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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 49/ मन्त्र 11
    ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा दे॒वाँ इन्द्रो॑ विव्ये॒ नॄन्प्र च्यौ॒त्नेन॑ म॒घवा॑ स॒त्यरा॑धाः । विश्वेत्ता ते॑ हरिवः शचीवो॒ऽभि तु॒रास॑: स्वयशो गृणन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । दे॒वान् । इन्द्रः॑ । वि॒व्ये॒ । नॄन् । प्र । च्यौ॒त्नेन॑ । म॒घऽवा॑ । स॒त्यऽरा॑धाः । विश्वा॑ । इत् । ता । ते॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । श॒ची॒ऽवः॒ । अ॒भि । तु॒रासः॑ । स्व॒ऽय॒शः॒ । गृ॒ण॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा देवाँ इन्द्रो विव्ये नॄन्प्र च्यौत्नेन मघवा सत्यराधाः । विश्वेत्ता ते हरिवः शचीवोऽभि तुरास: स्वयशो गृणन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । देवान् । इन्द्रः । विव्ये । नॄन् । प्र । च्यौत्नेन । मघऽवा । सत्यऽराधाः । विश्वा । इत् । ता । ते । हरिऽवः । शचीऽवः । अभि । तुरासः । स्वऽयशः । गृणन्ति ॥ १०.४९.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 49; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एव मघवा सत्यराधाः-इन्द्रः) इस प्रकार गुणयुक्त सृष्टियज्ञ का कर्त्ता नित्यधनवान् मोक्षरूपस्थिर धनवान् मोक्ष का दाता परमात्मा (नॄन् देवान्) मुमुक्षु विद्वानों को (च्यौत्नेन) शरीरबन्धन को च्युत करनेवाले बल से (प्र विव्ये) प्रकृष्टरूप से अपनाता है (हरिवः शचीवः स्वयशः) हे दुःखहरण करनेवाले, दया और प्रसाद जिसके हैं, ऐसे हे कर्मवाले तथा स्वाधार यशवाले परमात्मन् !  (ते ता विश्वा तुरासः-अभि गृणन्ति) तेरे उन सब कार्यों को संयमी संसारसागर को तरनेवाले निरन्तर तेरी स्तुति करते हैं ॥११॥

    भावार्थ

    परमात्मा स्वाधार यशवाला है, मोक्षरूप धन का स्वामी है, मुमुक्षु उपासकों को अपनाता है, उन्हें मोक्ष प्रदान करता है। उसके दयाप्रसाद मानव के लिए भारी हितकर हैं। संयमी जन संसारसागर से तरने के लिए उसकी स्तुति करते हैं ॥११॥

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    विषय

    प्रभु के अद्भुत कर्म।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) वह ऐश्वर्यवान्, इन सब में भी अपना ऐश्वर्य बल प्रदान करने वाला आत्मा, (मघवा) श्रेष्ठ वीर्य से सम्पन्न, (सत्य राधाः) सत्य बल से वश करने वाला (च्यौत्नेन) देह में क्षरणशील, प्रावाहिक बल से (नॄन्) ज्ञान रसको प्राप्त कराने वाले (देवान्) अर्थों के प्रकाशक इन्द्रियगण वा प्राणों को (प्र विव्ये एव) बड़ी उत्तमता से प्रकाशित करता, रक्षा करता और जाल में बांधता और चलाता है, हे (हरिवः) इन्द्रिय रूप अश्वों के स्वामिन् ! हे (शचीवः) शक्ति और वाणी के स्वामिन् ! उनसे ही (ते ता विश्वा इत्) तेरे वे नाना प्रकार के समस्त कर्म होजाते हैं। और (तुरासः) ये वेगसे जाने वाले अश्व, आदि पशु और ये श्येनादि पक्षी एवं चक्षुः आदि इन्द्रिय गण और सूर्यादि लोक सभी (ते स्वयशः अभि गृणन्ति) तेरा ही यश कहते हैं। इसी प्रकार यह सूक्त राजा, गुरु और प्रभु-परक भी लगता है। इत्यष्टमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्र वैकुण्ठ ऋषिः। देवता—वैकुण्ठः। छन्द:- १ आर्ची भुरिग् जगती। ३, ९ विराड् जगती। ४ जगती। ५, ६, ८ निचृज्जगती। ७ आर्ची स्वराड् जगती। १० पादनिचृज्जगती। २ विराट् त्रिष्टुप्। ११ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    च्यावक बल

