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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
    ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मां धु॒रिन्द्रं॒ नाम॑ दे॒वता॑ दि॒वश्च॒ ग्मश्चा॒पां च॑ ज॒न्तव॑: । अ॒हं हरी॒ वृष॑णा॒ विव्र॑ता र॒घू अ॒हं वज्रं॒ शव॑से धृ॒ष्ण्वा द॑दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    माम् । धुः॒ । इन्द्र॑म् । नाम॑ । दे॒वता॑ । दि॒वः । च॒ । ग्मः । च॒ । अ॒पाम् । च॒ । ज॒न्तवः॑ । अ॒हम् । हरी॒ इति॑ । वृष॑णा । विऽव्र॑ता । र॒घू इति॑ । अ॒हम् । वज्र॑म् । शव॑से । धृ॒ष्णु । आ । द॒दे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मां धुरिन्द्रं नाम देवता दिवश्च ग्मश्चापां च जन्तव: । अहं हरी वृषणा विव्रता रघू अहं वज्रं शवसे धृष्ण्वा ददे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    माम् । धुः । इन्द्रम् । नाम । देवता । दिवः । च । ग्मः । च । अपाम् । च । जन्तवः । अहम् । हरी इति । वृषणा । विऽव्रता । रघू इति । अहम् । वज्रम् । शवसे । धृष्णु । आ । ददे ॥ १०.४९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (दिवः-ग्मः-अपां च जन्तवः) द्युलोक के पृथिवीलोक के अन्तरिक्षलोक के जाननेवाले मनुष्य (मां देवताम्-इन्द्रं नाम धुः) मुझ परमात्मा देवता को धारण करते हैं (अहं वृषणा हरी विव्रता रघू) मैं परमात्मा सुखवर्षक विविध-कर्मसम्पादक शीघ्रप्रभाववाले दुःखहारक और सुखाहारक अपने दया और प्रसाद को प्रेरित करता हूँ (अहम्) मैं परमात्मा (शवसे धृष्णु वज्रम्-आददे) जगत् संचालन बल के लिए धर्षक ओज को आत्मबल को ग्रहण कर रहा हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    द्युलोक अन्तरिक्षलोक और पृथिवीलोक को जाननेवाले मनुष्य अर्थात् इन तीनों को जानकर इनके रचयिता परमात्मा को अपने अन्दर धारण करते हैं। परमात्मा इन्हें अपने दुःख नष्ट करनेवाले व सुख प्राप्त करानेवाले दयाप्रसाद को प्रदान करता है, जो कि अपने बल से जगत् का संचालन करता है ॥२॥

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    विषय

    सर्वव्यापक, सर्ववशकर्त्ता प्रभु।

    भावार्थ

    (मां इन्द्रं) मुझ ऐश्वर्यवान् तेजस्वी को ही (दिवः ग्मः च अपां च) सूर्य पृथिवी, जल वा अन्तरिक्ष इन स्थानों के समस्त (जन्तवः) उत्पन्न हुए प्राणी और लोक-वर्ग (देवता नाम धुः) देव, सर्वशक्तिप्रद, उपास्य रूप से धारण करते हैं। (अहं) मैं ही (वृषणा) बलवान्, जलवर्षी, मेघ और वायुवत् (वि-व्रता) विविध कर्म करने वाले, (रघू) बलवान् वेगवान् (हरी) स्त्री-पुरुष दो शक्तियों को, अश्वों के तुल्य (आ ददे) वश करता हूँ। और (शवसे) बल कर्म करने के लिये (अहम्) मैं (धृष्णु) धर्षक, शत्रुपराजयकारी (वज्रं) वज्र, खड्गवत् बल-वीर्य को धारण करता हूँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्र वैकुण्ठ ऋषिः। देवता—वैकुण्ठः। छन्द:- १ आर्ची भुरिग् जगती। ३, ९ विराड् जगती। ४ जगती। ५, ६, ८ निचृज्जगती। ७ आर्ची स्वराड् जगती। १० पादनिचृज्जगती। २ विराट् त्रिष्टुप्। ११ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु का धारण

