ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 80/ मन्त्र 3
ऋषिः - अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒ग्निर्ह॒ त्यं जर॑त॒: कर्ण॑मावा॒ग्निर॒द्भ्यो निर॑दह॒ज्जरू॑थम् । अ॒ग्निरत्रिं॑ घ॒र्म उ॑रुष्यद॒न्तर॒ग्निर्नृ॒मेधं॑ प्र॒जया॑सृज॒त्सम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः । ह॒ । त्यम् । जर॑तः । कर्ण॑म् । आ॒व॒ । अ॒ग्निः । अ॒त्ऽभ्यः । निः । अ॒द॒ह॒त् । जरू॑थम् । अ॒ग्निः । अत्रि॑म् । घ॒र्मे । उ॒रु॒ष्य॒त् । अ॒न्तः । अ॒ग्निः । नृ॒ऽमेध॑म् । प्र॒ऽजया॑ । अ॒सृ॒ज॒त् । सम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्ह त्यं जरत: कर्णमावाग्निरद्भ्यो निरदहज्जरूथम् । अग्निरत्रिं घर्म उरुष्यदन्तरग्निर्नृमेधं प्रजयासृजत्सम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निः । ह । त्यम् । जरतः । कर्णम् । आव । अग्निः । अत्ऽभ्यः । निः । अदहत् । जरूथम् । अग्निः । अत्रिम् । घर्मे । उरुष्यत् । अन्तः । अग्निः । नृऽमेधम् । प्रऽजया । असृजत् । सम् ॥ १०.८०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 80; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्निः) अग्रणेता परमात्मा (ह) निश्चय (जरतः) स्तुति करते हुए उपासक के (त्यं कर्णम्) उस स्तुति सुनते हुए कान की (आव) रक्षा करता है-अपनी स्तुति में स्थिर करता है (अग्निः) परमात्मा (जरूथम्) स्तुति करनेवाले को (अद्भ्यः) अमृत प्राणों के लिए, ‘अमृत प्राणों की प्राप्ति के लिए’ (निर्-अदहत्) देता है अथवा भौतिक अग्नि की भान्ति नहीं जलाता है (अग्निः) परमात्मा (अत्रिम्) स्तुति करनेवाले की वाणी को (धर्मे) अध्यात्मयज्ञ में (उरुष्यत्) रक्षित करता है (अग्निः) परमात्मा (नृमेधम्) प्रजा के संकल्प करनेवाले को (प्रजया) प्रजा से सन्तान से (सम्-असृजत्) संयुक्त करता है ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा अपनी स्तुति करनेवाले के स्तुति सुनते हुए कान की रक्षा करता है और उस की वाणी को सुरक्षित रखता है, संसार में उसे सन्तानवाला मोक्ष में अमृत प्राण प्रदान करता है ॥३॥
विषय
सर्वरक्षक, मृत्युनाशक प्रभु और देहस्थ जाठर अग्नि का वर्णन।
भावार्थ
(अग्निः ह) निश्चय यह ज्ञानप्रकाशक, सब का उत्पादक प्रभु ही (जरतः) स्तुति करने वाले के (कर्णम्) कार्य-साधना करने वाले साधनरूप देह की (आव) रक्षा करता है। (अग्निः) वह तेजोमय प्रभु ही (अद्भ्यः) प्राणों वा देह में चलने वाली रक्तधाराओं से और मेघ के जलों के बल से (जरूथम्) आयु का नाश करने वाले, वार्धक्य, प्राणियों के जीवन-नाशक अकाल मृत्युआदि त्रास को (निर् अदहत्) सर्वथा भस्म कर देता है। (अग्निः) सूर्यवत् तेजस्वी प्रभु ही (अत्रिम) कर्मफलों के भोक्ता जीव वा इस भूर्लोक के वासी जीवगण को (घर्भे) अति ताप में और अतिवृष्टि-काल में भी (उरुष्यत्) रक्षा करता है। (अग्निः) वह ज्ञानी ही (नृ-मेधम्) मनुष्यों को अन्न देने वाले, मनुष्यों के साथ सत्संग और स्नेह करने वाले पुरुष को (प्रजया सम्-अजत्) प्रजागण के साथ जोड़े रहता है। (२) जाठर वा ओषधि रूप अग्नि, वृद्ध के भी देह को बचाता है। वह (अद्भ्यः) देहगत जलांशों से ही वार्धक्य को दूर करता है, अन्नभोक्ता जीव को भीतरी अग्नि तेजोमय वीर्य ही बाहर के ताप से बचाता है। मनुष्यों का उत्पादन रूप यज्ञ करने वाले गृहस्थ को वही (अग्निः) अग्निरूप तेजोमय वीर्य प्रजा से युक्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥
विषय
प्रभु की रक्षा का पात्र
पदार्थ
