ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 19/ मन्त्र 7
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ए॒वा त॑ इन्द्रो॒चथ॑महेम श्रव॒स्या न त्मना॑ वा॒जय॑न्तः। अ॒श्याम॒ तत्साप्त॑माशुषा॒णा न॒नमो॒ वध॒रदे॑वस्य पी॒योः॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । उ॒चथ॑म् । अ॒हे॒म॒ । श्र॒व॒स्या । न । त्मना॑ । वा॒जय॑न्तः । अ॒श्याम॑ । तत् । साप्त॑म् । आ॒शु॒षा॒णाः । न॒नमः॑ । वधः॑ । अदे॑वस्य । पी॒योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा त इन्द्रोचथमहेम श्रवस्या न त्मना वाजयन्तः। अश्याम तत्साप्तमाशुषाणा ननमो वधरदेवस्य पीयोः॥
स्वर रहित पद पाठएव। ते। इन्द्र। उचथम्। अहेम। श्रवस्या। न। त्मना। वाजयन्तः। अश्याम। तत्। साप्तम्। आशुषाणाः। ननमः। वधः। अदेवस्य। पीयोः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 19; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ते त्मना वाजयन्तो वयं श्रवस्या नोचथमेवाहेम आशुषाणाः सन्तो वयं तत्साप्तमश्याम अदेवस्य पीयोर्वधोऽश्याम। परमेश्वरं च ननमः ॥७॥
पदार्थः
(एव) निश्चये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (ते) तव (इन्द्र) विद्वन् (उचथम्) वक्तव्यम् (अहेम) व्याप्नुयाम् (श्रवस्या) श्रोतुं योग्यानि (न) इव (त्मना) आत्मना (वाजयन्तः) ज्ञापयन्तः (अश्याम) प्राप्नुयाम् (तत्) (साप्तम्) सप्तविधम् (आशुषाणाः) सद्यः कुर्वाणाः (ननमः) नमेम (वधः) वध्यन्ते शत्रवो यस्मात्तच्छस्त्रम् (अदेवस्य) (अविदुषः) (पीयोः) पातुः ॥७॥
भावार्थः
ये मनुष्या वक्तव्यं वदेयुः प्राप्तव्यं प्राप्नुयुर्नमस्यं नमेयुर्हन्तव्यं हन्युर्ज्ञातव्यं जानीयुस्त एवाप्ता जायन्ते ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वान् के विषय को इस मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) विद्वान् (ते) आपके (त्मना) आत्मा से (वाजयन्तः) ज्ञान कराते हुए हम लोग (श्रवस्या) श्रवण करने योग्य पदार्थ के (न) समान (उचथम्) और कहने योग्य प्रस्ताव (एव) ही को (अहेम) व्याप्त हों तथा (आशुषाणाः) शीघ्रता करते हुए हम लोग (तत्) उस (साप्तम्) सात प्रकार के विषय को (अश्याम) व्याप्त हों (अदेवस्य) अविद्वान् (पीयोः) पालना करनेवाले सूर्य को (वधः) वध करनेवाले शस्त्र को व्याप्त हों और परमेश्वर को (ननमः) नमस्कार करें ॥७॥
भावार्थ
जो मनुष्य कहने योग्य को कहें, पाने योग्य को पावें, नमने योग्य को नमें, मारने योग्य को मारें और जानने योग्य को जानें, वे ही आप्त होते हैं ॥७॥
विषय
उपासना से ज्ञान व आत्मशक्ति का विकास
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! हम (एवा) = इस प्रकार (ते) = आपके (उचथम्) = स्तोत्र को (अहेम) = प्राप्त हों (न) = जैसे (श्रवस्या) = ज्ञान की कामना से वैसे ही (त्मना) = आत्मिक दृष्टिकोण से (वाजयन्तः) = शक्ति को अपनाना चाहते हुए हम आपका स्तवन करनेवाले बनें। आपके उपासन से जहाँ बुद्धि की निर्मलता से ज्ञान की वृद्धि होती है वहाँ आत्मिक बल भी बढ़ता है। २. हम आपकी उपासना के साथ (आशुषाणा:) = उपासना द्वारा आपका व्यापन करते हुए [अश् व्याप्तौ] अथवा शीघ्रता से कार्यों का सेवन करते हुए (तत्) = उस आपकी (साप्तम्) = मित्रता को [साप्तपदीनं सख्यम्] (अश्याम) = प्राप्त करें। हम आपकी मित्रता को प्राप्त करते हैं तो आप (अदेवस्य) = देवभावना से विपरीत (पीयोः) = हिंसक आसुरभाव के (वधः) = आयुध को (ननमः) = हमारे लिए झुका देते हैं। आपके मित्रों पर यह असुरों का आयुध आक्रमण नहीं कर पाता ।
