ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 49/ मन्त्र 4
ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः
देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
अ॒हं पि॒तेव॑ वेत॒सूँर॒भिष्ट॑ये॒ तुग्रं॒ कुत्सा॑य॒ स्मदि॑भं च रन्धयम् । अ॒हं भु॑वं॒ यज॑मानस्य रा॒जनि॒ प्र यद्भरे॒ तुज॑ये॒ न प्रि॒याधृषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । पि॒ताऽइ॑व । वे॒त॒सून् । अ॒भिष्ट॑ये । तुग्र॑म् । कुत्सा॑य । स्मत्ऽइ॑भम् । च॒ । र॒न्ध॒य॒म् । अ॒हम् । भु॒व॒म् । यज॑मानस्य । रा॒जनि॑ । प्र । यत् । भ॒रे॒ । तुज॑ये । न । प्रि॒या । आ॒ऽधृषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं पितेव वेतसूँरभिष्टये तुग्रं कुत्साय स्मदिभं च रन्धयम् । अहं भुवं यजमानस्य राजनि प्र यद्भरे तुजये न प्रियाधृषे ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । पिताऽइव । वेतसून् । अभिष्टये । तुग्रम् । कुत्साय । स्मत्ऽइभम् । च । रन्धयम् । अहम् । भुवम् । यजमानस्य । राजनि । प्र । यत् । भरे । तुजये । न । प्रिया । आऽधृषे ॥ १०.४९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 49; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अहम्) मैं परमात्मा (अभिष्टये पिता-इव वेतसून्) पिता के समान जो मुझे चाहता है, उस उपासक के लिए, बेंत के दण्डे के समान उद्दण्ड नास्तिक, भय देनेवालों को तथा (कुत्साय तुग्रं स्मदिभम्) स्तुति करनेवालों के लिए हिंसक, भयंकर हाथी के समान क्रूर पीड़क जन को (रन्धयम्) नष्ट करता हूँ (अहं यजमानस्य राजनि भुवम्) मैं परमात्मा अध्यात्मयाजी के स्वामिपद पर शासकरूप में-रक्षकरूप में स्थित होता हूँ (तुजये-आधृषे) दूसरों को पीड़ित करने के स्वभाववाले के लिए (प्रिया न प्र भरे) सुखवस्तु नहीं देता हूँ ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमात्मा को पिता समान मानकर उसकी उपासना करता है, उसके प्रतिकूल उद्दण्ड जनों को तथा हाथी के समान उन्मत्त क्रूर जन को परमात्मा दण्ड देता है। वह उपासक का रक्षक है। परमात्मा हिंसक स्वभाववाले व्यक्ति को उसकी प्रिय वस्तु नहीं देता है ॥४॥
विषय
प्रभु के पिता के तुल्य कर्त्तव्य। प्रभु का दुष्टों का दमन।
भावार्थ
(अहं) मैं (पिता इव) पिता के समान (अभिष्टये) उत्तम अभिलाषा करने वाले (कुत्साय) बल सम्पादन वा उत्तम स्तुतिशील जन के लिये (वेतसून्) वेतस दण्ड के समान उद्धत वा धन प्राप्त करने वाले और (तुग्रम्) उग्र, हिंसाशील, (स्मदिभम्) उत्तम गजवत् अहंकारी पुरुष को भी (रन्धयम्) वश करता हूं। (अहं यजमानस्य राजनि) मैं यजमान, दानशील, यज्ञार्थी के तेजःप्रकाशक के लिये (भुवम्) हूं। (यत्) जो मैं (तुजये) हिंसाशील (आ धृषे) धर्षणकारी ढीठ पुरुष के लिये (प्रिया न भरे) प्रिय पदार्थों को आहरण नहीं करता अथवा—(तुजये न) पालन योग्य पुत्रवत् शत्रुघर्षक प्रजापालक के लिये ही मैं नाना प्रिय पदार्थ प्राप्त कराता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इन्द्र वैकुण्ठ ऋषिः। देवता—वैकुण्ठः। छन्द:- १ आर्ची भुरिग् जगती। ३, ९ विराड् जगती। ४ जगती। ५, ६, ८ निचृज्जगती। ७ आर्ची स्वराड् जगती। १० पादनिचृज्जगती। २ विराट् त्रिष्टुप्। ११ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सन्तोष शान्ति व प्रेम
पदार्थ
