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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 98/ मन्त्र 11
    ऋषिः - देवापिरार्ष्टिषेणः देवता - देवाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒तान्य॑ग्ने नव॒तिं स॒हस्रा॒ सं प्र य॑च्छ॒ वृष्ण॒ इन्द्रा॑य भा॒गम् । वि॒द्वान्प॒थ ऋ॑तु॒शो दे॑व॒याना॒नप्यौ॑ला॒नं दि॒वि दे॒वेषु॑ धेहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एतानि॑ । अ॒ग्ने॒ । न॒व॒तिम् । स॒हस्रा॑ । सम् । प्र । य॒च्छ॒ । वृष्णे॑ । इन्द्रा॑य । भा॒गम् । वि॒द्वान् । प॒थः । ऋ॒तु॒ऽशः । दे॒व॒ऽयाना॑न् । अपि॑ । औ॒ला॒नम् । दि॒वि । दे॒वेषु॑ । धे॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतान्यग्ने नवतिं सहस्रा सं प्र यच्छ वृष्ण इन्द्राय भागम् । विद्वान्पथ ऋतुशो देवयानानप्यौलानं दिवि देवेषु धेहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतानि । अग्ने । नवतिम् । सहस्रा । सम् । प्र । यच्छ । वृष्णे । इन्द्राय । भागम् । विद्वान् । पथः । ऋतुऽशः । देवऽयानान् । अपि । औलानम् । दिवि । देवेषु । धेहि ॥ १०.९८.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 98; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे परमात्मन् ! (एतानि) ये (नवतिं सहस्रा) नव-नवति निन्यानवे असंख्य अनन्त मोक्षसंबन्धी वर्षों को (वृष्णे) सुखवृष्टि के चाहनेवाले पात्र (इन्द्राय) आत्मा के लिए (भागं सं प्र यच्छ) प्राप्तव्य भाग के रूप में प्रदान कर, विद्वान् तू जानता हुआ (ऋतुशः) समय अनुसार (देवयानान् पथः) मुमुक्षु विद्वान् जिनसे जाते हैं, उन मार्गों के प्रति (अपि) और (दिवि) मोक्षधाम में (देवेषु) मुक्तों की श्रेणी में आनेवाले (औलानम्) तुझे संवरण करनेवाले उपासक को धारण करा, पहुँचा ॥११॥

    भावार्थ

    परमात्मा मोक्ष के अधिकारी अपने संवरण करनेवाले उपासक को मोक्षधाम में पहुँचाता है, जिन मार्गों से मुक्त आत्माएँ जाते हैं-जाया करते हैं ॥११॥

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    विषय

    देवयान मार्ग तथा देवों का आश्रय

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (एतानि) = इन (नवतिम्) = नब्बे जीवन के वर्षों को तथा सहस्त्रा हजारों ऐश्वर्यों को (वृष्णे) = इस शक्तिशाली (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (भागम्) = सेवनीय अंश के रूप में (संप्रयच्छ) = दीजिए। [२] विद्वान् सर्वज्ञ होते हुए आप (ऋतुशः) = ऋतुओं के अनुसार (देवयानान् पथः) = देवयान मार्गों को धेहि हमारे लिए स्थापित करिये । हम आपकी प्रेरणा को प्राप्त करके सदा देवयान मार्गों पर चलनेवाले हों। और दिविज्ञान के प्रकाश के निमित्त देवेषु उत्तम माता, पिता, आचार्य आदि देवों में (औलानम्) = [suppost ] आश्रय को (अपि) = भी (धेहि) = धारण करिये। उत्तम माता, पिता व आचार्य आदि देवों के आश्रय को पाकर हम ज्ञान के प्रकाश को पानेवाले हों। माता हमें प्रारम्भिक ज्ञान को देनेवाली हों, हमारी रुचि को ज्ञान प्रवण करनेवाली हो। पिता से हमें लौकिक इतिहासादि का ज्ञान प्राप्त हो तथा आचार्यों से हम विज्ञान को प्राप्त करके प्रत्येक पदार्थ में प्रभु की महिमा को देखनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें दीर्घजीवन व जीवन के लिए आवश्यक ऐश्वर्य प्राप्त हों। हम देवयान मार्ग पर चलनेवाले हों । उत्तम माता, पिता व आचार्य के आश्रय में रहकर उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करें ।

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    विषय

    प्रभु के निमित्त स्वार्पण का उपदेश। पक्षान्तर में—मेध-वृष्टि आदि के लिये ९० सहस्त्राहुतियों का महायज्ञ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! तेजोमय ! विद्वन् ! तू (वृष्णे इन्द्राय) सब समस्त सुखों की वर्षा करने वाले (इन्द्राय) सूर्यवत् प्रभु को प्रसन्न करने के लिये (एतानि नव नवतिम् सहस्रा) इन ९९ सहस्रों को (भागम् सं प्रयच्छ) सेवनीय रूप से प्रदान कर। और (देवानाम् पथः विद्वान्) विद्वानों के गमन करने योग्य मार्गों को जानता हुआ (ऋतुशः) समय २ पर (औलानम्) जीव को (देवि देवेषु धेहि) ज्ञानमार्ग में विद्वानों के बीच रख। (२) मेघ की वृष्टि पक्ष में—अग्नि चरु हव्य आदि की ९० सहस्र आहुतियों को वृष्टिकारक मेघ के निमित्त वातावरण में प्रदान करे। देव अर्थात् किरणों के गमन मार्गों को जानता हुआ विद्वान् (औलानम्) मेघ को अन्तरिक्ष में किरणों के बल पर बना लेता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्देवापिरार्ष्टिषेणः। देवा देवताः॥ छन्द:- १, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ६, ८, ११, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १० विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (एतानि-नवनवतिं-सहस्रा) इमानि पूर्वोक्तानि नवनवतिं सहस्राणि मोक्षसम्बन्धीनि वर्षाणि (वृष्णे-इन्द्राय) सुखवृष्टेः पात्राय-आत्मने-मुक्तात्मने (भागं सं प्र यच्छ) भागरूपं देहि (विद्वान्) जानन् सन् (ऋतुशः) यथासमयं (देवयानान् पथः) देवाः-मुमुक्षवः यान्ति यैस्तान् मार्गान् प्रति (अपि) अथापि (दिवि देवेषु) मोक्षधामनि मुक्तेषु (औलानं धेहि) संवरयितारमुपासकात्मानं “वल संवरणे” [भ्वादि०] ततः-आनक् प्रत्ययो बाहुलकादौणादिकः सम्प्रसारणञ्च, उलानः स्वार्थे अण् छान्दसः औलानस्तमौलानं (धेहि) धारय-प्रापय ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, these ninety and nine thousand gifts of homage, pray, send up to Indra, generous lord of showers, for our share of his divine service and, knowing the paths of the divine movements of nature according to seasons, put the clusters of vapour in heaven among the divinities, Maruts, Mitra, Varuna and others for showers of rain.$(‘Aulana’ may also be interpreted as the devout human soul and ‘showers’ as showers of divine bliss.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा मोक्षाचा स्वामी असून, आपले आच्छादन असणाऱ्या उपासकाला मोक्ष धामाला पोचवितो. ज्या मार्गांनी मुक्त आत्मे जा ये करतात. ॥११॥

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