ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 98/ मन्त्र 7
ऋषिः - देवापिरार्ष्टिषेणः
देवता - देवाः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यद्दे॒वापि॒: शंत॑नवे पु॒रोहि॑तो हो॒त्राय॑ वृ॒तः कृ॒पय॒न्नदी॑धेत् । दे॒व॒श्रुतं॑ वृष्टि॒वनिं॒ ररा॑णो॒ बृह॒स्पति॒र्वाच॑मस्मा अयच्छत् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । दे॒वऽआ॑पिः । शम्ऽत॑नवे । पु॒रःऽहि॑तः । हो॒त्राय॑ । वृ॒तः । कृ॒पय॑न् । अदी॑धेत् । दे॒व॒ऽश्रुत॑म् । वृ॒ष्टि॒ऽवनि॑म् । ररा॑णः । बृह॒स्पतिः॑ । वाच॑म् । अ॒स्मै॒ । अ॒य॒च्छ॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्देवापि: शंतनवे पुरोहितो होत्राय वृतः कृपयन्नदीधेत् । देवश्रुतं वृष्टिवनिं रराणो बृहस्पतिर्वाचमस्मा अयच्छत् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । देवऽआपिः । शम्ऽतनवे । पुरःऽहितः । होत्राय । वृतः । कृपयन् । अदीधेत् । देवऽश्रुतम् । वृष्टिऽवनिम् । रराणः । बृहस्पतिः । वाचम् । अस्मै । अयच्छत् ॥ १०.९८.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 98; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्) जिससे कि (देवापिः) देवों की प्राप्ति या सङ्गति के द्वारा विद्वान् पुरोहित या विद्युत्-अग्नि (शन्तनवे) प्राणिमात्र के कल्याणचिन्तक अन्नभोगाधिकारी जन के लिए या कल्याणविस्तारक भौमोष्मा के लिए (होत्राय) होत्रार्थ-वृष्टियज्ञार्थ (पुरोहितः) पुरोहितरूप (वृतः) स्वीकृत किया हुआ (कृपयन्) कृपा करता हुआ या दया करता हुआ जैसा (अदीधेत्) ध्यान करता है या ध्यान करता हुआ सा (देवश्रुतम्) देव इसकी सुनते हैं, उस (वृष्टिवनिम्) वृष्टि की याचना करते हुए या वृष्टिसेवन करते हुए भौमोष्मा को (बृहस्पतिः) बृहस्पति या स्तनयित्नु (रराणः) ज्ञान देता हुआ या वृष्टि देता हुआ-वृष्टि देने के हेतु (अस्मै) इस पुरोहित के लिए या स्तनयित्नु के लिए (वाचम्) वृष्टिविज्ञानविषयक वाणी को या गर्जनारूप वाणी को (अयच्छत्) देता है, यह आलङ्कारिक वर्णन हुआ ॥७॥
भावार्थ
पुरोहित वृष्टिविज्ञानवेत्ता जन राष्ट्र में-प्राणिमात्र के कल्याणचिन्तक अन्नभोगाधिकारी मनुष्य के लिये वृष्टियज्ञ के निमित्त पुरोहित बनकर वृष्टिविषयक ज्ञान करता है, उस ऐसे वृष्टि चाहनेवाले को परमात्मा वृष्टिज्ञान देने के हेतु वृष्टिविज्ञानविषयक वाणी को देता है-दिया है, उससे वृष्टि का लाभ लेना चाहिये एवं विद्युत् अग्नि भौमोष्मा, जो अन्न देनेवाला है, उसका पूर्ववर्ती बन जाता है, तो उसे स्तनयित्नु आकाशीय देवता गर्जनारूप वाणी देता है, वह कड़क कर नीचे वृष्टि कर देती है ॥७॥
विषय
दया से दीप्त
पदार्थ
[१] (यत्) = जब (देवापिः) = देवों को अपना मित्र बनानेवाला यह 'देवापि' [क] (शन्तनवे) = शान्ति के विस्तार के लिए (पुरोहितः) = सब से अग्र स्थान में स्थित होता है, शान्ति विस्तार के कर्म में सर्वप्रमुख होता है । [ख] (होत्राय वृतः) = यह स्तवन व यज्ञ के लिए ही वरण किया गया होता है । सदा यज्ञों व स्तवनों में ही प्रवृत्त रहता है। [ग] (कृपयन्) = [to pity] सब पर दया करता हुआ (अदीधेत्) = [दीधी tto sluire] दीप्त हो उठता है । (२) इस प्रकार के जीवनवाले (अस्मा) = इस देवापि के लिए (बृहस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी परमात्मा (वृष्टिवनिम्) = आनन्द की वृष्टि को प्राप्त करानेवाले (देवश्रुतम्) = सब देवों के ज्ञान को देनेवाली (वाचम्) = वाणी को (अयच्छत्) = देता है । वेदवाणी के अन्दर सूर्यादि सब देवों का ज्ञान उपलब्ध होता है। यह ज्ञान इन सब पदार्थों के ठीक प्रयोग के द्वारा हमारे लिए सुखों का वर्षण करनेवाला है। प्रभु देवापि के लिए इस ज्ञान को देते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम शान्ति विस्तार के कर्मों में प्रमुख हों, यज्ञों व स्तवनों में प्रवृत्त रहें, सब पर दया करते हुए दीप्त हों । प्रभु हमें वह ज्ञान देंगे जो हमारे लिए सुखों का वर्षण करनेवाला होगा।
