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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 33/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    कु॒रु॒श्रव॑णमावृणि॒ राजा॑नं॒ त्रास॑दस्यवम् । मंहि॑ष्ठं वा॒घता॒मृषि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒रु॒ऽश्रव॑णम् । अ॒वृ॒णि॒ । राजा॑नम् । त्रास॑दस्यवम् । मंहि॑ष्ठम् । वा॒घता॑म् । ऋषिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुरुश्रवणमावृणि राजानं त्रासदस्यवम् । मंहिष्ठं वाघतामृषि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कुरुऽश्रवणम् । अवृणि । राजानम् । त्रासदस्यवम् । मंहिष्ठम् । वाघताम् । ऋषिः ॥ १०.३३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 33; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ऋषिः) अध्यात्मदृष्टि से दर्शनशील मैं उपासक (कुरुश्रवणम्) अध्यात्म-ऋत्विजों के द्वारा की हुई प्रार्थना के सुननेवाले-(त्रासदस्यवम्) भयनाशक-(वाघतां मंहिष्ठम्) अध्यात्म-ऋत्विजों के अत्यन्त सुखदाता-(राजानम्) स्वामी परमात्मा को (आवृणि) प्रार्थना में लाता हूँ ॥४॥

    भावार्थ

    अध्यात्मदर्शी विद्वानों द्वारा उपदेश पाया हुआ उपासक सुखदाता परमात्मा की प्रार्थना नित्य किया करे ॥४॥

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    विषय

    प्रभु किसका वरण करते हैं ?

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में की गई कष्ट पीड़ित भक्त की प्रार्थना को सुनकर प्रभु कहते हैं कि (ऋषिः) = तात्त्विक स्थिति का द्रष्टा मैं (आवृणिः) = वरता हूँ, उसको जो (कुरुश्रवणम्) = सुनता है और करता है। जो मेरे आदेश को सुनकर उसके अनुसार कार्य करता है। राजनम् जो अपने जीवन को ज्ञान से दीप्त बनाता है अथवा अपने जीवन को [well regulated] व्यवस्थित करता है। (त्रासदस्यवम्) = जो दस्युओं को त्रास देनेवाला है, अशुभ भावनाएँ जिससे भयभीत होकर दूर भाग जाती हैं। (वाघताम्) = मेधावी ऋत्विजों को (मंहिष्ठम्) = अधिक से अधिक देनेवाला है। [२] प्रभु कहते हैं कि मैं भक्त के कष्टों को देखता हूँ। मुझे उनका ज्ञान न हो सो बात नहीं, परन्तु ये कष्ट तो उसकी परीक्षा के लिये उपस्थित किये गये हैं, सो मैं तो यही देखता हूँ कि यह भक्त कहाँ तक उन कष्टों को सहनेवाला बनता है। इन कष्टों की अग्नि में तपकर उसका जीवन अधिक निखर उठेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ‘प्रभु के आदेशों को सुनें और करें, जीवन को व्यवस्थित बनायें, दास्यव वृत्तियों को दूर करें, पात्रों में देनेवाले बनें। तभी हम प्रभु के प्रिय बनेंगे'।

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    विषय

    अन्तर्यामी, भयदायक जनों के नाश की प्रार्थना, सुनने वाले प्रभु का वरण।

    भावार्थ

    मैं (ऋषिः) अतीन्द्रिय पदार्थ का देखने हारा होकर (वाघताम्) कार्य और ज्ञान को धारण करने वालों में (मंहिष्ठम्) सब से अधिक दानी, (त्रासदस्यवम्) भयभीत शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाले (कुरु-श्रवणम्) कार्य करने वाले जनों की सुनने वाले वा कर्त्तव्य कर्म के लिये उत्तम आज्ञा वचन के श्रवण करने वाले, तत्पर (राजानं) तेजस्वी, स्वामी प्रभु को (आ वृणि) सब प्रकार से वरण करता हूँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- १ विश्वे देवाः। २,३ इन्द्रः। ४, ५ कुरुश्रवणस्य त्रासदस्यवस्य दानस्तुतिः ६-९ उपमश्र व मित्रातिथिपुत्राः॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् २ निचृद् बृहती। ३ भुरिग् बृहती। ४–७, ९ गायत्री। ८ पादनिचृद् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ऋषिः) अध्यात्मदृष्ट्या दर्शनशील उपासकोऽहम् (कुरुश्रवणम्) अध्यात्मर्त्विजां तत्कृतप्रार्थनायाः श्रवणकर्त्तारम् (त्रासदस्यवम्) भयोपक्षयितॄणां प्रमुखम् (वाघतां मंहिष्ठम्) अध्यात्मर्त्विजाम् अतिशयेन ज्ञानसुखदातारम् (राजानम्) स्वामिनं परमात्मानम् (आवृणि) याचे प्रार्थये ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I, the man of vision and comprehensive judgement, choose and abide by the brilliant ruler, all attentive and universal listener, offspring of the destroyer of evil, want, injustice and violence, and most generous protector and patron of the wise and grateful celebrants.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अध्यात्मदर्शी विद्वानांद्वारे उपदेश प्राप्त झालेल्या उपासकाने सुखदात्या परमात्म्याची नित्य प्रार्थना करावी. ॥४॥

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