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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 80/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्नये॒ ब्रह्म॑ ऋ॒भव॑स्ततक्षुर॒ग्निं म॒हाम॑वोचामा सुवृ॒क्तिम् । अग्ने॒ प्राव॑ जरि॒तारं॑ यवि॒ष्ठाग्ने॒ महि॒ द्रवि॑ण॒मा य॑जस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नये॑ । ब्रह्म॑ । ऋ॒भवः॑ । त॒त॒क्षुः॒ । अ॒ग्निम् । म॒हाम् । अ॒वो॒चा॒म॒ । सु॒ऽवृ॒क्तिम् । अग्ने॑ । प्र । अ॒व॒ । ज॒रि॒तार॑म् । य॒वि॒ष्ठ॒ । अग्ने॑ । महि॑ । द्रवि॑णम् । आ । य॒ज॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नये ब्रह्म ऋभवस्ततक्षुरग्निं महामवोचामा सुवृक्तिम् । अग्ने प्राव जरितारं यविष्ठाग्ने महि द्रविणमा यजस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नये । ब्रह्म । ऋभवः । ततक्षुः । अग्निम् । महाम् । अवोचाम । सुऽवृक्तिम् । अग्ने । प्र । अव । जरितारम् । यविष्ठ । अग्ने । महि । द्रविणम् । आ । यजस्व ॥ १०.८०.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 80; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 7
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ऋभवः) ज्ञान से भासमान प्रकाशमान मेधावी जन (अग्नये) परमात्मा के लिए (ब्रह्म) महान् स्तुतिसमूह को (ततक्षुः) सम्पन्न करते हैं-समर्पित करते हैं (महाम्-अग्निम्) महान् परमात्मा के प्रति (सुवृक्तिम्-अवोचाम) स्तुति को बोलते हैं-करते हैं (यविष्ठ-अग्ने) हे मिलने का धर्म रखनेवाले परमात्मन् ! (जरितारं प्राव) स्तुति करनेवाले की रक्षा कर (अग्ने महि द्रविणम्) हे परमात्मन् ! महत्त्वपूर्ण मोक्ष-ऐश्वर्य को (आयजस्व) भलीभाँति प्रदान कर ॥७॥

    भावार्थ

    ज्ञानी और मेधावी जन परमात्मा की बहुत प्रकार से स्तुति करते हैं। वह स्तुति करनेवाले को मोक्ष-ऐश्वर्य प्रदान करता है ॥७॥

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    विषय

    वेद से रक्षा की याचना। पक्षान्तर में शक्तिशाली अग्नि, उसकी पालाशी अरणियों से उत्पत्ति

    भावार्थ

    (ऋभवः) ऋत अर्थात् सत्य ज्ञान से चमकने वाले और विद्वान् जन (अग्नये) परमेश्वर को प्राप्त करने, उसका ज्ञान करने और उसकी स्तुति करने के लिये (ब्रह्म ततक्षुः) वेद का उच्चारण करते हैं। हम लोग (अग्निम् महाम् अवोचाम) उस महान् अग्नि का उपदेश करें। वा, हम (महाम् अग्निं) महान को ‘अग्नि’ ऐसा कहें और उसी की (सु वृक्तिम् अवोचाम) शुभ स्तुति कहें। वा उसी को सुवृक्ति अर्थात् अज्ञान का दूर करने वाला बतलावें। हे (यविष्ठ) सर्वश्रेष्ठ बलशालिन् ! तू (जरितारम् प्र अव) स्तुतिशील इस भक्त की अवश्य रक्षा कर। हे (अग्ने) तेजस्विन् ! तू (महि द्रविणं आयज) महान् धनैश्वर्यं आदि प्रदान कर। (२) अग्नि को उत्पन्न करने के लिये शिल्पी जन ‘ब्रह्म’ नाम पलाश वा अश्वत्थ को गढ़ कर अरणि बनावें। वे ‘अग्नि’ को बड़ा भारी अग्नि (सुवृक्तिं) रोगनाशक, बड़ा शक्तिशाली जान कर उपदेश करें। अग्नि ही विद्वान् की रक्षा करता है और वही विद्युत् आदि अनेक ऐश्वर्य वा (द्रविणं) द्रुतगति प्रदान करता है। इति पञ्चदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    स्तवन व रक्षण