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि - (इन्द्रं नाम) = परमैश्वर्यवाला व परम शक्तिमान् [इदि परमैश्वर्ये, इन्द्र to be powerful] होने से 'इन्द्र' नामवाले (माम्) = मुझको (देवताः धुः) = देवलोग धारण करते हैं । वस्तुतः मुझे धारण करने के कारण ही वे देव बनते हैं। देव तो प्रभु का सदा स्मरण करते ही हैं, देवों के अतिरिक्त (दिवः च) द्युलोक के भी, (ग्मः च) = इस पृथ्वीलोक के भी (च) = तथा (अपाम्) = अन्तरिक्षलोक के (जन्तवः) = प्राणी भी मुझे धारण करते हैं। कष्ट आने पर सभी प्रभु का स्मरण करते हैं। [२] (अहम्) = मैं ही (हरी) = ज्ञान व कर्म के द्वारा दुःखों को दूर करने के कारणभूत [हरणात् हरेः ] इन्द्रियाश्वों को, जो (वृषणा) = शक्तिशाली हैं, (विव्रता) = विविध व्रतोंवाले हैं, प्रत्येक इन्द्रिय का अपना अलग-अलग कार्य है, (रघू) = जो लघुगतिवाले हैं, तीव्रगति से अपना-अपना कार्य करनेवाले हैं, इस प्रकार के इन्द्रियाश्वों को (आददे) = स्वीकार करता हूँ । प्रभु ही हमें इस प्रकार के इन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले हैं । [३] प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं ही (धृष्णु) = कामादि शत्रुओं का धर्षण करनेवाले (वज्रम्) = क्रियाशीलता रूप वज्र को (शवसे) = शक्ति के लिये (आददे) = स्वीकार करता हूँ। प्रभु हमें यह क्रियाशीलता रूप वज्र प्राप्त कराते हैं, इससे हम जहाँ शत्रुओं का धर्षण करने में समर्थ होते हैं वहाँ अपनी शक्ति का वर्धन करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का धारण करके ही देव देव बने हैं । दुःख में सभी प्रभु का धारण करनेवाले बनते हैं। प्रभु ही हमें उत्तम इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराते हैं । और क्रियाशीलता के द्वारा वे हमारी शक्ति का वर्धन करते हैं और हमें इस योग्य बनाते हैं कि हम कामादि शत्रुओं को कुचल सकें।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (दिवः-ग्मः-अपां च जन्तवः) द्युलोकस्य पृथिव्याः-अन्तरिक्षलोकस्य ज्ञातारो जन्तवः-मनुष्याः “मनुष्या वै जन्तवः” [श० ७।३।१।३२] (मां देवताम्-इन्द्रं नाम धुः) मां परमात्मानं देवतां नाम धारयन्ति (अहं वृषणा हरी विव्रता रघू) अहं परमात्मा सुखवर्षकौ दयाप्रसादौ विविधकर्मसम्पादकौ शीघ्रगामिनौ धारयामि (अहम्) अहं परमात्मा (शवसे धृष्णु वज्रम्-आददे) जगच्चालनबलाय धर्षकं वज्रमोज आत्मबलमाददे-गृह्णामि ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Living beings of land, waters, heaven and all spaces and all that move, they accept and adore me in faith as Indra, the omnipotent sustained I keep the twofold dynamic forces of high velocity constantly on the move in the cosmic process of evolution, and I, power supreme, wield the thunderbolt as my sceptre of omnipotent justice and dispensation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    द्युलोक, अंतरिक्षलोक व पृथ्वीलोकाला जाणणारी माणसे अर्थात् या तिन्हींना जाणून यांचा रचनाकार असलेल्या परमात्म्याला आपल्यामध्ये धारण करतात. परमात्मा त्यांना आपले दु:ख नष्ट करणारा व सुख प्राप्त करविणारा दयाप्रसाद देतो. तो आपल्या बलाने जगाचे संचालन करतो. ॥२॥

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