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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 79/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अग्निः सौचीको, वैश्वानरो वा, सप्तिर्वा वाजम्भरः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तद्वा॑मृ॒तं रो॑दसी॒ प्र ब्र॑वीमि॒ जाय॑मानो मा॒तरा॒ गर्भो॑ अत्ति । नाहं दे॒वस्य॒ मर्त्य॑श्चिकेता॒ग्निर॒ङ्ग विचे॑ता॒: स प्रचे॑ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । वा॒म् । ऋ॒तम् । रो॒द॒सी॒ इति॑ । प्र । ब्र॒वी॒मि॒ । जाय॑मानः । मा॒तरा॑ । गर्भः॑ । अ॒त्ति॒ । न । अ॒हम् । दे॒वस्य॑ । मर्त्यः॑ । चि॒के॒त॒ । अ॒ग्निः । अ॒ङ्ग । विऽचे॑ताः । सः । प्रऽचे॑ताः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्वामृतं रोदसी प्र ब्रवीमि जायमानो मातरा गर्भो अत्ति । नाहं देवस्य मर्त्यश्चिकेताग्निरङ्ग विचेता: स प्रचेताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । वाम् । ऋतम् । रोदसी इति । प्र । ब्रवीमि । जायमानः । मातरा । गर्भः । अत्ति । न । अहम् । देवस्य । मर्त्यः । चिकेत । अग्निः । अङ्ग । विऽचेताः । सः । प्रऽचेताः ॥ १०.७९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 79; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (रोदसी मातरा) हे पापों के रोध-निरोध निवारण करनेवाले माता-पिताओं ! (वाम्) तुम दोनों के (तत्-ऋतं प्रब्रवीमि) उस सत्य व्यवहार को मैं कहता हूँ, कि (जायमानः-गर्भः-अत्ति) उत्पन्न होनेवाला गर्भरूप बालक तुम दोनों को खाता है, तुम दोनों से आहार ग्रहण करता है, (अहम्-अग्निः-मर्त्यः) मैं शरीर का नेता जीवात्मा (देवस्य न चिकेत) जन्मदाता परमात्मा के स्वरूप को नहीं जानता (अङ्ग विचेताः स प्रचेताः) वह विशेष चेतानेवाला तथा प्रकृष्ट चेतानेवाला है ॥४॥

    भावार्थ

    माता-पिता बालक को अनेक दोषों से बचावें या बचाया करते हैं। बालक जन्म से ही माता-पिता के अङ्गों से बढ़ता है तथा उत्पन्न करनेवाला परमात्मा उसे विशेष सावधान करता है संसार में रहने के लिए तथा प्रकृष्टरूप में प्रबुद्ध करता है मोक्षप्राप्ति के लिए। वह उसे भी नहीं जानता है। उसे जानना और मानना चाहिए, इसी में कल्याण है ॥४॥

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    विषय

    आत्मा का अद्भुत वर्णन। अज्ञेय प्रभु। आत्मा की रहस्यमय गति।

    भावार्थ

    हे (रोदसी) सूर्य और भूमि के सदृश माता पिताओ ! मैं (वाम्) आप दोनों के सम्बन्ध में (तत्) उस (ऋतम्) सत्य तत्व को (प्र ब्रवीमि) बतलाता हूँ कि (जायमानः गर्भः) प्रकट होता हुआ, उत्पन्न होता हुआ गर्भगत बालक (मातरा अत्ति) माता पिता के अंश को ही खाकर बढ़ता है। सच तो यह है कि (अहम् मर्त्यः) मैं मरणधर्मा जीव (देवस्य न चिकेत) उस अन्न वा कर्मफल देने वाले दाता प्रभु के सम्बन्ध में नहीं जानता हूँ। (अंग) हे विद्वान् जनो ! (अग्निः) वही तेजः-स्वरूप, ज्ञानवान्, सब जगत् का प्रकाशक, सब का आदि कारण, सब को पुनः भस्म कर अपने भीतर लीलने वाला प्रभु ही (वि-चेताः) विविध ज्ञानों को जानने वाला और (सः प्र-चेताः) वही सब से उत्कृष्ट ज्ञानवान् है। (३) जिस प्रकार रगड़े जाते दो काष्ठों से आग उत्पन्न होती है और फिर वह काष्ठ को ही खाकर चमकती है उसी प्रकार जीव माता पिता से उत्पन्न होकर शुक्र-शोणित अंश को प्राप्त कर जीवन धरता, और बढ़ता है। पुनः माता के अंशरूप दूध को पीता और फिर बड़ा होकर भी माता-पिता के धन सम्पदा को भोगता वा पृथिवी और सूर्य के अन्न-जल-प्रकाश से जीता है। परन्तु फिर सुख-दुःखादि नाना कर्मफल किस प्रकार भोगता है कैसे माता पिता के शुक्र शोणित में आता है। इत्यादि रहस्यों को यह मरणधर्मा जीव क्या जाने ? इस अदृश्य रहस्य को तो वह प्रभु ही जानता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा सप्तिर्वा वाजम्भरः। अग्निर्देवता॥ छन्द:-१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची- स्वराट् त्रिष्टुप्। ७ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु की अचिन्त्य महिमा

