ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 49/ मन्त्र 3
ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः
देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
अ॒हमत्कं॑ क॒वये॑ शिश्नथं॒ हथै॑र॒हं कुत्स॑मावमा॒भिरू॒तिभि॑: । अ॒हं शुष्ण॑स्य॒ श्नथि॑ता॒ वध॑र्यमं॒ न यो र॒र आर्यं॒ नाम॒ दस्य॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । अत्क॑म् । क॒वये॑ । शि॒श्न॒थ॒म् । हथैः॑ । अ॒हम् । कुत्स॑म् । आ॒व॒म् । आ॒भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒हम् । शुष्ण॑स्य । श्नथि॑ता । वधः॑ । यम॑म् । न । यः । र॒रे । आर्य॑म् । नाम॑ । दस्य॑वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहमत्कं कवये शिश्नथं हथैरहं कुत्समावमाभिरूतिभि: । अहं शुष्णस्य श्नथिता वधर्यमं न यो रर आर्यं नाम दस्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । अत्कम् । कवये । शिश्नथम् । हथैः । अहम् । कुत्सम् । आवम् । आभिः । ऊतिऽभिः । अहम् । शुष्णस्य । श्नथिता । वधः । यमम् । न । यः । ररे । आर्यम् । नाम । दस्यवे ॥ १०.४९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 49; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अहं कवये-अत्कं शिश्नथम्) मैं परमात्मा मेधावी स्तुति करनेवाले के लिए, अन्तःस्थल को खा जानेवाले व्यसन को शिथिल करता हूँ-नष्ट करता हूँ (अहम्) मैं परमात्मा (आभिः-ऊतिभिः) इन रक्षणप्रवृत्तियों द्वारा (कुत्सं हथैः-आवम्) स्तुतिकर्त्ता को घातक दुष्कर्मों से बचाता हूँ (अहम्) मैं परमात्मा (शुष्णस्य श्नथिता) शोषक शोक का नाशक हूँ, (दस्यवे वधः यमम्) दुष्टजन के लिए वधक-प्रहारक शस्त्र को देता हूँ (यः-आर्यं नाम न ररे) जो आर्य-मुझ श्रेष्ठ परमात्मा के लिए स्तुतिवचन नहीं देता है ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा स्तुति करनेवाले के व्यसन को शिथिल करता है-नष्ट करता है और अपनी रक्षणशक्तियों द्वारा दुष्कर्मों से बचाता है, शोक को नष्ट करता है। दुष्ट को दण्डप्रहार करता है, जो कि उसकी स्तुति नहीं करता है ॥३॥
विषय
अज्ञान-नाशक, सर्वरक्षक, दुष्टदण्डक, सज्जनपालक प्रभु।
भावार्थ
(अहम्) मैं (कवये) विद्वान् जन के (अत्कं) आच्छादक अज्ञान आवरण को (हथैः शिश्नथम्) उसके नाशक साधन रूप ज्ञानों से शिथिल करता हूँ। और (आभिः ऊतिभिः) इन नाना प्रकार की रक्षाकारिणी, ज्ञानदात्री, स्नेहमया प्रवृत्तियों से (कुत्सम्) वेदमन्त्रों और स्तुतियों के अभ्यासी जन को (आवम्) रक्षा करता हूं। (अहं) मैं (शुष्णस्य) शोषण करने वाले दुष्ट स्वभाव को (श्नथिता) शिथिल करता हूं। और (वधः) वधकारी हिंसादि स्वभाव को (यमम्) रोकता हूं, अहिंसा का पालन करता हूं। मैं वह हूं (यः) जो (दस्यवे) नाशकारी दुष्टजन को कभी (आर्यं नाम न ररे) आर्य श्रेष्ठ नाम वा यश प्रदान नहीं करता अथवा, मैं श्रेष्ठ पुरुष को दुष्ट के हाथ में नहीं देता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इन्द्र वैकुण्ठ ऋषिः। देवता—वैकुण्ठः। छन्द:- १ आर्ची भुरिग् जगती। ३, ९ विराड् जगती। ४ जगती। ५, ६, ८ निचृज्जगती। ७ आर्ची स्वराड् जगती। १० पादनिचृज्जगती। २ विराट् त्रिष्टुप्। ११ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अत्क व शुष्ण का संहार
पदार्थ
