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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 42/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    धनं॒ न स्य॒न्द्रं ब॑हु॒लं यो अ॑स्मै ती॒व्रान्त्सोमाँ॑ आसु॒नोति॒ प्रय॑स्वान् । तस्मै॒ शत्रू॑न्त्सु॒तुका॑न्प्रा॒तरह्नो॒ नि स्वष्ट्रा॑न्यु॒वति॒ हन्ति॑ वृ॒त्रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धन॑म् । न । स्प॒न्द्रम् । ब॒हु॒लम् । यः । अ॒स्मै॒ । ती॒व्रान् । सोमा॑न् । आ॒ऽसु॒नोति॑ । प्रय॑स्वान् । तस्मै॑ । शत्रू॑न् । सु॒ऽतुका॑न् । प्रा॒तः । अह्नः॑ । नि । सु॒ऽअष्ट्रा॑न् । यु॒वति॑ । हन्ति॑ । वृ॒त्रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धनं न स्यन्द्रं बहुलं यो अस्मै तीव्रान्त्सोमाँ आसुनोति प्रयस्वान् । तस्मै शत्रून्त्सुतुकान्प्रातरह्नो नि स्वष्ट्रान्युवति हन्ति वृत्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धनम् । न । स्पन्द्रम् । बहुलम् । यः । अस्मै । तीव्रान् । सोमान् । आऽसुनोति । प्रयस्वान् । तस्मै । शत्रून् । सुऽतुकान् । प्रातः । अह्नः । नि । सुऽअष्ट्रान् । युवति । हन्ति । वृत्रम् ॥ १०.४२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 42; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः प्रयस्वान्) जो योगाभ्यास आदि प्रयत्न करनेवाला है, वह (अस्मै) इस परमात्मा के लिए (स्पन्द्रं बहुलं धनं न) स्पन्दनशील अर्थात धेर्य से सुख देनेवाले धन की भाँति (तीव्रान् सोमान्-आसुनोति) तीव्र संवेग से किये हुए उपासनारसों को सम्पादित करता है (तस्मै) उस उपासक के लिए (सुतुकान् स्वष्ट्रान् शत्रून्) बहुहिंसक सुव्याप्त कामादि शत्रुओं को (अह्नः प्रातः) दिन के प्रथम अवसर पर (नि युवति) निवारित करता है-हटाता है (वृत्रं हन्ति) आवरक अज्ञान को नष्ट करता है ॥५॥

    भावार्थ

    योगाभ्यास करनेवाले कामादि शत्रुओं को नष्ट करने में समर्थ होते हैं तथा बुद्धि के आवरक अज्ञान को हटाकर ज्ञानप्रकाश को उन्नत करके परमात्मा के आनन्द को भी प्राप्त करते हैं ॥५॥