    पदार्थ

    [१] हे (रोदसी) = द्यावापृथिवी में (वाम्) = आपके (तद् ऋतम्) = उस ऋत को (प्रब्रवीमि) = प्रकर्षेण उच्चारण करता हूँ । आपके अन्दर होनेवाली प्रत्येक क्रिया बड़े ऋत के साथ हो रही है । ऋत का अभिप्राय है प्रत्येक क्रिया का ठीक समय पर व ठीक स्थान पर होना । प्रत्येक नक्षत्र एकदम नियमित गति से चल रहा है। इस सृष्टि के किसी भी पिण्ड में नाममात्र भी अमृत का स्थान नहीं है । यह ऋत भी उस प्रभु की महिमा को व्यक्त कर रहा है । [२] यह भी एक अद्भुत ही बात है कि (जायमानः गर्भः) = विकसित होता हुआ गर्भ (मातरा) = अपने जन्म देनेवाले माता-पिता को ही अत्ति-खा जाता है। एक बालक का शरीर माता-पिता की शक्ति के व्यय से ही बनता है। बालक बढ़ता है, माता-पिता क्षीण होते हैं । यह भी वस्तुतः एक विचत्र ही व्यवस्था है । [३] इस सारी व्यवस्था का विचार करता हुआ (अहं मर्त्यः) = मैं मरणधर्मा तो (देवस्य) = उस देव की महिमा को (नचिकेत) = पूरा-पूरा नहीं समझ पाता हूँ। हे अंग- हे प्रिय ! (अग्निः) = वह सबका अग्रेणी प्रभु ही (विचेताः) = विविध ज्ञानोंवाला है, इन सब विविध व्यवस्थाओं के मर्म को वही जानता है (स प्रचेताः) = वही प्रकृष्ट ज्ञानी है। प्रभु ही अपनी महिमा को पूर्णरूपेण जानते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - इस द्युलोक व पृथ्वीलोक में कार्य करता हुआ 'ऋत' प्रभु की महिमा को प्रकट करता है, यह भी एक विचित्र बात है कि जायमान गर्भ अपने ही माता-पिता को क्षीण करनेवाला होता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (रोदसी मातरा) हे रोधसी-पापाद्रोधयितुमानिरोधयित्र्यौ मातापितरौ ! (वाम्) युवयोः (तत्-ऋतं प्र ब्रवीमि) तं सत्यव्यवहारं प्रकथयामि (जायमानः-गर्भः-अत्ति) जनिष्यमाणो गर्भभूतो बालो युवां खादति युवाभ्यामेवाहारं गृह्णाति (अहम्-अग्निः-मर्त्यः-देवस्य न चिकेत) अहं शरीरनेता जीवात्मा जन्मदातुः परमात्मनः स्वरूपं न वेद (अङ्ग विचेताः स प्रचेताः) अरे स यो विशिष्टतया चेतयिता प्रचेतयिता ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O heaven and earth, father and mother of life in existence, truly do I speak to you of that law of life which you observe and sustain: the baby life in the womb and, thereafter, receives its sustenance from father and mother. I, the rising vital form, the mortal, know not of the lord divine. For sure, Agni the omniscient alone knows all, Agni alone illuminates the spirit in the human form.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माता व पिता बालकाला अनेक दोषांपासून वाचवितात किंवा त्यांनी वाचवावे. बालक जन्मापासूनच माता-पिता यांच्या शरीराचे अंग असतो. निर्माणकर्ता परमात्मा त्याला विशेष सावधान करतो. जगात राहण्यासाठी व प्रकृष्ट रूपात प्रबुद्ध करतो. मोक्षप्राप्तीसाठी तो परमेश्वराला जाणत नाही. त्याला जाणले व मानले पाहिजे. यातच कल्याण आहे. ॥४॥

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