[१] 'अत्क' शब्द का अर्थ 'आच्छादक' है। आच्छादकता के कारण ही 'वस्त्र व कवच' अत्क कहलाता है। ‘लोभ' भी मनुष्य को ढक लेता है सो यह भी ' अत्क' है । जब यह मनुष्य को ढक लेता है तो बुद्धि पर परदा-सा पड़ जाता है और मनुष्य चीज़ को ठीक रूप में नहीं देखता । प्रभु (कवये) = कहते हैं कि (अहम्) = मैं (अत्कम्) = इस बुद्धि के आच्छादक लोभ को (हथैः) = हनन- साधनों से, हनन की साधनभूत क्रियाओं से (शिश्नथम्) = हिंसित करता हूँ । इसके हिंसित होने पर ही मनुष्य वस्तु को ठीक रूप में देखनेवाला होता है, यह ठीक रूप में देखनेवाला ही 'कवि' है । प्रभु कहते हैं कि मैं कवये इस क्रान्तदर्शी पुरुष के लिये ही इस (अत्कम्) = आच्छादक लोभ को नष्ट करता हूँ। [२] और (आभिः ऊतिभिः) = इन लोभादि की विनाश रूप रक्षणात्मक क्रियाओं से (कुत्सम्) = [कुत्सयते= one who condemns] बुराइयों की निन्दा करनेवाले पुरुष को (आवम्) = सुरक्षित करता हूँ। बुराइयों की निन्दा करने के कारण यह उनके प्रति झुकाववाला नहीं होता । [३] (अहम्) = मैं ही (शुष्णस्य) = हृदय का शोषण करनेवाले कामासुर का (श्नथिता) = हिंसन करनेवाला होता हूँ और (वध:) = इसके नाश के साधनभूत वज्र को (यमम्) = [नियमितवान् अस्मि सा० ] हाथ में ग्रहण करता हूँ और इस प्रकार (यः) = जो भी आर्यं नाम आर्य पुरुष है, उसको (दस्यवे दस्यु) = के लिये (न ररे) = नहीं दे देता । 'अत्क-शुष्ण' आदि असुर हैं। इनके वध के द्वारा प्रभु आर्य पुरुष का रक्षण करते हैं। राजा ने भी राष्ट्र में यही करना होता है कि वह दस्युओं के नाश के द्वारा आर्यों का रक्षण करे।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमारे लोभ को नष्ट करके हमें कवि व ज्ञानी बनाते हैं। काम को नष्ट करके वे हमें आर्य बनाते हैं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अहं कवये-अत्कं शिश्नथम्) अहं परमात्मा मेधाविने स्तोत्रे स्तुतिकर्त्रे खलु तदत्तुं शीलं व्यसनं शिथिलं करोमि नाशयामि “अत्कैः-अत्तुमर्हैः” [ऋ० २।३५।१४ दयानन्दः] “शिश्नथत् शिथिलीकरोति” [ऋ० ४।३०।१० दयानन्दः] “श्नथति वधकर्मा” [निघ० २।१९] (अहम्) अहं परमात्मा (आभिः-ऊतिभिः) एताभिरेव रक्षणप्रवृत्तिभिः (कुत्सं हथैः-आवम्) स्तुतिकर्त्तारं घातकेभ्यो दुष्कर्मभ्यः ‘हथैः हथेभ्यः, विभक्तिव्यत्ययेन, अत्र हन् धातोः-क्थन् [उणादि० २।२] ये घ्नन्ति ते हथास्तेभ्यो हथेभ्यः’ रक्षामि (अहम्) अहं परमात्मा (शुष्णस्य श्नथिता) शोषकस्य शोकस्य नाशकोऽस्मि (दस्यवे वधः-यमम्) दुष्टजनाय वधस्-वधकं शस्त्रं प्रहारं प्रयच्छामि (यः-आर्यं नाम न ररे) यो खलु-आर्याय ‘विभक्तिव्यत्ययेन’ मह्यं परमात्मने स्तुतिवचनं न ददाति “नाम स्तुतिसाधनं शब्दमात्रम्” [ऋ० ४।१।१६ दयानन्दः] “रा दाने” [अदादिः] ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I pierce and dispel the darkness for the visionary seer, giving him the break-through and the light with radiations of illuminations and revelation. I protect the sage with these modes of protection and advancement. I, dispeller and destroyer of drought and want, wield the thunderbolt for the negationist and the destroyer whom I do not recognise by the name of a creative positivist.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा स्तुती करणाऱ्याचे व्यसन शिथिल करतो. नष्ट करतो व आपल्या रक्षणशक्तीद्वारे दुष्कर्मापासून वाचवितो. शोक नष्ट करतो. जो त्याची स्तुती करत नाही, अशा दुष्टांवर दंडप्रहार करतो. ॥३॥
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