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    विषय

    प्रयस्वान्

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो भी पुरुष (प्रयस्वान्) = [प्रयस् - हवि = sacrifice ] त्याग की वृत्तिवाला बनकर (अस्मै) = इस प्रभु के लिये, प्रभु की प्राप्ति के लिये (धनम्) = धन को जो (स्पन्द्रं न) = चञ्चल-सा है, अस्थिर है तथा बहुलम् - जीवन के लिये कृष्णपक्ष के समान है, जीवन को अन्धकारमय बना देता है, उस धन को (आसुनोति) = [to perform a shcrifice ] यज्ञ के लिये विनियुक्त करता है। और जो (प्रयस्वान्) = [प्रय: = food] प्रशस्त [सात्त्विक] भोजनवाला बनकर (तीव्रान्) = शक्तिशाली, रोगकृमियों व मन की मैल का संहार करनेवाले (सोमान्) = सोमकणों को (आसुनोति) = शरीर में उत्पन्न करता है । (तस्मै) = उस पुरुष के लिये वे प्रभु (अह्नः प्रातः) = दिन के प्रारम्भ होते ही (शत्रून्) = कामादि शत्रुओं को (सुतुकान्) = [सुप्रेरणान् सा० ] पूरी तरह से भाग जानेवालों को करते हैं और (स्वष्ट्रान्) = [उत्तमायुधान्, अष्ट्रा good] उत्तम शस्त्रोंवाले इन शत्रुओं को नि न्युवति निश्चय से इनसे पृथक् कर देता है और (वृत्रं हन्ति) = वासना को नष्ट कर देता है। [२] [क] त्यागवाले बनकर हम धन को यज्ञों में विनियुक्त करें। ये धन अस्थिर हैं, इनसे ममता क्या करनी ! और ये धन हमारी अवनति का कारण बनते हैं, ये जीवन के कृष्णपक्ष के समान हैं। [ख] धन के त्याग के साथ हमारा दूसरा कर्त्तव्य यह है कि उत्तम अन्नों के सेवन से शरीर में सोम का उत्पादन करें। यह सोम हमारे शरीरों को नीरोग बनायेगा, मनों को निर्मल करेगा। [ग] ऐसा होने पर हमारे काम-क्रोधादि शत्रु भाग खड़े होंगे [take to one is heels] । कामादि के अस्त्र हमारे लिये कुण्ठित हो जायेंगे । हमारी वासनाओं का विनाश हो जाएगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम धन को यज्ञों में लगाएँ, सोम [वीर्य] का उत्पादन करें, इसी से शत्रुओं का नाश होगा।

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    विषय

    प्रभु पर विश्वासी के निर्विध्न मार्ग।

    भावार्थ

    (यः) जो (प्रयस्वान्) उत्तम प्रयास करने वाला उद्योगी पुरुष (बहुलं) बहुत से (धनं न स्पन्द्रं) धन के तु ही जंगम-पशु अश्वादि सैन्य को और (तीव्रान् सोमान्) तीव्र, वेग से जाने वाले उत्तम शासकों और उत्तम ऐश्वर्यों को भी (अस्मै आ सुनोति) इसके लिये प्रदान करता है, वह (तस्मै) उसके (सु-तुकान्) उत्तम हिंसाकारी साधनों से युक्त हथियारों वाले और (सु-अष्ट्रान्) उत्तम अश्वादि साधनों से युक्त (शत्रून्) शत्रुओं को भी (अह्नः प्रातः) दिन के पूर्व भाग में ही (युवति) दूर करता है और (वृत्रम् नि हन्ति) विघ्न आदि का नाश करता है। परमेश्वर के प्रति विश्वास करने वाले पुरुष के विघ्न प्रतिदिन कार्य प्रारम्भ करने से पहले ही दूर हो जाते हैं। इति द्वाविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कृष्णः। इन्द्रो देवता॥ छन्द:–१, ३, ७-९, ११ त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत् त्रिष्टुम्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६, १० विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः प्रयस्वान्) यो योगाभ्यासादिप्रयत्नवान् (अस्मै) परमात्मने (स्पन्द्रं बहुलं धनं न) स्पन्दनशीलं धैर्येण सुखदं बहुधनमिव (तीव्रान् सोमान्-आसुनोति) तीव्रसंवेगेन कृतान् सम्पादितानुपासनारसान् समन्तात् सम्पादयति (तस्मै) उपासकाय (सुतुकान् स्वष्ट्रान् शत्रून्) बहुहिंसकान् सुव्याप्तान् शातयितॄन् कामादीन् (अह्नः प्रातः) दिनस्य पूर्वभागे (नियुवति) निवारयति (वृत्रं हन्ति) आवरकमज्ञानं नाशयति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Whoever the man of discipline and practice that offers precious gifts of holy and plenteous value and performs effective and powerful soma yajna of peace and pleasure for this divine Indra, ruling lord of humanity, for him Indra dispels all darkness and evil and eliminates all his enemies at the very outset of the day, howsoever strong, violent and well-armed the enemies might be.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    योगाभ्यासी काम इत्यादी शत्रूंना नष्ट करण्यात समर्थ असतात व बुद्धीचे आवरण असलेल्या अज्ञानाला दूर करतात. ज्ञानप्रकाश प्राप्त करून परमेश्वराचा आनंदही प्राप्त करतात. ॥५॥

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