    पदार्थ

    [१] (एवा) = गत मन्त्र में वर्णित दूध व जल के उत्पादन के द्वारा (इन्द्रः) = वह सर्वशक्तिमान् (मघवा) = ऐश्वर्यशाली (सत्यराधाः) = सदा सत्य को सफल बनानेवाले प्रभु (देवान् नृन्) = देववृत्तिवाले मनुष्यों को (च्यौत्नेन) = शत्रुओं को स्वस्थान से च्युत करनेवाले बल से (प्र विव्ये) = प्रकर्षेण कान्तिमय करते हैं अथवा प्राप्त होते हैं [नी - गति - कान्ति] । प्रभु के बनाये हुए इन दूध व जल के प्रयोग से हमें वह शक्ति प्राप्त होती है जिससे कि हम आन्तर शत्रु कामादि का तो पराजय करते ही हैं, बाह्य शत्रुओं को भी हम जीत पाते हैं । 'दूध व जल' सोम हैं, ये हमें सौम्य स्वभाव का बनाते हैं। हम उत्तेजना से दूर होकर वासना से ऊपर उठते हैं । [२] हे (हरिवः) = दुःखों के हरण करनेवाले ज्ञान से युक्त प्रभो ! (शचीवः) = शक्ति सम्पन्न प्रभो ! (ते) = आपके (त्वा विश्वा) = उन सब कर्मों को तथा (स्वयशः) = आपके यश को (तुरासः) = कर्मों में त्वरा से प्रवृत्त होनेवाले लोग [त्वर संभ्रमे] अथवा काम-क्रोधादि शत्रुओं का संहार करनेवाले लोग [तुर्वी हिंसायाम्] अभिगृणन्ति = दोनों ओर, अर्थात् दिन के प्रारम्भ में भी तथा दिन की समाप्ति पर भी स्तुत करते हैं । आपकी सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमत्ता का तो वे गायन करते ही हैं, आपके यशस्वी कार्यों का भी स्तवन करते हुए वे वासनाओं से ऊपर उठते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - दूध व जल के प्रयोग से हमें वह च्यौल बल प्राप्त होता है जो कि हमें शत्रुओं के संहार के लिये समर्थ करता है । सूक्त के प्रारम्भ में कहा है कि प्रभु उत्कृष्ट वसुओं को प्राप्त कराते हैं, [१] देव प्रभु का धारण करते हैं और इसी से देव बनते हैं, [२] प्रभु हमारे लोभ व काम को नष्ट करते हैं, [३] सन्तोष, शान्ति व प्रेम को देते हैं, [४] हमारी परदोषान्वेषण की वृत्ति को तथा मद-मोह को नष्ट कर देते हैं, [५] प्रभु-भक्त न अन्याय से धन कमाता है और न उसका विलास में व्यय करता है। [६] प्रभु ही सूर्यादि देवों की दीप्ति के स्रोत हैं, [७] प्रभु-भक्त इन्द्रियों को त्वरा से वश करता है, यत्नशील होता है और अतएव सहस्वाला बनता है, [८] प्रभु ही हमें नाड़ीचक्र में रुधिर के ठीक अभिसरण से शरीर व मानस स्वास्थ्य प्राप्त कराते हैं, [९] जीव की उन्नति के लिये प्रभु ने गौवों के ऊधस् में स्पृहणीय दूध को धारण किया है और नदियों में जल को स्थापित किया है, [१०] इनके प्रयोग से हमें वह बल प्राप्त होता है जिससे कि हम अन्तः व बाह्य शत्रुओं को समाप्त कर पाते हैं, [११] इस बल की प्राप्ति के लिये हम इन्द्र का ही स्तवन करें-

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एव मघवा सत्यराधाः-इन्द्रः) एवङ्गुणविशिष्टः सृष्टियज्ञवान् स्थिरधनवान् मोक्षरूपस्थिरधनवान् मोक्षस्य दाता खलु परमात्मा (नॄन् देवान्) मुमुक्षून् “नरो ह वै देवविशः” [जै० १।८९] विदुः (च्यौत्नेन) शरीरबन्धनच्यावनेन स्वबलेन “च्यौत्नं बलनाम” [नि० २।९] (प्र विव्ये) प्रकर्षेण संवृणोति-आत्मीयान् करोति “विव्ये संवृणोति” [ऋ० १।१७६।६ दयानन्दः] “व्येञ् संवरणे” [भ्वादिः] “आत्मनेपदि लिटि प्रथमपुरुषैकवचने रूपम्” प्रत्यक्षदृष्ट्योच्यते (हरिवः शचीवः स्वयशः) दुःखहर्तारौ दयाप्रसादौ यस्य तद्वन् दयाप्रसादवन् ! कर्मवन् ! अनपेक्षितान्याधार ! स्वापेक्षितं यशं यस्य तद्वन् ! स्वाधारयशोवन् ! परमात्मन् ! (ते ता विश्वा तुरासः-अभि गृणन्ति) तव तानि सर्वाणि कर्माणि संयमिनः संसारसागरं तरन्तः “तुर इति यमनाम तरतेः” [निरु० १२।१६] अभिष्टुवन्ति ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thus does Indra, lord of glory and protector of Truth and Law, impel and inspire natural and human forces of generous and positive action with energy. As such, all men of action and excellence over the world exalt and adore you, O lord of radiant presence, omnipotence and innate excellence, and they feel blest in themselves.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा स्वाधार यशवान आहे. मोक्षरूपी धनाचा स्वामी आहे. मुमुक्षू उपासकांचा स्वीकार करतो. त्यांना मोक्ष प्रदान करतो. त्याच्या दयेचा प्रसाद मानवासाठी अत्यंत हितकारी आहे. संयमी लोक संसार सागरातून तरून जाण्यासाठी त्याची स्तुती करतात. ॥११॥

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