ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स सु॑न्व॒त इन्द्रः॒ सूर्य॒मा दे॒वो रि॑ण॒ङ्मर्त्या॑य स्त॒वान्। आ यद्र॒यिं गु॒हद॑वद्यमस्मै॒ भर॒दंशं॒ नैत॑शो दश॒स्यन्॥
स्वर सहित पद पाठसः । सु॒न्व॒ते । इन्द्रः॑ । सूर्य॑म् । आ । दे॒वः । रि॒ण॒क् । मर्त्या॑य । स्त॒वान् । आ । यत् । र॒यिम् । ग्ह॒त्ऽअ॑वद्यम् । अ॒स्मै॒ । भर॑त् । अंश॑म् । न । एत॑शः । द॒श॒स्यन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स सुन्वत इन्द्रः सूर्यमा देवो रिणङ्मर्त्याय स्तवान्। आ यद्रयिं गुहदवद्यमस्मै भरदंशं नैतशो दशस्यन्॥
स्वर रहित पद पाठसः। सुन्वते। इन्द्रः। सूर्यम्। आ। देवः। रिणक्। मर्त्याय। स्तवान्। आ। यत्। रयिम्। गुहत्ऽअवद्यम्। अस्मै। भरत्। अंशम्। न। एतशः। दशस्यन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 19; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्युद्विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यद् यो देव इन्द्रः सुन्वते सूर्य्यं मर्त्याय स्तवान्नारिणग् गुहदवद्यं रयिमस्मा आ भरत्। अंशं दशस्यन्नेतशो न भवति स युष्माभिरुपयोक्तव्यः ॥५॥
पदार्थः
(सः) (सुन्वते) अभिषवं कुर्वते (इन्द्रः) विद्युत् (सूर्य्यम्) सवितारम् स्तुतिः यः श्रियम् आच्छादितनिन्द्यम् भरति प्राप्तम् निषेधे प्राप्नुवन् उपक्षयन् (आ) (देवः) देदीप्यमानः (रिणक्) रिणक्ति (मर्त्याय) (स्तवान्) स्तुतिः (आ) (यत्) यः (रयिम्) श्रियम् (गुहदवद्यम्) आच्छादितनिन्द्यम् (अस्मै) (भरत्) भरति (अंशम्) प्राप्तम् (न) निषेधे (एतशः) प्राप्नुवन् (दशस्यन्) उपक्षयन् ॥५॥
भावार्थः
ये कस्याप्युन्नतेः क्षयं नेच्छन्ति सर्वस्यैश्वर्यं वर्द्धयन्ति ते सूर्यवदुपकारका भवन्ति ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
अब बिजुली के विषय को अगले मन्त्र में कहा गया है।
पदार्थ
हे मनुष्यो (यत्) जो (देवः) देदीप्यमान (इन्द्रः) विजुली (सुन्वते) पदार्थों का सार निकालनेवाले मनुष्य के लिये (सूर्य्यम्) सवितृ मण्डल को और (मर्त्याय) साधारण मनुष्य के लिये (स्तवान्) स्तुतियों को (न, आ,रिणक्) नहीं छोड़ती और (गुहदवद्यम्) ढंपे हुए निन्द्य (रयिम्) धन को (अस्मै) इस मनुष्य के लिये (आ, भरत) आभूषित कराती और (अंशम्) प्राप्त भाग को (दशस्यन्) नष्ट करती हुई (एतशः) प्राप्त नहीं होती (सः) वह बिजुली आप लोगों को उपयोग में लानी योग्य है ॥५॥
भावार्थ
जो मनुष्य किसी की उन्नति के नाश की नहीं इच्छा करते किन्तु सबके ऐश्वर्य को बढ़वाते हैं, वे सूर्य के समान उपकार करनेवाले होते हैं ॥५॥
विषय
सूर्योदय
पदार्थ
१. (स इन्द्रः) = वे शक्तिशाली प्रभु (स्तवान्) = स्तुति किये जाते हुए (देवः) = प्रकाश को प्राप्त करानेवाले [देव: द्योतनात्] होते हुए (सुन्वते) = अपने अन्दर सोमशक्ति का संपादन करनेवाले मनुष्य के लिए (सूर्यम्) = ज्ञान के सूर्य को (आरिणक्) = वासनारूप मेघों से पृथक् करते हैं [to separate]। मनुष्य प्रभु का स्तवन करता है- प्रभु उसके लिए वासना को जीतते हैं और इसके ज्ञानसूर्य को दीप्त कर देते हैं । २. (यद्) = जब (एतशः) = [एतः = शुद्ध, शी-निवास करना] शुद्धता में निवास करनेवाला– जीवन को शुद्ध बनानेवाला (दशस्यन्) = यज्ञों में आहुतियों को देता हुआ होता है तो वे प्रभु (अस्मै) = इसके लिए उस (रयिम्) = ज्ञानैश्वर्य को (भरत्) = प्राप्त कराते हैं, जो कि (गुहद् अवद्यम्) = सब बुराइयों को संवृत कर डालनेवाला है। ज्ञान होने पर बुराइयों का विध्वंस हो जाता है। प्रभु उसी प्रकार इस एतश के लिए ज्ञानैश्वर्य को देते हैं, न जैसे कि पिता प्रभु के लिए अंश (भरत्) = सम्पत्ति के अंश को प्राप्त कराता है।
भावार्थ
भावार्थ- स्तुति किये जाते हुए प्रभु यज्ञशील पुरुष के लिए ज्ञानैश्वर्य प्राप्त कराते हैं । यह ज्ञानैश्वर्य सब अशुभवृत्तियों को विनष्ट कर देता है।
