ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 90/ मन्त्र 7
तं य॒ज्ञं ब॒र्हिषि॒ प्रौक्ष॒न्पुरु॑षं जा॒तम॑ग्र॒तः । तेन॑ दे॒वा अ॑यजन्त सा॒ध्या ऋष॑यश्च॒ ये ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । य॒ज्ञम् । ब॒र्हिषि॑ । प्र । औ॒क्ष॒न् । पुरु॑षम् । जा॒तम् । अ॒ग्र॒तः । तेन॑ । दे॒वाः । अ॒य॒ज॒न्त॒ । सा॒ध्याः । ऋष॑यः । च॒ । ये ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः । तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । यज्ञम् । बर्हिषि । प्र । औक्षन् । पुरुषम् । जातम् । अग्रतः । तेन । देवाः । अयजन्त । साध्याः । ऋषयः । च । ये ॥ १०.९०.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 90; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्रतः-जातम्) पूर्व से प्रसिद्ध (तं यज्ञं पुरुषम्) उस यजनीय सङ्गमनीय परमात्मा को (बर्हिषि-प्र औक्षन्) हृदयाकाश में आर्द्रभावना से सींचते हैं, प्रसन्न करते हैं (च) और (तेन) उस परमात्मा द्वारा अर्थात् उसे लक्षित कर (देवाः) अन्य विद्वान् (ये) जो (साध्याः-ऋषयः) साधनापरायण मन्त्रद्रष्टा जन (अयजन्त) अध्यात्मयज्ञ करते हैं ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा पूर्व से प्रसिद्ध वर्त्तमान है, उस समागम के योग्य को साधनापरायण ऋषिजन हृदयाकाश में आर्द्रभावनाओं, श्रद्धा प्रेम भरी स्तुतियों द्वारा प्रसन्न करते हैं, तो उनके अन्दर वह साक्षात् होकर कल्याण का निमित्त बनता है ॥७॥
विषय
देव-साध्य व ऋषि
पदार्थ
[१] (तम्) = उस (यज्ञम्) = उपासनीय संगतिकरण योग्य व समर्पणीय प्रभु को (बर्हिषि) = वासनाओं का जिसमें से उद्धर्हण कर दिया गया है ऐसे हृदय में (प्रौक्षन्) = प्रकर्षेण सिक्त करते हैं । हृदयरूप क्षेत्र को प्रभु - चिन्तनरूप जल से सिक्त करते हैं । [२] उस प्रभु को जो (पुरुषम्) = इस ब्रह्माण्डरूप पुरी में निवास करनेवाले हैं। और जो (अग्रतः जातम्) = पहले से ही विद्यमान हैं। 'उन प्रभु को किसी ने बनाया हों, ऐसी बात नहीं है, ' वे तो अनादि व स्वयम्भू हैं। [३] (तेन) = उस प्रभु से (अयजन्त) = वे व्यक्ति अपना मेल करते हैं (ये) = जो (देवा:) = देववृत्ति के हैं, जिनके मन दिव्यगुणों की सम्पत्तिवाले हैं। (साध्याः) [ साध्नुवन्ति परकार्याणि] = जो सदा औरों के कार्यों को सिद्ध ही करते हैं, बिगाड़ते नहीं । च और जो (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की प्राप्ति देवों को, साध्यों को व वृषियों को होती है, उन्हें जो 'उपासना, कर्म व ज्ञान' तीनों का अपने में समन्वय करते हैं।
विषय
महान् पुरुष की यज्ञोपासना।
भावार्थ
(तं यज्ञं) उस यज्ञ रूप सर्वपूज्य, (अग्रतः जातम्) सबसे पहले प्रकट हुए, (पुरुषं) पुरुष को (बर्हिषि) हृदयान्तरिक्ष में (प्रौक्षन्) यज्ञ में दीक्षित पुरुष के तुल्य ही अभिषिक्त करते हैं। (देवाः) विद्वान् गण, (साध्याः) साधना वाले, और (ये च ऋषयः) जो ऋषिगण हैं वे सब (तेन) उसी पुरुष के द्वारा (अयजन्त) यज्ञ उपासना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्नारायणः॥ पुरुषो देवता॥ छन्दः–१–३, ७, १०, १२, निचृदनुष्टुप्। ४–६, ९, १४, १५ अनुष्टुप्। ८, ११ विराडनुष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्रतः-जातं तं यज्ञं पुरुषम्) पूर्वतः प्रसिद्धं तं यजनीयं सङ्गमनीयं परमात्मानं (बर्हिषि-प्र औक्षन्) हृदयाकाशे-“बर्हिः-अन्तरिक्षनाम” [निघं० १।३] आर्द्रभावनाभिः सिञ्चन्ति-प्रसादयन्ति (च) तथा (तेन) पुरुषेण परमात्मना-तं लक्षयित्वा (देवाः) अन्यविद्वांसः (ये) ये खलु (साध्याः-ऋषयः) साधनापरायणाः-मन्त्रद्रष्टारः (अयजन्त) अध्यात्मयज्ञं कृतवन्तः ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The Rshis of universal vision, sages of universal accomplishment and scholars of the Veda, invoke and worship the eternal Purusha, self-manifested in advance of every thing else of the cosmic yajna. They spread and consecrate the grass over the vedi in mind and offer the oblations in the cosmic fire with Veda mantras.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सदैव प्रसिद्ध आहे. त्याच्या संगतीसाठी साधना परायण ऋषिजन हृदयाकाशात आर्द्रभावना, श्रद्धा, प्रेम, स्तुतीद्वारे प्रसन्न करतात तेव्हा त्यांच्यामध्ये परमात्मा साक्षात होऊन कल्याणाचे निमित्त बनतो. ॥७॥
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