ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 33/ मन्त्र 5
यस्य॑ मा ह॒रितो॒ रथे॑ ति॒स्रो वह॑न्ति साधु॒या । स्तवै॑ स॒हस्र॑दक्षिणे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । मा॒ । ह॒रितः॑ । रथे॑ । ति॒स्रः । वह॑न्ति । सा॒धु॒ऽया । स्तवै॑ । स॒हस्र॑ऽदक्षिणे ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य मा हरितो रथे तिस्रो वहन्ति साधुया । स्तवै सहस्रदक्षिणे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । मा । हरितः । रथे । तिस्रः । वहन्ति । साधुऽया । स्तवै । सहस्रऽदक्षिणे ॥ १०.३३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 33; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यस्य) जिस परमात्मा के (सहस्रदक्षिणे रथे) बहुत लाभवाले रमणीय मोक्ष पद में (मा तिस्रः-हरितः) मुझे तीन स्तुति-प्रार्थनोपासनाएँ सुख पहुँचानेवाली (साधुया वहन्ति) सुगमता से पहुँचाती हैं (स्तवै) उस परमात्मा की मैं प्रशंसा करता हूँ ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा की स्तुति-उपासना द्वारा मनुष्य मोक्ष का भागी बनता है ॥५॥
विषय
दमन व दान
पदार्थ
[१] प्रभु कहते हैं कि रथे इस शरीररूप रथ में यस्य - जिसके तिस्रः हरितः - तीनों दुःखहरण के साधनभूत घोड़े, 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' मा मुझे साधुया - बड़ी उत्तमता से वहन्ति वहन करनेवाले होते हैं उस सहस्रदक्षिणे- शतशः दानों को देनेवाले के लिये स्तवै मैं प्रशंसा करता हूँ। [२] जैसे एक उत्तम सन्तान पिता से प्रशंसात्मक शब्दों को सुनता है इसी प्रकार वह जीव भी प्रभु से प्रशंसनीय होता है जो कि अपनी- [क] इन्द्रियों, मन व बुद्धि को अपने वश में करके प्रभु-प्रवण करता है। इनके द्वारा प्रभु-दर्शन के लिये यत्नशील होता है तथा [ख] भोग-प्रवण वृत्ति के न होने के कारण सदा दान देनेवाला बनता है। दान देने में एक आनन्द का अनुभव करता है। [३] इस प्रकार ये 'दम' व 'दान' उसको प्रभु की प्राप्ति करानेवाले होते हैं। इन्द्रियों, मन व बुद्धि को विषयों से रोकना 'दमन' है, सहस्र-दक्षिण बनना 'दान' है।
भावार्थ
भावार्थ – प्रभु का प्रिय वही है जो दम व दान को अपनाता है। ये ही उसे प्रभु क तक पहुँचानेवाले होते हैं।
विषय
अनेक सुखों के दाता प्रभु की स्तुति।
भावार्थ
(यस्य रथे) जिसके रमण योग्य रथ में (तिस्रः हरितः) तीन नाड़ियें (साधुया) साधु, उत्तम मार्ग में (मा वहन्ति) मुझे ले जाती हैं। उसी को मैं (सहस्र-दक्षिणे स्तवै) अनेक दातव्य पदार्थों के देने के निमित्त स्तुति करता हूं। यह रथ देह है, इस में तीन नाड़ी इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना आत्मा को साधु मार्ग से ले जाती हैं। अनेक सुख इस रथ में दिये हैं। उसी के निमित्त प्रभु की स्तुति करनी प्रभु ने चाहिये। इति प्रथमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- १ विश्वे देवाः। २,३ इन्द्रः। ४, ५ कुरुश्रवणस्य त्रासदस्यवस्य दानस्तुतिः ६-९ उपमश्र व मित्रातिथिपुत्राः॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् २ निचृद् बृहती। ३ भुरिग् बृहती। ४–७, ९ गायत्री। ८ पादनिचृद् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यस्य) यस्य परमात्मनः (सहस्रदक्षिणे) बहुफललाभकरे-ऽध्यात्मपदे (रथे) रमणीयमोक्षे (मा तिस्रः-हरितः साधुया वहन्ति) मां तिस्रः स्तुतिप्रार्थनोपासनाः-हरणशीलाऽऽहरणाः साधु प्रापयन्ति “साधुया” “सुपां सुलुक्०” याच् प्रत्ययः (स्तवै) तं प्रशंसामि ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I celebrate and adore Indra, generous lord of thousandfold charity of kindness and grace, whose threefold gifts of divine knowledge, holy will and grateful prayer and adoration transport me like three horses of the divine chariot of human life well through and across the world of human existence to the state of freedom from limitations and eternal bliss.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या स्तुती, प्रार्थना, उपासनेद्वारे मनुष्य मोक्षाचा अधिकारी बनतो. ॥५॥
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