विषय
जिज्ञासु का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( इन्द्रः ) विद्युत् ( देवः ) प्रकाशमान् होकर ( सुन्वते मर्त्याय ) उत्पन्न करनेवाले वैज्ञानिक मनुष्य के लिये, ( सूर्यं स्तवान् ) सूर्य को लक्ष्य करके कहे गये समस्त गुण वर्णनों को ( अरिणक् ) प्राप्त कर उससे भी अधिक कार्य क्षम हो जाता है और जो वह ( अस्मै ) इस मनुष्य को ( गुहद्-अवयं ) गुप्त, अति पवित्र ( रयिम् ) ऐश्वर्य, खजाना भी ( भरत् ) प्रदान करता है और निर्दोष ( अशं दशस्यन् ) अपना भाग नष्ट करता हुआ वह फिर ( एतशः न भवति ) प्राप्त नहीं होता । बिजली का अपना ‘अंश’ अन्यत्र निकल जाने पर फिर वह मनुष्य के उपयोग में नहीं आता। ठीक इसी प्रकार ऐश्वर्यवान् राजा ( देवः ) दानशील, तेजस्वी होता है, वह ( सुन्वते मर्त्याय ) अपने अभिषेक्ता प्रजाजन के लिये ( सूर्यम् आरिणक् ) तेज में सूर्य को भी मात करे । और वह (गुहत्-अवध्यम्) छुपा और निष्पाप धनैश्वर्य राष्ट्र को प्राप्त करावे । परन्तु वह यदि ( अंशं दशस्यन् ) अपना अंश षष्ठ भाग, कर स्वयं नष्ट करे तो ( न एतशः ) तब वह उसे प्राप्त न कर सके । ( २ ) परमेश्वर देव ( सुन्वते मर्त्याय ) उपासक जन के लिये ( सूर्यम् स्तवान् आरिणक् ) सूर्य के गुणों से भी बढ़कर तेजस्वी, दाता, प्रकाशक और पूज्य है । ( यत् ) जो यह उसको गुणों को भी छुपा निष्पाप ( रयिं ) रयि, धन, आत्मा को ही प्राप्त करा देता है । जो पुरुष ( दशस्यन् ) अपने व्रत का नाश कर ले वह उस ( अंशं ) व्यापक प्रभु को ( नः एतशः ) नहीं प्राप्त कर सकता । अथवा ( स्तवान् देवः ) स्तुति किया गया प्रभु, सूर्य से भी बढ़कर है। वह ( दशस्यन् एतशः ) दानशील सूर्य या मेघ के समान ( अंशं ) उसका भोग्य और पवित्र ऐश्वर्य ( भरत् हरत् ) प्राप्त करता है । इति त्रयोविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । ३ पङ्क्तिः । ५, ७ भुरिक् पङ्क्तिः । ५ निचृत् पङ्क्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे कुणाच्याही नाशाची कामना करीत नाहीत तर सर्वांचे ऐश्वर्य वाढवितात ती सूर्याप्रमाणे उपकारी असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That Indra, lord of universal energy, light and wealth, brilliant and generous, releases for the creative man of research and development the light and power of the sun in addition to songs of praise and appreciation and, bringing unknown and indescribable wealth for this man, never destroys the share that is his due.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Here knowledge about the energy/power is imparted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Those who study well the nature and qualities of the shining power/energy and extract the substance of all materials and carry their usages to common man, they are always admired. This energy /power gets prosperity in wealth, hidden in nature and thus eradicates the harmful qualities. You should take optimum use of this power/electricity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who never desire to harm any one rather make effort to multiply others' prosperity, they are, indeed, benefactors like the sun.
Foot Notes
(सुन्वते) अभिषवं कुर्वते | = Take out the extract. (रिणक) रिणक्ति = Does not spare. ( रयिम् ) श्रियम् = Wealth. (गुहृदवद्यम्) आच्छादितनिन्द्यम्। = Where condemnables are hidden on discovery. (अंशम् ) प्राप्तम् = Discovered. (दशस्यन् ) उपक्षयन् = Ruining.
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