[१] (अग्निः) = वे अग्रेणी प्रभु (त्वम्) = उस (जरतः कर्णम्) = [जरते to invoke, praise] स्तुति करनेवाले को जो सुनता है, अर्थात् जो अपने कानों में यथासम्भव स्तुति के शब्दों को ही आने देता है, उसको (आव) = रक्षित करता है। हम जब खाली हों प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करने लगें तो इस प्रकार प्रभु की स्तुति के शब्द ही हमारे कानों में पड़ेंगे। तब ' भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ' यह प्रार्थना हमारे जीवनों में अनूदित हो रही होगी और तब हम प्रभु से रक्षणीय होंगे। [२] (अग्निः) = वे प्रभु (अद्भ्यः) = शरीस्थ रेतः कणों के द्वारा (जरूथम्) = [speaking harohly ] क्रूरता से बोलनेवाले को (निरदहत्) = भस्म कर देता है। शरीर में इन रेतः कणों के रक्षण से कड़वा बोलने की वृत्ति ही नहीं रहती । असंयमी और अतएव क्षीण शक्ति पुरुषों के जीवनों में ही कड़वाहट आ जाती है। [३] (अग्निः) = वे प्रभु ही (घर्मे अन्तः) = इस वासनाओं की गर्मी से परिपूर्ण संसार में (अत्रिम्) = [अविद्यमानाः त्रयो यस्मिन्, अथवा अतति इति] काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठनेवाले निरन्तर क्रियाशील पुरुष को (उरुष्यत्) = रक्षित करता है । प्रभु ही इन वासनाओं का शिकार होने से हमें बचाते हैं। [४] (अग्निः) = वे प्रभु ही (नृमेधम्) = [नृ-मेध] मनुष्यों के साथ अपना सम्पर्क रखनेवाले को, केवल स्वार्थमय वैयक्तिक जीवन न बितानेवाले को (प्रजया) = उत्तम सन्तान से (सं असृजत्) = संसृष्ट करते हैं । वस्तुतः हम प्रभु की प्रजा का ध्यान करते हैं तो प्रभु हमारे सन्तानों को अच्छा बनाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - जरत्कर्ण बनकर हम प्रभु से रक्षणीय हों । संयम के द्वारा कर्कशता से ऊपर उठें। इस वासनामय जगत् में क्रियाशील बनकर उलझे नहीं, 'नृमेध' बनकर उत्तम सन्तानोंवाले हों ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्निः) अग्रणेता परमात्मा (ह) निश्चयेन (जरतः) स्तुवतः स्तुतिं कुर्वतः-उपासकस्य (त्यं कर्णम्) तं कर्णं स्तुतिशृण्वन्तं (आव) अवति रक्षति स्वस्तुतौ स्थापयति (अग्निः) परमात्मा (जरूथम्) गरूथं स्तोतारं (अद्भ्यः) अमृतेभ्यः प्राणेभ्यः “प्राणा वा आपः” [तै० ३।२।२] “अमृतो ह्यापः” [श० ३।९।४।१६] (निर्-अदहत्) निरयच्छत् प्रयच्छति ददाति “दह धातुरत्र दानार्थे” “मातिधक्-मास्मानतिहाय-दाः” [निरु० १।७] भौतिकाग्निरिव न दहति “निर् उपसर्गो निषेधे निराकरणे वर्तते” “निर् निषेधे” [अव्ययार्थनिबन्धनम्] यथा निःशुल्कः, निष्कामः “तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः” [योग० १।५१] अपितु तद्विपरीतम् “अद्भ्यो जलेभ्यः समर्पयति” (अग्निः) परमात्मा (अत्रिं धर्मे-उरुष्यत्) जरतः स्तुवतो वाचम् “वागत्रिः” [श० १४।५।२।२] यज्ञे ‘धर्मो यज्ञनाम” [निघ० ३।१७] रक्षति “उरुष्यति रक्षाकर्मा” [निरु० ५।२३] पुनः (अग्निः) परमात्मा (नृमेधं प्रजया सम्-असृजत) नृषु प्रजासु “प्रजा वै नरः” [ऐ० २।४] मेधा सङ्कल्पः कामो यस्य स नृमेधस्तं प्रजाकामं प्रजया पुत्रादिकया सह संयुक्तं करोति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni protects the devotee’s health of sense and mind and establishes him in piety and prayer. Agni burns away the debilitating impurities from waters and from the blood stream of the body system. Agni protects the enlightened man free from triple bonds of infatuation with family, fame and finance. Agni establishes the man dedicated to yajnic advancement of humanity in the right relationship with family, friends and community.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा प्रशंसकाची स्तुती ऐकत त्याच्या कानाचे रक्षण करतो व त्याची वाणी सुरक्षित ठेवतो. या जगात त्याला संतानयुक्त करतो व मोक्षात अमृत प्राण प्रदान करतो. ॥३॥
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