ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 69/ मन्त्र 11
ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
शश्व॑द॒ग्निर्व॑ध्र्य॒श्वस्य॒ शत्रू॒न्नृभि॑र्जिगाय सु॒तसो॑मवद्भिः । सम॑नं चिददहश्चित्रभा॒नोऽव॒ व्राध॑न्तमभिनद्वृ॒धश्चि॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठशश्व॑त् । अ॒ग्निः । व॒ध्रि॒ऽअ॒श्वस्य॑ । शत्रू॑न् । नृऽभिः॑ । जि॒गा॒य॒ । सु॒तसो॑मवत्ऽभिः । सम॑नम् । चि॒त् । अ॒द॒हः॒ । चि॒त्र॒भा॒नो॒ इति॑ चित्रऽभानो । अव॑ । व्राध॑न्तम् । अ॒भि॒न॒त् । वृ॒धः । चि॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शश्वदग्निर्वध्र्यश्वस्य शत्रून्नृभिर्जिगाय सुतसोमवद्भिः । समनं चिददहश्चित्रभानोऽव व्राधन्तमभिनद्वृधश्चित् ॥
स्वर रहित पद पाठशश्वत् । अग्निः । वध्रिऽअश्वस्य । शत्रून् । नृऽभिः । जिगाय । सुतसोमवत्ऽभिः । समनम् । चित् । अदहः । चित्रभानो इति चित्रऽभानो । अव । व्राधन्तम् । अभिनत् । वृधः । चित् ॥ १०.६९.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 69; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वध्र्यश्वस्य शत्रून्) जितेन्द्रिय मनुष्य के कामादि शत्रुओं को (अग्निः) अग्रणायक परमात्मा (नृभिः-सुतसोमवद्भिः) उपासनारस निष्पादक जीवन्मुक्तों के जैसे दोषों को नष्ट करता है, वैसे (शश्वत्-जिगाय) सदा दबाता है (समनं चित्) सम्यक् प्राणवाले-बलवान् को भी (चित्रभानो) हे चायनीय ज्ञान प्रभाववाले ! (अदहः) नष्ट कर (वृधः-चित्) बढ़े-चढ़े (व्राधन्तम्-अवभिनत्) शक्तिशाली विरोधी को भी नष्ट कर ॥११॥
भावार्थ
परमात्मा जितेन्द्रिय मनुष्य के कामादि दोषों को और अन्य बढ़े-चढ़े विरोधी प्रभावों या दुर्गुणों को नष्ट करता है ॥११॥
विषय
राजा की विनय द्दण्ड की व्यवस्था।
भावार्थ
(वध्र्यश्वस्य) वेगवान् अश्वादि साधनों से सम्पन्न तेजस्वी नायक (सुत-सोमवद्भिः) अभिषिक्त राष्ट्रैश्वर्य से सम्पन्न (नृभिः) नायकों वा शासकों द्वारा (शत्रून् शश्वत् जिगाय) शत्रुओं को निरन्तर जीत लेवे। (समनंचित्) यदि संगत या युक्त हो वा युद्ध हो तो हे (चित्रभानो) अद्भुत तेज वाले ! तू (व्राधन्तं चित्) पीड़ादायक पुरुष को (अदहः) दग्ध कर, भस्म कर और (वृधः चित्) स्वयं वृद्धिशील और शत्रु को काटने वाला होकर (व्राधन्तं चित् अव अभिनत्) पीड़ादायक को भी नीचे गिरा कर उसको भेद उपाय से फोड़ डाल।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुमित्रो वाध्र्यश्वः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ निचृज्जगती। २ विराड् जगती। ३, ७ त्रिष्टुप्। ४, ५, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९, ११ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम॥
विषय
सुतसोमवान्-नरों का सम्पर्क
पदार्थ
[१] (अग्निः) = वह अग्रेणी प्रभु (शश्वत्) = सदा (वध्र्यश्वस्य) = संयम रज्जु से इन्द्रियाश्वों को बाँधनेवाले पुरुष के (शत्रून्) = काम-क्रोधादि शत्रुओं को (सुतसोमवद्भिः) = प्रशस्त उत्पन्न सोमवाले, अर्थात् शरीर में आहार से रस- रुधिरादि क्रम में उत्पन्न सोम को शरीर में ही सुरक्षित रखनेवाले (नृभिः) = माता, पिता व आचार्य आदि उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले पुरुषों से (जिगाय) = पराजित करता है। प्रभु कृपा से इस वध्र्यश्व को उत्तम संयत जीवनवाले माता, पिता व आचार्य का सम्पर्क प्राप्त होता है। इनके सम्पर्क में इस वध्र्श्व को भी संयमी जीवनवाला बनने में सहायता मिलती है । [२] हे चित्रभानो! अद्भुत दीप्तिवाले प्रभो! आप (समनं चित्) =[सं अनम्] अत्यन्त चेष्टायुक्त, अर्थात् अत्यन्त प्रबल भी क्रोधादि के (अदहः) = भस्मसात् कर देते हैं । (वृधः) = अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुए-हुए आप (व्राधन्तं चित्) = बाधक शत्रुओं को (अवाभिनत्) = सुदूर विदीर्ण कर देते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से हमें जितेन्द्रिय माता, पिता व आचार्य प्राप्त होते हैं। उनके शिक्षण से हम भी संयमी जीवनवाले होते हैं और प्रबल भी काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विदारण करने में समर्थ होते हैं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वध्र्यश्वस्य शत्रून्) जितेन्द्रियस्य कामादिशत्रून् (अग्निः) अग्रणायकः परमात्मा (नृभिः सुतसोमवद्भिः) उपासनारस-निष्पादकजीवन्मुक्तानां यथा दोषान्नाशयसि तथा ‘विभक्तिव्यत्ययः, उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारश्च’ (शश्वत् जिगाय) शाश्वतमभिभव (समनं चित्) सम्यक् प्राणवन्तमपि (चित्रभानो) हे चायनीयज्ञानप्रभाववन् ! (अदहः) दग्धीकुरु (वृधः-चित्) प्रवृद्धः सन्नपि (व्राधन्तम्-अवभिनत्) प्रवर्धमानं विरोधिनमपि-अवच्छिन्नं कुरु ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, divine leader of light and life, always wins over the enemies of the self-controlled man of dynamic mind and senses by heroic men who distil the soma with faith and reverence and offer it to Agni in homage. O wondrous lord of light and fire, eliminate conflict wherever it be and, yourself rising in glory, break down violence and destruction when it is raising its head.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा जितेंद्रिय माणसाचे काम इत्यादी दोष व इतर वाढलेला प्रभाव किंवा दुर्गुण नष्ट करतो. ॥११॥
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