ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 98/ मन्त्र 6
ऋषिः - देवापिरार्ष्टिषेणः
देवता - देवाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒स्मिन्त्स॑मु॒द्रे अध्युत्त॑रस्मि॒न्नापो॑ दे॒वेभि॒र्निवृ॑ता अतिष्ठन् । ता अ॑द्रवन्नार्ष्टिषे॒णेन॑ सृ॒ष्टा दे॒वापि॑ना॒ प्रेषि॑ता मृ॒क्षिणी॑षु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मिन् । स॒मु॒द्रे । अधि॑ । उत्ऽत॑रस्मिन् । आपः॑ । दे॒वेभिः॑ । निऽवृ॑ताः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् । ताः । अ॒द्र॒व॒न् । आ॒ऋष्टि॒षे॒णेन॑ । सृ॒ष्टाः । दे॒वऽआ॑पिना । प्रऽइ॑षिताः । मृ॒क्षिणी॑षु ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मिन्त्समुद्रे अध्युत्तरस्मिन्नापो देवेभिर्निवृता अतिष्ठन् । ता अद्रवन्नार्ष्टिषेणेन सृष्टा देवापिना प्रेषिता मृक्षिणीषु ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मिन् । समुद्रे । अधि । उत्ऽतरस्मिन् । आपः । देवेभिः । निऽवृताः । अतिष्ठन् । ताः । अद्रवन् । आऋष्टिषेणेन । सृष्टाः । देवऽआपिना । प्रऽइषिताः । मृक्षिणीषु ॥ १०.९८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 98; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्मिन्) इस (उत्तरस्मिन्) ऊपरवाले (समुद्रे-अधि) अन्तरिक्षस्थ समुद्र में (देवेभिः) मरुत् आदि देवों द्वारा (निवृताः) रोके हुए (आपः) जल (अतिष्ठन्) ठहरे हैं-ठहरते हैं (ताः) वे (अद्रवन्) नीचे बह चलते हैं-बरस जाते हैं (आर्ष्टिषेणेन) पूर्वोक्त ऋष्टिषेणसम्बन्धी (देवापिना) पुरोहित या विद्युदग्नि के द्वारा (सृष्टाः) छोड़े हुए, तथा (मृक्षिणीषु) सेचनयोग्य भूमियों स्थलियों में प्रेरित किये गये हैं-किये जाते हैं ॥६॥
भावार्थ
आकाश के जल समुद्र में-मेघ में जल रुके होते हैं, उन्हें पुरोहित यज्ञविधि से नीचे भूभागों पर बरसा लिया करता है-बरसा लिया करे एवं विद्युत् अग्नि मेघ में रुके हुए जलों को ताड़ना द्वारा नीचे भूमियों पर बरसा दिया करती है, इस विज्ञान को जानना चाहिये और काम में लाना चाहिए ॥६॥
विषय
ज्ञान व दिव्यगुणों के पुञ्च प्रभु
पदार्थ
[१] (अस्मिन्) = इस उत्तर (स्मिन् समुद्रे अधि) = सर्वोत्कृष्ट ज्ञान समुद्र प्रभु में (देवेभिः) = सब दिव्यगुणों से (निवृता:) = निरुद्ध [ surrounded enelased] (आप:) = ज्ञानजल अतिष्ठन् स्थित हैं। प्रभु ज्ञान के पुञ्ज तो हैं ही, साथ ही वे दिव्यगुणों के आधार हैं। [२] (ता:) = वे ज्ञानजल आर्ष्टिषेणेन-' इन्द्रियों, मन व बुद्धि' के द्वारा वासनाओं का संहार करनेवाले से (सृष्टा:) = उत्पन्न किये हुए (अद्रवन्) = गतिवाले होते हैं, अर्थात् इसे खूब क्रियाशील बनाते हैं। ये ज्ञानजल (देवापिना) = देव हैं मित्र जिसके उस देवापि से (मृक्षिणीषु) = [मज् शुद्धौ] परिशुद्ध हृदय - स्थलियों में (प्रेषिता:) = प्रेषित [= प्रेरित] होते हैं । देवापि योगांगों के अनुष्ठान से अशुद्धि का क्षय करके अपने हृदय को दीप्त करता है । इस दीप्त हृदय में ज्ञान का प्रकाश होता है। यही उत्कृष्ट ज्ञान-समुद्र से ज्ञानजलों का प्रवाह कहलाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ज्ञान व दिव्यगुणों के पुञ्ज हैं। देवापि अपने हृदय को पवित्र बनाकर इन ज्ञानजलों को अपनी ओर प्रवाहित करता है।