विषय
यज्ञार्थ विद्वान् का वरण, उसका यज्ञ का यथावत् सम्पादन और लोकोपकार।
भावार्थ
(होत्राय वृतः पुरोहितः) यज्ञ कर्म के लिये वरण किये गये पुरोहित के तुल्य (होत्राय) ज्ञान प्रदान करने के लिये (वृतः) स्वीकार किया (पुरोहितः) समक्ष स्थित, (यत् देवापिः) जो देव का बन्धु भक्त (शन्तनवे) शान्ति-सुख विस्तारने के लिये, (कृपयन्) कृपा करता हुआ, सब पर अनुग्रह करता हुआ (अदीधेत्) नाना कर्म करता है। वह (बृहस्पतिः) बड़ी वेद वाणी का पालक प्रभु (देव-श्रुतं) विद्वानों द्वारा श्रवण करने योग्य (वृष्टि-वनिं) समस्त दुःखों को काटने वाली, सुखप्रद ऐश्वर्य विभूति को (रराणः) देता हुआ, (अस्मै वाचम् अयच्छत्) इस भक्त जन को वाणी प्रदान करे। (२) मेघ-वृष्टि पक्ष में—(शन्तनवे) विश्व में शान्ति विस्तार करने के लिये (देवापिः) रश्मि-विज्ञान वा मेघ-विज्ञान का जानने वाला, विद्वान् (होत्राय वृतः) यज्ञ के लिये वरण किया जाकर (कृपयन् अदीघेत्) समस्त प्रजाओं पर अनुग्रह करता हुआ समस्त यज्ञ कर्म करे। वह (बृहस्पतिः) बड़ी शक्ति का स्वामी सूर्य (देवश्रुतं वृष्टिवनिं रराणः) देव, दातृसम मेघ से स्रवित होने वाले जलवृष्टि के अंश को देता हुआ (अस्मै वाचम् अयच्छत्) इस मेघ को विद्युत् रूप वाणी प्रदान करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्देवापिरार्ष्टिषेणः। देवा देवताः॥ छन्द:- १, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ६, ८, ११, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १० विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्) यतः (देवापिः) देवानां प्राप्त्या सङ्गत्या विद्वान् पुरोहितो विद्युदग्निर्वा (शन्तनवे) प्राणिमात्रस्य कल्याणचिन्तकायान्नभोगाधि-कारिणे जनाय कल्याणविस्तारकाय भौमोष्मणे वा (होत्राय) होत्रार्थं वृष्टियज्ञार्थं (पुरोहितः-वृतः) पुरोहितरूपेण वृतः स्वीकृतः (कृपयन्) कृपां कुर्वन्-दयमान इव वा (अदीधेत्) ध्यानमकरोत्-ध्यायमान-इव जातो वा तदा (देवश्रुतं वृष्टिवनिम्) देवाः शृण्वन्त्येनं तं वृष्टियाचिनं वृष्टिसेविनं भौमोष्माणं वा (बृहस्पतिः-रराणः) परमात्मा ज्ञानं प्रयच्छन् यद्वा स्तनयित्नुर्वृष्टिं ददत् सन् “ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपति…वर्षमिषवः” [अथर्व० ३।२७।६] (अस्मै वाचम्-अयच्छत्) अस्मै पुरोहिताय “वृष्टिविज्ञानविषयिकां वाचं गर्जनारूपं वाचं वा प्रयच्छति” इत्यालङ्कारिकं वर्णनमस्ति ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When Devapi, friend of divinities, the priest appointed for the purpose of rain yajna, prays and shines with adoration, Brhaspati, listening to his prayer to divinity for rain, waxes with joy and grants him the gift of thunderous Word and shower for the peace and prosperity of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
वृष्टिविज्ञानवेत्ता प्राणिमात्राच्या कल्याणासाठी व अन्नभोगी माणसांसाठी पुरोहित बनून यज्ञ करतो त्याला परमात्मा वृष्टिविज्ञानविषयक वाणी देतो. त्यापासून वृष्टीचा लाभ घेतला पाहिजे, तसेच विद्युत अग्नी गडगडाटाद्वारे किंवा आकाशीय देवता गर्जनारूपी वाणी देतो. तेव्हा विद्युतच्या कडकडाटाने वरून खाली वृष्टी होते व अन्न प्राप्त होते. ॥७॥
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