ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 49/ मन्त्र 9
ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः
देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
अ॒हं स॒प्त स्र॒वतो॑ धारयं॒ वृषा॑ द्रवि॒त्न्व॑: पृथि॒व्यां सी॒रा अधि॑ । अ॒हमर्णां॑सि॒ वि ति॑रामि सु॒क्रतु॑र्यु॒धा वि॑दं॒ मन॑वे गा॒तुमि॒ष्टये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । स॒प्त । स्र॒वतः॑ । धा॒र॒य॒म् । वृषा॑ । द्र॒वि॒त्न्वः॑ । पृ॒थि॒व्याम् । सी॒राः । अधि॑ । अ॒हम् । अर्णां॑सि । वि । ति॒रा॒मि॒ । सु॒ऽक्रतुः॑ । यु॒धा । वि॒द॒म् । मन॑वे । गा॒तुम् । इ॒ष्टये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं सप्त स्रवतो धारयं वृषा द्रवित्न्व: पृथिव्यां सीरा अधि । अहमर्णांसि वि तिरामि सुक्रतुर्युधा विदं मनवे गातुमिष्टये ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । सप्त । स्रवतः । धारयम् । वृषा । द्रवित्न्वः । पृथिव्याम् । सीराः । अधि । अहम् । अर्णांसि । वि । तिरामि । सुऽक्रतुः । युधा । विदम् । मनवे । गातुम् । इष्टये ॥ १०.४९.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 49; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अहं वृषा) मैं सुखवर्षक परमात्मा (सप्त स्रवतः-द्रवित्न्वः सीराः) सात स्रवणशील प्राणों को तथा रक्त को वहन करती नाड़ियों को (पृथिव्याम्-अधि धारयम्) शरीर में अधिष्ठित करता हूँ (अहं सुक्रतुः) मैं सुकुशल कर्त्ता परमात्मा (मनवे) मनुष्य के लिए (अर्णांसि वि तिरामि-इष्टये) विविध विषयरसों को कामनापूर्ति के लिए देता हूँ (युधा विदम्) अपनी विभुगति से प्राप्त कराता हूँ ॥९॥
भावार्थ
परमात्मा शरीर के अन्दर प्राणों का संचार करता है, उस रक्त को नाड़ियों में बहाता है, इन्द्रियों की कामना के लिये विषयरसों को भी प्रदान करता है। ऐसे उस परमात्मा की उपासना करनी चाहिए ॥९॥
विषय
प्रभु का देह में आत्मा के तुल्य अद्भुत कार्य।
भावार्थ
(अहम्) मैं (सप्त स्रवतः) सात बहते प्राणगण को (वृषा) बलवान् होकर (धारयम्) धारण करूं। उन पर वश करूं, और (पृथिव्यां) पृथिवी पर (द्रवित्न्वः) बहती (सीराः) नदियों के तुल्य, पार्थिव देह में बहती रक्तनाड़ियों को भी (धारयम्) धारण करूं। (अहम्) मैं आत्मा (सु-क्रतुः) उत्तम क्रियावान् होकर जैसे शरीर में (अर्णांसि वि तिरामि) रक्त रूप जलों को उचित रूप से पुष्ट वा प्रदान करता हूं उसी प्रकार जन समाज में (अर्णांसि वि तिरामि) नाना धनों को बढ़ाऊं और वितीर्ण करूं। और (इष्टये) यज्ञ वा इच्छानुसार फल प्राप्त करने के लिये (मनवे) मनुष्य को मैं (युधा) ताड़नापूर्वक दुर्गुणों को दूर करके (विदं गातुम् वि तिरामि) ज्ञानमय मार्ग का उपदेश प्रदान करूं।
टिप्पणी
लालने बहवो दोषास्ताडने बहवो गुणाः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इन्द्र वैकुण्ठ ऋषिः। देवता—वैकुण्ठः। छन्द:- १ आर्ची भुरिग् जगती। ३, ९ विराड् जगती। ४ जगती। ५, ६, ८ निचृज्जगती। ७ आर्ची स्वराड् जगती। १० पादनिचृज्जगती। २ विराट् त्रिष्टुप्। ११ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सप्त नाड़ी चक्र का स्वास्थ्य शरीर व मानस स्वास्थ्य
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार शक्ति को प्राप्त कराके प्रभु ही हमें स्वस्थ बनाते हैं । प्रस्तुत मन्त्र में उस स्वास्थ्य का कुछ विस्तार से उल्लेख करते हैं। शरीर में नाड़ियों के अन्दर रुधिर - प्रवाह के ठीक से होने पर ही स्वास्थ्य का निर्भर है। वह शरीर में इन रुधिर-वाहिनी नाड़ियों का जाल- सा बिछा हुआ है। उन में सात नाड़ियाँ प्रमुख हैं। वे ही अन्यत्र 'गंगा-यमुना-सरस्वती' आदि नदियों के रूप में चित्रित हुई हैं। इन नाड़ियों के इन वैदिक नामों को ही देखकर बाह्य