ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 42/ मन्त्र 6
यस्मि॑न्व॒यं द॑धि॒मा शंस॒मिन्द्रे॒ यः शि॒श्राय॑ म॒घवा॒ काम॑म॒स्मे । आ॒राच्चि॒त्सन्भ॑यतामस्य॒ शत्रु॒र्न्य॑स्मै द्यु॒म्ना जन्या॑ नमन्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । व॒यम् । द॒धि॒म । शंस॑म् । इन्द्रे॑ । यः । शि॒श्राय॑ । म॒घऽवा॑ । काम॑म् । अ॒स्मे इति॑ । आ॒रात् । चि॒त् । सन् । भ॒य॒ता॒म् । अ॒स्य॒ । शत्रुः॑ । नि । अ॒स्मै॒ । द्यु॒म्ना । जन्या॑ । न॒म॒न्ता॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्वयं दधिमा शंसमिन्द्रे यः शिश्राय मघवा काममस्मे । आराच्चित्सन्भयतामस्य शत्रुर्न्यस्मै द्युम्ना जन्या नमन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । वयम् । दधिम । शंसम् । इन्द्रे । यः । शिश्राय । मघऽवा । कामम् । अस्मे इति । आरात् । चित् । सन् । भयताम् । अस्य । शत्रुः । नि । अस्मै । द्युम्ना । जन्या । नमन्ताम् ॥ १०.४२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 42; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वयं यस्मिन्-इन्द्रे) हम जिस राजा में-जिस राजा के निमित्त (शंसं दधिम) प्रशंसा धारण करते हैं (यः-मघवा) जो धनवान् राजा (अस्मे कामं शिश्राय) हमारे में-हमारे निमित्त कमनीय वस्तु को देता है, तथा (यस्य शत्रुः) जिसका विरोधी (आरात्-चित् सन् भयताम्) दूर से ही भय करता है (अस्मै) इस राजा के लिए (जन्या द्युम्ना निनमन्ताम्) उस देश में उत्पन्न होनेवाली अन्न आदि भोगवस्तुएँ समर्पित हो जाती हैं ॥६॥
भावार्थ
वह राजा प्रशंसा के योग्य है जो अपनी प्रजा के लिये आवश्यक निर्वाह की वस्तुओं का प्रबन्ध करता है तथा विरोधी शत्रु आदि जिससे दूर से ही भय खाते हैं, वह राष्ट्र की भोगसम्पत्ति का अधिकारी है ॥६॥
विषय
जन्य द्युम्न
पदार्थ
[१] (यस्मिन् इन्द्रे) = जिस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (वयम्) = हम (शंसं दधिम) = स्तुति को धारण करते हैं और (यः मघवा) = जो ऐश्वर्यशाली प्रभु (अस्मे) = हमारे में (कामम्) = काम को (शिश्राय) = [श्रयति= to use, employ] हमारी उन्नति के लिये विनियुक्त करते हैं 'काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिक: 'इस काम के द्वारा ही तो हमने वेद का स्वाध्याय करना है और इसी के द्वारा सारा वेद प्रतिपादित कर्मयोग क्रियान्वित होना है, सो (अस्य शत्रुः) = इस पुरुष का नाश करनेवाला यह काम (आराच्चित्) = दूर (चित्) = भी (सन्) = होता हुआ (भयताम्) = डरता ही रहे। इसके पास फटकने का तो इसे स्वप्न भी न हो और अब (अस्मै) = इस प्रभु के स्तोता के लिये जन्या मनुष्य का हित साधनेवाले (द्युम्ना) = [द्युम्न-धन नि० २।१०] धन (नि नमन्ताम्) = निश्चय से प्रह्वीभूत हों। इसे इन जन्य धनों की प्राप्ति हो । [२] [क] जब हम प्रभु का स्तवन करते हैं तो इसका (सर्वमहान्) = लाभ यह होता है कि हमारे जीवनों में काम शत्रु न बनकर मित्र की तरह कार्य करता है, प्रभु इस काम को हमारी =उन्नति के लिये विनियुक्त करते हैं । [ख] ऐसा होने पर शत्रुभूत काम हमारे पास भी नहीं फटकता, [ग] हम पुरुषार्थ करते हुए उन धनों को प्राप्त करते हैं जो जनहित के साधक होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के स्तवन से काम हमारा शत्रु न रहकर मित्र हो जाए। हम लोकहित साधक धनों को प्राप्त करें ।
विषय
हमारे स्वामी से शत्रु भय करें।
भावार्थ
(यस्मिन् इन्द्रे) जिस शत्रुहन्ता, ऐश्वर्यवान्, वीर के पुरुष निमित्त (वयम् शंसम् दधिम) हम उत्तम स्तुति और शस्त्र धारण करते हैं और (यः) जो (मघवा) उत्तम ऐश्वर्य का स्वामी होकर (अस्मै) हमें (कामम्) अभिलषित धन (शिश्राय) प्रदान करता है। (अस्य शत्रुः आरात् चित् सन् भयताम्) उसका शत्रु दूर से ही भय करे। (अस्मै) उसको (जन्या सुम्ना) सब जन-हितकारी नाना धन भी (नि नयन्ताम्) खूब प्राप्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कृष्णः। इन्द्रो देवता॥ छन्द:–१, ३, ७-९, ११ त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत् त्रिष्टुम्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६, १० विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
इन्द्रशब्देन राजा कथ्यते (वयं यस्मिन्-इन्द्रे शंसं दधिम) वयं खलु यस्मिन् राजनि-यद्राजनिमित्तं प्रशंसनं धारयामः (यः मघवा-अस्मे कामं शिश्राय) यो हि धनवान् राजाऽस्मासु कमनीयं वस्तु श्रयति ददातीत्यर्थः, तथा (अस्य शत्रुः) अस्य विरोधी (आरात्-चित् सन्) दूरादपि सन् (भयताम्) बिभेति (अस्मै) अस्मै राज्ञे (जन्या द्युम्ना निनमन्ताम्) जायन्ते तद्देशे यानि तानि-अन्नानि भोग्यानि वस्तूनि “द्युम्नं द्योततेर्यशो वाऽन्नं वा” [निरु० ५।५] समर्पितानि भवन्ति ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, the ruler in whom we repose our faith with admiration and who assures our fulfilment in all we want and aspire for, is great and all powerful. His enemies, even though they be far off cower with fear and flee, and to him all the wealth and powers born and produced in the land submit in reverence and loyalty.
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा आपल्या प्रजेसाठी आवश्यक निर्वाहाच्या वस्तूंचा प्रबंध करतो तोच प्रशंसा करण्यायोग्य असतो व विरोधी शत्रू इत्यादींना ज्याचे दुरूनच भय वाटते तो राष्ट्राच्या भोगसंपत्तीचा अधिकारी बनतो. ॥६॥
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