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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 80/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्नेरप्न॑सः स॒मिद॑स्तु भ॒द्राग्निर्म॒ही रोद॑सी॒ आ वि॑वेश । अ॒ग्निरेकं॑ चोदयत्स॒मत्स्व॒ग्निर्वृ॒त्राणि॑ दयते पु॒रूणि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नेः । अप्न॑सः । स॒म्ऽइत् । अ॒स्तु॒ । भ॒द्रा । अ॒ग्निः । म॒ही इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । आ । वि॒वे॒श॒ । अ॒ग्निः । एक॑म् । चो॒द॒य॒त् । स॒मत्ऽसु॑ । अ॒ग्निः । वृ॒त्राणि॑ । द॒य॒ते॒ । पु॒रूणि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेरप्नसः समिदस्तु भद्राग्निर्मही रोदसी आ विवेश । अग्निरेकं चोदयत्समत्स्वग्निर्वृत्राणि दयते पुरूणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः । अप्नसः । सम्ऽइत् । अस्तु । भद्रा । अग्निः । मही इति । रोदसी इति । आ । विवेश । अग्निः । एकम् । चोदयत् । समत्ऽसु । अग्निः । वृत्राणि । दयते । पुरूणि ॥ १०.८०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 80; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अप्नसः-अग्नेः) संसार की रचना और जीवों के लिए कर्मफल प्रदान करना कर्म जिस का है, ऐसे परमात्मा की (समित्-भद्रा-अस्तु) भेंट पवित्र स्तुति है (अग्निः) परमात्मा (मही-रोदसी) महान् द्युलोक पृथिवी लोक को (आविवेश) आविष्ट प्रविष्ट है (अग्निः) वह अग्रणायक परमात्मा आग्नेयास्त्रवेत्ता की भान्ति (एकं-समत्सु चोदयत्) अकेले को भी संग्रामों में प्रेरणा करता है-बल प्रदान करता है (अग्निः) परमात्मा (पुरुणि-वृत्राणि) बहुत पापों या घेरनेवाले शत्रुदलों को (दयते) नष्ट करता है ॥२॥

    भावार्थ

    संसार के रचयिता तथा जीवों के कर्मफलप्रदाता की भेंट भौतिक वस्तु नहीं है, किन्तु आत्मभावभरी स्तुति है, वह द्यावापृथिवीमय जगत् में व्यापक है, वह अकेले मनुष्य को भी विरोधियों को दबाने के लिए बल प्रदान करता है ॥२॥

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    विषय

    ज्ञानी की वाणी कल्याणकारिणी हो, तेजस्वी पुरुष और प्रभु सर्वदुष्ट-नाशक हैं। पक्षान्तर में देहगत तेज, ओज रूप अग्नि का वर्णन।

    भावार्थ

    (अप्न-सः) उत्तम रूपवान्, तेजस्वी और कर्म कुशल (अग्नेः) ज्ञानवान् पुरुष की (समित्) खूब दीप्ति करने वाली शक्ति; अर्थप्रकाशक वाणी (भद्रा अस्तु) अग्नि की दीप्ति के समान ही सबका कल्याण और सुख करने वाली हो। वह (अग्निः) तेजस्वी पुरुष, प्रभु ही (मही रोदसी आ विवेश) विशाल आकाश और पृथिवी में सर्वत्र व्याप्त हो रहा है। (अग्निः) वह तेजस्वी प्रभु ही (समत्सु) संग्रामों में (एक) किसी एक प्रधान, बलवान् को प्रेरित करता है और (पुरूणि वृत्राणि दयते) बहुत से बढ़ते शत्रुओं को विनष्ट कर डालता है। इसी प्रकार अग्नि देह में तेजोमय वीर्य वा ओज धातु है। वह देह के बाह्य रुचिर रूप, कान्ति को बनाये रखता है, और देह में कर्म-शक्ति को स्थिर रखता है इसलिये ‘अप्नस्’ है। उसकी कान्ति कल्याणकारिणी है। वह (रोदसी) मस्तक और मूल भाग दोनों स्थानों में प्रवेश करता है। वह (समत्सु) हर्ष के अवसरों में (एकम्) एक आत्मा को प्रेरित करता है और अनेक (वृत्राणि) रोगों को दूर करता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    बाह्य व अन्तः संग्रामों में विजय

