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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 36/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - त्वष्टा शुक्रश्च छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अ॒मेव॑ नः सुहवा॒ आ हि गन्त॑न॒ नि ब॒र्हिषि॑ सदतना॒ रणि॑ष्टन। अथा॑ मन्दस्व जुजुषा॒णो अन्ध॑स॒स्त्वष्ट॑र्दे॒वेभि॒र्जनि॑भिः सु॒मद्ग॑णः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒माऽइ॑व । नः॒ । सु॒ऽह॒वाः॒ । आ । हि । गन्त॑न । नि । ब॒र्हिषि॑ । स॒द॒त॒न॒ । रणि॑ष्टन । अथ॑ । म॒न्द॒स्व॒ । जु॒जु॒षा॒णः । अन्ध॑सः । त्वष्टः॑ । दे॒वेभिः॑ । जनि॑ऽभिः । सु॒मत्ऽग॑णः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमेव नः सुहवा आ हि गन्तन नि बर्हिषि सदतना रणिष्टन। अथा मन्दस्व जुजुषाणो अन्धसस्त्वष्टर्देवेभिर्जनिभिः सुमद्गणः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमाऽइव। नः। सुऽहवाः। आ। हि। गन्तन। नि। बर्हिषि। सदतन। रणिष्टन। अथ। मन्दस्व। जुजुषाणः। अन्धसः। त्वष्टः। देवेभिः। जनिऽभिः। सुमत्ऽगणः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 36; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे त्वष्टः सुमद्गणो जुजुषाणस्त्वं देवेभिर्जनिभिः सहाऽन्धसो भोगान्कुरु। अथ मन्दस्व हे सुहवा यूयं नोऽमेव बर्हिषि निसदतनास्मान् रणिष्टन हि नोऽस्मानागन्तन ॥३॥

    पदार्थः

    (अमेव) गृहं यथा (नः) अस्माकम् (सुहवाः) सुष्ठु प्रशंसिताः (आ) (हि) खलु (गन्तन) गच्छत (नि) नितराम् (बर्हिषि) अन्तरिक्षे (सदतन)। अत्र संहितायामिति दीर्घः (रणिष्टन) शब्दयत (अथ) आनन्तर्य्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (मन्दस्व) आनन्दय (जुजुषाणः) भृशं सेवमानः (अन्धसः) अन्नस्य (त्वष्टः) विच्छेदकः (देवेभिः) दिव्यगुणैः (जनिभिः) जन्मभिः (सुमद्गणः) सुमतो गणाः यस्य सः ॥३॥

    भावार्थः

    यथाऽन्तरिक्षे स्थिता वायवः सर्वान् प्राप्नुवन्ति त्यजन्ति च तथा विद्वांसो धार्मिका धर्मं प्राप्नुयुर्दुष्टा अधर्मं च त्यजेयुः। सत्यं चोपदिशन्तु ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (त्वष्टः) छिन्न-भिन्न करनेवाले पुरुष (सुमद्गणः) अच्छे माने हुए गण जिनके (जुजुषाणः) ऐसे निरन्तर सेवा करते हुए आप (देवेभिः) दिव्यगुणों और (जनिभिः) जन्मों के साथ (अन्धसः) अन्न के भोगों को कीजिये (अथ) इसके अनन्तर (मन्दस्व) आनन्दित हूजिये, हे (सुहवाः) अच्छे प्रकार प्रशंसा को प्राप्त तुम लोग (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में (नः) हमारी (अमेव) घर को जैसे-वैसे अन्तरिक्ष में (नि,सदतन) निरन्तर जाओ पहुँचो हमें (रणिष्टन) उपदेश देओ (हि) निश्चय से हम लोगों को (आ,गन्तन) आओ प्राप्त होओ ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे अन्तरिक्ष में स्थित पवन सबको प्राप्त होते और छोड़ते हैं, वैसे विद्वान् धार्मिक जन धर्म को प्राप्त हों तथा दुष्टजन अधर्म को त्याग करें और सत्य का उपदेश दें ॥३॥