भावार्थ
भावार्थ - उपासना से हमारा ज्ञान बढ़ता है और आत्मिकशक्ति बढ़ती है। प्रभु की मित्रता में हमारे पर असुरों के आयुध आक्रमण नहीं कर पाते।
विषय
जिज्ञासु का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर ! हम ( त्मना ) स्वयं अपने आत्मा से ( वाजयन्तः ) अपने आपको बलवान् और ज्ञानवान् करते हुए (ते) तेरे ( श्रवस्या न ) श्रवण करने योग्य गुणों के समान ही ( उचथम् ) तेरे कहने योग्य स्तुति वचन को ( एव ) भी (अहेम ) प्राप्त करें। और हम (तत्) तेरी उस ( साप्तम् ) परम मैत्री भाव का ( अश्याम ) सुख पूर्वक उपयोग करें और ( आशुषाणः ) उसका उपभोग करते हुए या अति शीघ्रता से कार्य करते हुए, अप्रमादी रहकर हम ( अदेवस्य ) अदानशील ( पीयोः ) हिंसक, पुरुष के ( वधः ) हिंसाकारी कृत्य को ( ननमः ) विनाश करें । अथवा हे इन्द्र ! ( ननमः ) उसके हिंसा कृत्य को दबावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । ३ पङ्क्तिः । ५, ७ भुरिक् पङ्क्तिः । ५ निचृत् पङ्क्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे सांगण्यायोग्य असणाऱ्यांना सांगतात, प्राप्त करण्यायोग्य असणाऱ्यांना प्राप्त करवितात, नमन करण्यायोग्य असणाऱ्यांना नमन करतात, मारण्यायोग्य असणाऱ्यांना मारतात, जाणण्यायोग्य असणाऱ्यांना जाणतात, तीच आप्त असतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Thus we, O lord Indra, on our way to Divinity by our mind and soul with speed and sincerity, may, we pray, hear the word of your glory and have a glimpse of your admirable action. And may we, acting and thus struggling, cross that seven stage path to Divinity whereby we may eliminate from within and without the words and weapons of the impious reviler and destroyer of faith and reach our destination.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of learned people are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! we consciously listen your speech and accept your knowledge with faith. Our aim is to know the knowledge thoroughly and quickly, which is divided into seven categories again for thoroughness. The rogues waste the solar energy and therefore deserve punishment (killing ). For this, we should adore God, which is the nucleus.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Noble are the persons who call spade-a-spade, endeavor to get right objects, wish and respect to the deserving persons, kill the unworthy and know the knowledgeable they are the fully qualified and worthy persons.
Foot Notes
(एव) निश्चये। = Positively. (उचथम् ) वक्तव्यम् = The right version. (श्रवस्या) श्रोतुं योग्यानि। = Worth listening. (वाजयन्त:) शापयन्त:। = Telling. (साप्तम् ) सप्तविधम् = Of seven types. (आशुषाण:) सद्यः कुर्वाणाः । = Acting quickly. (वध:) वध्यन्ते शत्नवो यस्मात्तच्छस्त्रम् । = The weapons. (पीयोः) पातुः = Of the protector.
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