नदियों को भी प्रारम्भिक आर्यों ने ये नाम दे दिये। वेद में वस्तुतः इन बाह्य नदियों का वर्णन हो, सो बात नहीं है। प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं ही (वृषा) = सब प्रकार के सुखों का वर्षण करनेवाला (सप्त) = इन सात (स्त्रवतः) = रुधिर के बहाववाली (द्रविल्वः) = निरन्तर द्रवण करती हुई, (पृथिव्याम्) = इस शरीर रूप पृथिवी में (सीराः) = सरणशील इन नाड़ीरूप नदियों को (अधि-धारयम्) = अधिष्ठातृरूपेण धारण करता हूँ और (अहम्) = मैं ही (सुक्रतुः) = उत्तम क्रतुओंवाला, उत्तम क्रियाओंवाला होता हुआ इन नाड़ियों में (अर्णांसि) = रुधिररूप जलों को (वितिरामि) = देता हूँ । हृदय देश से इस रुधिर रूप जल का प्रसार होता है। शरीर में सर्वत्र विचरण करके यह फिर उसी हृदयदेश में पहुँचता है। उसी प्रकार, जैसे कि नदियों का जल समुद्र में जाकर फिर से वाष्पीभूत होकर बादलों के रूप में आता है और पर्वतों पर वृष्टि होकर फिर से नदियों में प्रवाहित होने लगता है। प्रभु का यह अर्थ कितना महान् व अद्भुत है। इसी प्रकार नाड़ियों में रुधिर प्रवाह की बात है । इस रुधिर के ठीक अभिसरण से शरीर का स्वास्थ्य ठीक रहता है। [२] शरीर के स्वास्थ्य के साथ, मानस- स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिये, प्रभु कहते हैं कि मैं ही (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिये (इष्टये) = इष्ट व लक्ष्यभूत स्थान की प्राप्ति के लिये (युधा) = काम-क्रोधादि वासनाओं से युद्ध के द्वारा (गातुम्) = मार्ग को (विदम्) = प्राप्त कराता हूँ। काम-क्रोधादि ही तो हमें मार्ग-भ्रष्ट करके लक्ष्य प्राप्ति से वञ्चित कर देते हैं । इनके साथ युद्ध में प्रभु हमारे सारथि होते हैं । उस प्रभु के साहाय्य से ही हम इन्हें पराजित कर पाते हैं । इनके पराजित होने पर, मार्ग से विचलित न होते हुए हम लक्ष्य स्थान पर पहुँचनेवाले बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु, नाड़ियों में रुधिर के ठीक प्रकार से अभिसरण की व्यवस्था करके हमें शारीरिक स्वास्थ्य देते हैं और काम-क्रोधादि को पराजित करके हमें मानस - स्वास्थ्य प्राप्त कराते हैं। स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मनवाले बनकर हम मार्ग पर आगे बढ़ते हैं और लक्ष्य पर पहुँचनेवाले होते हैं।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अहं वृषा) अहं सुखवर्षकः परमात्मा (सप्त स्रवतः-द्रवित्न्वः सीराः पृथिव्याम्-अधि धारयम्) सृप्तान् स्रवणशीलान् प्राणान् तथा द्रवन्ती-रक्तं वहन्तीर्नाडीः “सीराः-नाडीः” [ऋ० १।१७४।९ दयानन्दः] शरीरे “यच्छरीरं पुरुषस्य सा पृथिवी” [ऐ० आ० ४।३।३] अधिधारयामि (अहं सुक्रतुः) अहं सुकुशलः कर्त्ता परमात्मा (मनवे) मनुष्याय (अर्णांसि वितिरामि-इष्टये) विविधान् विषयरसान् प्रयच्छामि, इन्द्रियाणामाकाङ्क्षायै (युधा विदम्) स्वकीयविभुगत्या “युध्यति गतिकर्मा” [निघ० २।२४] वेदयामि प्रापयामि ‘अन्तर्गतो णिजर्थः’ ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Infinite, generous and omnipotent, I cause the seven streams to flow and the seven seas to roll on earth, and I cause the seven streams of blood and nerve to flow in the body. Master of holy action, I provide for the river’s flow, and with the dynamics of nature and society, I provide the paths of progress for humanity on way to fulfilment.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा शरीरात प्राणांचा संचार करतो. रस रक्त नाड्यांमध्ये वहन करवितो. इंद्रियांच्या कामनेसाठी विषयरसही प्रदान करतो. त्यासाठी त्या परमात्म्याची उपासना केली पाहिजे. ॥९॥
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