    पदार्थ

    [१] (ऋभवः) = [ऋतेन भाति ] ऋत से देदीप्यमान होनेवाले मेधावी पुरुष (अग्नये) = उस प्रभु के लिये (ब्रह्म ततक्षुः) = स्तोत्र को करते हैं । वस्तुतः प्रभु-स्तवन से ही वे 'ऋभु' बन पाते हैं। हम भी उस (महां अग्निम्) = उस महनीय अग्नि के लिये (सुवृक्तिम्) = दोषवर्जनरूप उत्तम स्तुति को (अवोचाम) = उच्चारण करते हैं । [२] हे (यविष्ठ) = हमारे दोषों को पृथक् करनेवाले तथा गुणों से हमें संपृक्त करनेवाले (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (जरितारम्) = अपने स्तोता को (प्राव) = आप प्रकर्षेण रक्षित करिये । हम आपका स्तवन करते हैं, आप हमें दोषों के आक्रमण से बचाते हैं । दोषों के आक्रमण से बचाने के लिये ही अग्ने हे अग्रेणी प्रभो ! आप (महि द्रविणम् )= महनीय धन को (आयजस्व) = हमारे साथ संगत करिये। हम उत्तम मार्ग से धन को कमाते हुए जीवनयात्रा को निर्दोष रूप से पूर्ण करनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें, प्रभु हमारा रक्षण करें। इस रक्षण के लिये ही प्रभु हमें महनीय धन को प्राप्त करायें। सूक्त के प्रारम्भ में कहते हैं कि उपासित प्रभु हमें 'वीर - श्रुत्य-कर्मनिष्ठ' सन्तान प्राप्त कराते हैं । [१] प्रभु ही हमें बाह्य व अन्तः संग्रामों में विजयी बनाते हैं, [२] क्रियाशीलता के द्वारा हम वासनाओं में फँसने से बचें, [३] प्रभु हमें सब ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं, [४] उस प्रभु के हम ज्ञानी भक्त बनने का प्रयत्न करें, [५] प्रभु हमारे कल्याण के लिये हमें ज्ञान देते हैं, [६] हम प्रभु का स्तवन करेंगे, प्रभु हमारा रक्षण करेंगे, [७] वे प्रभु ही 'विश्वकर्मा' हैं, सृष्टिरूप कर्मवाले हैं। इसके उपासक हम भी ‘विश्वकर्मा' बनें, सदा क्रियाशील हों और भुवन का हित करनेवाले 'भौवन' बनें। ये ‘विष्वकर्मा भौवन' ही अगले दो सूक्तों के ऋषि हैं-

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ऋभवः) ज्ञानेन भासमाना ऋषयो मेधाविनः “ऋभुर्मेधाविनाम” [निघ० ३।१५] (अग्नये) परमात्मने (ब्रह्म ततक्षुः) महास्तुतिसमूहं समर्पयन्ति (महाम्-अग्निम्-सुवृक्तिम्-अवोचाम) महान्तं परमात्मानं स्तुतिं ब्रूमः “सुवृक्तिभिः स्तुतिभिः” [निरु० २।२४] (यविष्ठ-अग्ने जरितारं प्राव) हे मिश्रणधर्मन् परमात्मन् ! त्वं स्तोतारं प्रकृष्टं रक्ष (अग्ने महि द्रविणम्-आयजस्व) परमात्मन् ! महत्त्वपूर्णं धनं मोक्षैश्वर्यं समन्तात् प्रयच्छ ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Rbhus, sages of divine vision and genius, compose and sing songs of adoration in honour of Agni. We too offer holy songs of reverence and worship in celebration of Agni. O Spirit of universal light and life, ever youthful Agni, pray protect and promote the celebrant and give us the highest wealth of yajnic life in communion with you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्ञानी व मेधावी लोक परमेश्वराची अनेक प्रकारे स्तुती करतात. तो स्तुती करणाऱ्याला मोक्ष-ऐश्वर्य प्रदान करतो. ॥७॥

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