    पदार्थ

    [१] (अप्नस:) = सब कर्मों को करनेवाले [कर्मवतः सा० ] (अग्नेः) = उस अग्रेणी प्रभु की (समिद्) = दीप्त-हदय में प्रकाश, (भद्रा अस्तु) = हमारा कल्याण व सुख करनेवाला हो । अर्थात् हमारे हृदयों में उस प्रभु का प्रकाश हो। इस प्रभु की शक्ति से ही होते हुए सब कर्मों को हम जानें। हमें उन कर्मों का गर्व न हो। हम यह अनुभव करने का प्रयत्न करें कि वह (अग्निः) = परमात्मा ही (मही रोदसी) = इन महान् द्युलोक से पृथिवीलोक तक सब पिण्डों में (अविवेश) = प्रविष्ट हो रहे हैं। उस-उस लोक में प्रभु के अंश से ही 'विभूति श्री व ऊर्ज्' का दर्शन होता है। इस अग्नि में तेज वे प्रभु ही हैं, सूर्य व चन्द्र की कान्ति भी वे ही हैं । [२] (अग्निः) = वे प्रभु ही (एकम्) = एक स्वभक्त क्षत्रिय को (समत्सु) = संग्रामों में (चोदयत्) = प्रेरणा देते हैं, उसके सहायक बनकर उसे संग्राम में विजीय करते हैं। (अग्निः) = ये प्रभु ही (पुरूणि) = बहुत संख्यावाले (वृत्राणि) = ज्ञान पर आवरण के रूप आ जानेवाले वासनारूप शत्रुओं को (दयते) = हिंसित करते हैं। बाह्य संग्रामों में भी विजय प्रभु ही प्राप्त कराते हैं, अन्तः संग्रामों में भी। इन विजयों के द्वारा ही वे हमारा कल्याण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हृदयों में प्रभु का ध्यान हमें शक्ति देता है और बाह्य व अन्तः तः संग्रामों में विजयी बनाता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अप्नसः-अग्नेः समित्-भद्रा अस्तु) कर्मवतः-संसाररचनं जीवेभ्यः कर्मफलप्रदानं कर्म यस्य तथाभूतस्य परमात्मनः समित्-अपहृतिः पवित्राः स्तुतिर्भवतु (अग्निः-मही-रोदसी-आविवेश) परमात्मा महत्यौ द्यावापृथिव्यौ समन्तादाविशति प्रविष्टोऽस्ति (अग्निः) स अग्रणायकः परमात्मा आग्नेयास्त्रवेत्तेव (एकं समत्सु चोदयत्) एकाकिनमपि सङ्ग्रामेषु प्रेरयति बलं प्रयच्छति (अग्निः पुरुणि वृत्राणि दयते) परमात्मा बहूनि पापानि आवरकाणि शत्रुवृन्दानि नाशयति “दयते-दयमानो शत्रून् इति हिंसाकर्मा” [निरु० ४।१७] ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the full fire, heat and light of Agni, versatile power of action be good for universal well being, Agni which pervades both heaven and earth. Agni inspires and energises every one in the battles of life, and Agni dispels and destroys all evils of want and darkness.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    संसाराचा निर्माणकर्ता व जीवांच्या कर्मफल प्रदात्याची भेटही भौतिक वस्तू नाही तर आत्मभावयुक्त स्तुती आहे. तो द्यावापृथ्वीमय जगात व्यापक आहे. तो एकट्या माणसालाही विरोधी लोकांना नमविण्यासाठी बल प्रदान करतो. ॥२॥

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