ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 19/ मन्त्र 6
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स र॑न्धयत्स॒दिवः॒ सार॑थये॒ शुष्ण॑म॒शुषं॒ कुय॑वं॒ कुत्सा॑य। दिवो॑दासाय नव॒तिं च॒ नवेन्द्रः॒ पुरो॒ व्यै॑र॒च्छम्ब॑रस्य॥
स्वर सहित पद पाठसः । र॒न्ध॒य॒त् । स॒ऽदिवः॑ । सार॑थये । शुष्ण॑म् । अ॒शुष॑म् । कुय॑वम् । कुत्सा॑य । दिवः॑ऽदासाय । न॒व॒तिम् । च॒ । नव॑ । इन्द्रः॑ । पुरः॑ । वि । ऐ॒र॒त् । शम्ब॑रस्य ॥
स्वर रहित मन्त्र
स रन्धयत्सदिवः सारथये शुष्णमशुषं कुयवं कुत्साय। दिवोदासाय नवतिं च नवेन्द्रः पुरो व्यैरच्छम्बरस्य॥
स्वर रहित पद पाठसः। रन्धयत्। सऽदिवः। सारथये। शुष्णम्। अशुषम्। कुयवम्। कुत्साय। दिवःऽदासाय। नवतिम्। च। नव। इन्द्रः। पुरः। वि। ऐरत्। शम्बरस्य॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 19; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्यविषयमाह।
अन्वयः
यो मनुष्यो इन्द्रः कुत्साय सारथयेऽशुषं शुष्णं कुयवं सदिवो रन्धयद्दिवोदासाय नवनवतिं शम्बरस्य पुरो व्यैरत्स सततमुपयोक्तव्यः ॥६॥
पदार्थः
(सः) (रन्धयत्) संराध्नोति (सदिवः) द्यावा सह (वर्त्तमानाम्) (सारथये) सुशिक्षिताय यानप्रचालकाय (शुष्णम्) बलम् (अशुषम्) अशुष्कमार्द्रम् (कुयवम्) कुत्सितसङ्गमम् (कुत्साय) निन्दिताय (दिवोदासाय) प्रकाशदात्रे (नवतिम्) (च) (नव) (इन्द्रः) सूर्यः (पुरः) पुराणि (वि) (ऐरत्) ऐरयति (शम्बरस्य) मेघस्य ॥६॥
भावार्थः
ये मनुष्या दुष्टं बलं कुशिक्षां च निवर्त्य बलसुशिक्षाभ्यां कुसंस्कारान्निवार्य शतसो बोधाञ्जनयन्ति ते सर्वदा पूज्या भवन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सूर्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो मनुष्यों को (इन्द्रः) सूर्य (कुत्साय) निन्दित (सारथये) अच्छे सीखे हुए या चलानेवाले के लिये (अशुषम्) गीले (शुष्णम्) बल (कुयवम्) कुत्सित सङ्गम और (सदिवः) प्रकाश के सहित वर्त्तमान अर्थात् अन्तरिक्षस्थ पदार्थों को (रन्धयत्) अच्छे प्रकार सिद्ध करता है (दिवोदासाय) प्रकाश देनेवाले के लिये (नव,नवतिम्,च) निन्यानवें (शम्बरस्य) मेघ के (पुरः) पुरों को (व्यैरत्) प्रेरित करता है (सः) वह उपयोग में लाना योग्य है ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य दुष्ट बल को और कुशिक्षा को निवार के बल और उत्तम शिक्षाओं से कुसंस्कारों को निवार के सैकड़ों बोधों को उत्पन्न करते हैं, वे सर्वदा पूज्य होते हैं ॥६॥
विषय
शुष्ण व शंबर का विनाश
पदार्थ
१. (सः) = वे (सदिवः) = दीप्तियुक्त प्रभु (सारथये) = अपना सारथ्य करते हुए अपने शरीररथ का उत्तम संचालन करते हुए (कुत्साय) = वासनाओं का संहार करनेवाले कुत्स के लिए (अशुषम्) = कभी भी न सूखनेवाले– न समाप्त होनेवाले (शुष्णम्) = 'काम' रूप शुष्णासुर को [जिस पर यह आक्रमण करता है, उसे सुखा डालता है] (रन्धयत्) = [rend] नष्ट करता है। उस शुष्णासुर को नष्ट करता है जो कि 'कुयवम्' बुराइयों को हमारे साथ जोड़नेवाला है [यु मिश्रणे] [कु+ यु] । 'काम' अन्य सब वासनाओं का मूल बनता है। २. (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (दिवः दासाय) = ज्ञान के भक्त के लिए (शम्बरस्य) = शक्ति को आवृत्त कर लेनेवाले शम्बरासुर के (नवतिं च नव निन्यानवे पुरः) = नगरियों को (व्यैरत्) = विदारित करता है।
भावार्थ
भावार्थ - जब हम अपने शरीररथ का संचालन करते हैं (मन हमें इधर उधर ले जानेवाला नहीं होता) उस समय प्रभु हमारी कामवासना को दूर करते हैं। हम ज्ञान के भक्त बनें तो प्रभु हमारे से ईर्ष्या को दूर करते हैं ।
विषय
