'म' मापता है (श्रवः) = ज्ञान को जो उस 'उपमश्रवा' की। प्रभु की उपासना से जो ज्ञान को प्राप्त करता है वह 'उपमश्रवा' कहलाता है । (पितुः) = रक्षक की। यह उपमश्रवाः सदा रक्षणात्मक कार्यों में ही लगता है। इसकी वाणियाँ सदा मधुर होती हैं। यह कभी कड़वी वाणी को नहीं बोलता । [२] इस (ऊचुषे) = मधुर वाणी को बोलनेवाले के लिये (न) = जैसे (क्षेत्रं रण्वम्) = सारा क्षेत्र 'शरीर' ही रमणीय होता है इसी प्रकार इसकी वाणी भी मधुर होती है । वस्तुतः मधुर शब्दों से इसके सारे जीवन में ही माधुर्य आ जाता है। यह मधुर जीवनवाला प्रभु से प्रशंसा को प्राप्त करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उपासना के द्वारा ज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनें, रक्षक हों, हमारी वाणी में माधुर्य हो, सारा शरीर ही रमणीयता को लिये हुवे हो ।

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    विषय

    सुखद वाणियों के उपदेष्टा प्रभु का स्तवन।

    भावार्थ

    (यस्य) जिस (पितुः) सर्वपालक, सब के पिता माता के तुल्य (उपम-श्रवसः) अति उत्तम ज्ञान से सम्पन्न प्रभु गुरु के (गिरः प्र-स्वादसः) निगलने योग्य अन्नों के समान, उपदेश द्वारा प्रदत्त वाणियां अति उत्कृष्ट स्वाद देने वाली अति सुखप्रद हैं और सेवन करने वाले आत्मा के लिये (यस्य क्षेत्रं रण्वं ऊचुषे) जिसका दिया क्षेत्र, निवासस्थान श्री अति रमणीय क्षेत्र, उर्वरा भूमि के समान नाना दिव्य अन्न, कर्म फलादि का उत्पादक होता है, मैं उसी सहस्रों दक्षिणा अर्थात् अन्नादिवत् कर्म फल के देने के लिये प्रभु की स्तुति करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- १ विश्वे देवाः। २,३ इन्द्रः। ४, ५ कुरुश्रवणस्य त्रासदस्यवस्य दानस्तुतिः ६-९ उपमश्र व मित्रातिथिपुत्राः॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् २ निचृद् बृहती। ३ भुरिग् बृहती। ४–७, ९ गायत्री। ८ पादनिचृद् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यस्य-उपमश्रवसः पितुः) यस्य खलूपरि मानवतः श्रवः श्रवणं वेदश्रवणं यस्मात् तस्य सर्वोत्कृष्टज्ञानवतः सर्वपालकस्य परमात्मनः (गिरः प्रस्वादसः) वाचो मन्त्रवाचः प्रकृष्टानन्ददायिन्यः सन्ति तस्य परमात्मनः शरणम् (ऊचुषे रण्वं क्षेत्रं न) परमात्मनः स्तुतिमुक्तवते-उपासकाय रमणीयं सर्वसुखप्रदान्नवत्क्षेत्रमिवास्ति ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I celebrate the brilliant ruler whose words of kindness and grace—fatherly protector, exemplary listener and exceptionally rich and honoured as he is— are like a field shower of joyous generosity for the supplicant.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उच्च ज्ञान श्रवण करविणारा परमात्मा पित्याप्रमाणे आहे. त्याची मंत्रवाणी अत्यंत आनंदरस प्रदान करते. स्तुती करणाऱ्यांना रमणीय शरण मिळते. ॥६॥

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