विषय
सर्व सत्-फल प्रभु के आश्रित हैं। जितेन्द्रिय ही उनको पाते हैं। मेघ वृष्टि-ज्ञान।
भावार्थ
(अस्मिन् उत्तरस्मिन् समुद्रे अधि) इस उत्कृष्ट, सबको तराने वाले, समुद्रवत् अपार आनन्द सागर प्रभु में (देवेभिः निवृताः आपः अतिष्ठन्) पात्र वा जलाशय में जलों की न्याई समस्त विद्वानों द्वारा किये गये या चाहे गये प्राप्तव्य फल रहते हैं। (अर्ष्टिषेणेन) जितेन्द्रिय (देवापिना) प्रभु के बन्धु उस भक्त द्वारा (सृष्टाः) व्यक्त किये जाकर (ताः प्र-इषिताः) वे भली प्रकार चाहे जाकर आपः आनन्द व्यापक रस (मृक्षणीषु) नदियों में जलों के तुल्य शुद्ध प्रजाओं और योग-भूमियों पर धारित (अद्रवन्) प्राप्त होते हैं। (२) मेघ-वृष्टि पक्ष में—देवों किरणों से (निवृताः) खुब एकत्र जल (अस्मिन्, उत्तरस्मिन् समुद्रे अधि) इस ऊपर के महान् आकाश में सुरक्षित रूप में रहते हैं। (देवापिना आर्ष्टिषेणेन) वृष्टि-दल के पति मेघ की विद्या का ज्ञाता, बहुतसी प्रजाओं का रक्षक, रश्मियों में हवि प्राप्त कराने वाले विद्वान् या वायु से (सृष्टाः) प्रेरित या बल रूप में उत्पादित होकर (मृक्षणीषु) विशुद्ध भूमियों पर (अद्रवन्) आ बहते हैं। इति द्वादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्देवापिरार्ष्टिषेणः। देवा देवताः॥ छन्द:- १, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ६, ८, ११, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १० विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अस्मिन्-उत्तरस्मिन्-समुद्रे-अधि) एतस्मिन् उपरिसमुद्रेऽन्तरिक्षे-ऽधि (देवेभिः-निवृताः-आपः-अतिष्ठन्) मरुदादिभिर्देवैर्निरुद्धा आपस्तिष्ठन्ति (ताः-अद्रवन्) ता द्रुताश्चलिताः (आर्ष्टिषेणेन देवापिना सृष्टाः) पूर्वोक्तेन पुरोहितेन विद्युदग्निना वा मोचिताः-तथा (मृक्षिणीषु प्रेषिताः) सेचनीयासु “मृक्ष सेचने” [ऋ० ४।३०।१३ दयानन्दः] नीचैर्गतासु “मार्ष्टि गतिकर्मा” [निघ० २।१५] स्थलीषु प्रेरिताः ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
In this upper oceanic sky water vapours stay held up by divine forces of nature. Catalised by electric charge caused by divine marut energies, they condense, and, sent down into clouds, they shower, upon the earth in torrents.
मराठी (1)
भावार्थ
आकाशाच्या जलसमुद्रात - मेघात जल थांबलेले असते. पुरोहित यज्ञविधीने खाली भूभागावर त्याची वृष्टी करवितो व विद्युत मेघात स्थित असलेल्या जलाला ताडना करून खाली भूमीवर वृष्टी करविते, हे विज्ञान जाणून त्याचा उपयोग करून घेतला पाहिजे. ॥६॥
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