जिज्ञासु का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( इन्द्रः ) सूर्य जिस प्रकार (कुत्साय) धान काटकर लानेवाले कृषक के हित के लिये ( अशुषं ) न सूखे, गीले २ ( कुयवं ) सामान्य जौ आदि धान्यकों भी ( शुष्णम् ) सूखा ( रन्धयत् ) कर देता है और ( दिवः दासाय ) प्रकाश देने के लिए ( शम्बरस्य ) आवरण करनेवाले मेघ के ( नव च नवतिं च ) ९९ ( पुरः ) खण्डों को ( वि ऐरत् ) विशेष रूप से संचालित करता है उसी प्रकार ( सः ) वह परमेश्वर (सदिवः) स्वयं तेज से युक्त और कामनावान् होकर ( कुत्साय सारथये ) स्तुति करनेवाले एवं समान रूप के ‘रथ’ अर्थात् रमण साधन आत्मा को तन्मय करनेवाले, रथस्वामी के साथ सारथि के समान, एक रथ में दो जवान, एक देह में दो जानों के समान जाननेवाले उपासक के हित के लिए ( अशुषं ) कभी न सूखनेवाले, सदा हरे भरे, ( कुयवं ) कदन्न के समान कुत्सित आचारणवाले ( शुष्णम् ) बलशाली काम वेग को भी ( रन्धयत् ) विनाश कर देता है । और ( दिवः दासाय ) इच्छानुसार दानशील, पुरुष के लिये वह परमेश्वर ( शम्बरस्य ) शान्ति के नाशक, आत्मा को घेरनेवाले अज्ञान के ( पुरः ) पालन करनेवाली वासनाओं या वासनाओं के उदय होने की नाड़ियों को ( वि ऐरत् ) विशेष रूप से छिन्न भिन्न करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । ३ पङ्क्तिः । ५, ७ भुरिक् पङ्क्तिः । ५ निचृत् पङ्क्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे दुष्ट बल व वाईट शिक्षण यांचे निवारण करून बल व उत्तम शिक्षणांनी कुसंस्काराचे निवारण करून शेकडो प्रकारचे ज्ञान उत्पन्न करतात ती सदैव पूज्य ठरतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light and energy of the sun in heaven, for the good of the guide and leader of humanity and for the man of piety, charity and dedication to Divinity, breaks the intensity of drought and the pestilence of good harvest, overcomes ninety and nine defensive walls of the dark cloud for rain and converts drought into showers and famine into plenty and fertility.$Thus the lord accomplishes the purposes of Divinity for humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The nature and functions of the sun are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The sun provides concrete knowledge and confidence to a bad or admonished driver of the coach to steer properly at the cross-roads with proper light signals. This it does in a nice manner. It also activates hundreds of towns with light. we should explore this solar energy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The mantra has given a number of towns at 99, which is just symbolic of the enormous number of the towns. Those who smash the power of wickeds along with their ignorance, they shake off the evil ingrained ideas and make people knowledgeable. Such people are always respected.
Foot Notes
(रन्धयत्) संराध्नोति = Accomplishes well. (सदिवः) द्यावा सह वर्त्तमानम् = With light. (सारथये) सुशिक्षिताय यानप्रचालकाय। = For a well trained driver. ( कुयवम् ) कुत्सितसङ्गमम् । = Sharp and admonished cross-roads. (दिवोदासाय) प्रकाशदात्रे = For the giver of the light. (पुरः) पुराणि। = Towns. (ऐरत्) ऐरयति । = Activates. (शम्बरस्य ) मेघस्य। = Of the clouds.
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