[१] (अहम्) = मैं (पिता इव) = जैसे पिता पुत्र की इष्ट प्राप्ति के लिये यत्न करता है इसी प्रकार (कुत्साय) = वासनाओं का संहार करनेवाले के लिये अभिष्टये इष्ट प्रापण के लिये वेतसून् (तुग्रं स्मदिभं च) = वेतसुओं को, तुग्र को तथा स्मदिभ को (रन्धयम्) = नष्ट करता हूँ, इनको वशीभूत करता हूँ । 'वेद-सू' शब्द का अर्थ है, 'कामना को जन्म देनेवाला' [वी= to dlsire वेत=wish सू=जन्म देना] हमारे में एक इच्छा उत्पन्न होती है, वह पूर्ण होती है तो नयी इच्छा उत्पन्न हो जाती है, यही लोभ है। लोभ में इच्छाओं का अन्त नहीं होता । 'तुग्रम्' शब्द 'तुज हिंसायाम्' से बनकर हिंसक वृत्ति व क्रोध को संकेत करता है । 'स्मदिभ' शब्द 'स्मत् = श्रेष्ठ के लिये इभ-हाथी के समान' इस अर्थ को कहता हुआ उस 'काम-वासना' का सूचक है, जो कि अच्छी से अच्छी वस्तु को खराब कर देती है। हाथी कदली-स्तम्भ को उखाड़ फेंकता है, इसी प्रकार 'काम' श्रेष्ठता को उखाड़नेवाला है। प्रभु इन 'वेतसू, तुग्र व स्मदिभ' को, लोभ, क्रोध व काम को नष्ट करके कुत्स के जीवन को इष्ट की प्राप्तिवाला व सुन्दर बनाते हैं । [२] प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं (यजमानस्य) = यज्ञशील पुरुष के (राजनि) = [राजनार्थम्] दीपन के निमित्त (भुवम्) = होता हूँ (यत्) = जब कि (तुजये न) = पुत्र के लिये पिता की तरह (धृषे) = शत्रुओं के धर्षण के लिये (प्रिया) = प्रिय वस्तुओं को लोभ के विपरीत 'सन्तोष' को, क्रोध के विपरीत 'शान्ति' को और काम के विपरीत 'प्रेम' को (प्रभरे) = उस यजमान में भरता हूँ इस यजमान के जीवन को 'सन्तोष, शान्ति व प्रेम' सुन्दर बनानेवाले होते हैं। इन प्रिय गुणों से उस यजमान का जीवन दीप्त हो उठता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से हमारे जीवन में लोभ का स्थान 'सन्तोष' ग्रहण करे, क्रोध के स्थान में 'शान्ति' हो और काम का स्थान 'प्रेम' ले ले ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अहम्) अहं परमात्मा (अभिष्टये पिता इव वेतसून्) पितृसदृशः-अभीच्छति मां काङ्क्षति यस्तस्मै उपासकाय, ‘वेतससून् सकारलोपश्छान्दसः, वेतसस्य दण्डान्-इव खलूद्दण्डान् नास्तिकान् भयप्रदान् तथा (कुत्साय तुग्रं स्मदिभम् ) स्तुतिकर्त्रे हिंसकं भयङ्करं हस्तिनम्-इव क्रूरं पीडकं जनम् “स्मि धातोर्डतिः प्रत्यय औणादिकः, “भीस्म्योर्हेतुभये” [अष्टा० १।२।६९] “स्मि धातुर्भयप्रदर्शने” (रन्धयम्) रन्धयामि नाशयामि (अहं यजमानस्य राजनि भुवम्) अहं परमात्माऽध्यात्मयाजिनः राजनि स्वामिपदे शासकरूपे स्थितो भवामि (तुजये-आधृषे) हिंसकाय-अन्यानाधर्षयितुं पीडयितुशीलाय (प्रिया न प्रभरे) सुखवस्तूनि न ददामि ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Like a father for the good of the man of creative generosity, I subdue and throw out the obstinate and persistent forces of bruteness, violence and terror. I am for the advancement of the man of yajnic creativity and enlightenment, and I have nothing good for the violent and the bully.
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस परमात्म्याला पित्याप्रमाणे मानून त्याची उपासना करतो तेव्हा त्याच्या प्रतिकूल उद्दंड लोकांना व हत्तीप्रमाणे उन्मत्त क्रूर लोकांना परमात्मा दंड देतो. तो उपासकाचा रक्षक आहे. परमात्मा हिंसक स्वभावाच्या व्यक्तीला त्याची प्रिय वस्तू देत नाही. ॥४॥
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