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    विषय

    देवों का सह निवास

    पदार्थ

    १. (सुहवा:) = हे शोभन आह्वान व पुकारवाले देवो! (नः) = हमें (अमा इव) = साथ-साथ ही (हि) = निश्चय से (आगन्तन) = प्राप्त होओ। एक दिव्यगुण को अपनाने का प्रयत्न करें तो सब अच्छाइयाँ हमारे अन्दर आती ही हैं। सब अच्छाइयाँ एक ही तत्त्व के विभिन्न रूप हैं। हे देवो! (बर्हिषि) = हमारे वासनाशून्य हृदय में (निसदतन) = निश्चय से बैठो और (रणिष्टन) = वहाँ उत्तमता से रमण करो [रमध्वम् सा०] २. (अथा) = अब हे त्वष्टः निर्माण के देव ! (देवेभिः) = सब दिव्यगुणों के साथ (जनिभिः) = शक्तियों के विकास के साथ (सुमद्गणः) = [सु मत् गण] उत्तम चेतना युक्त इन्द्रियगणोंवाला होकर (अन्धसः जुजुषाण:) = सोम का प्रीतिपूर्वक सेवन करता हुआ तू (मन्दस्व) = आनन्द का अनुभव कर। हम स्वयं निर्माण कार्यों में प्रवृत्त हों, दिव्यगुणों को धारण करें, शक्तियों का विकास करें, इन्द्रियगण को चैतन्य से युक्त करें। इस सबके लिए सोमरक्षण करें। इसी में आनन्द है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे जीवन में सब दिव्यगुणों का रमण हो । सोम के रक्षण से हमारी प्रवृत्ति निर्माण की हो, न कि ध्वंस की। हम दिव्यगुणों के साथ शक्ति का विकास करें। हमारी सब इन्द्रियाँ चैतन्ययुक्त हों - ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हों ।

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    विषय

    राष्ट्र के शासकों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( सुहवाः ) उत्तम नाम, ख्याति और प्रशंसा से युक्त ( नः ) हमें ( अमाइव ) अपने आश्रय गृह के समान निर्भय होकर (आ गन्तन) आओ । ( बर्हिषि ) उत्तम आसन और वृद्धिशील प्रजाजन के ऊपर अध्यक्ष और उपदेष्टा रूप से ( नि सदतन ) नियत रूप से विराजो ! और (रणिष्टन) उत्तम उपदेश, आज्ञाएं प्रदान करो । हे (त्वष्टः) सूर्य के समान तेजस्विन् ! अज्ञान के विच्छेदक ! तू भी (सुमद्-गणः) सुख और उत्तम गुणवान् सहयोगी जनों और ( जनिभिः ) उत्पादक विदुषी स्त्रियों और ( देवेभिः ) व्यवहारकुशल विद्वान् तेजस्वी पुरुषों सहित (अन्धसः) अन्नों को ( जुजुषाणः ) सेवन करता हुआ ( मन्दस्व ) तृप्त, सुप्रसन्न होकर रह।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ १ इन्द्रो मधुश्च। २ मरुतो माधवश्च। ३ त्वष्टा शुक्रश्च। ४ अग्निः शुचिश्च। ५ इन्द्रो नभश्च। ६ मित्रावरुणौ नभस्यश्च देवताः॥ छन्दः— १,४ स्वराट् त्रिष्टुप् । ३ ५, ६ भुरिक त्रिष्टुप् । २, ३ जगती ॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे अंतरिक्षातील वायू सर्वांना प्राप्त होतात व त्यागतात तसे विद्वान धार्मिक लोकांनी धर्म धारण करावा व दुष्टांनी अधर्माचा त्याग करावा. सत्याचा उपदेश करावा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Maruts, invoked and invited with love and respect, come to us as to your own home, ride the skies and raise the voice of victory. Tvashta, lord maker of forms and institutions, leader of the republics, commanding high intelligence and wisdom, come with the brilliant creators and experts of production, taste the sweets of our yajnic food and celebrate the victory with us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of learned persons is further developed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Tvashta (destroyer of all ignorance and miseries)! accompanied by a host of happy followers and serving all, you enjoy good food and other articles and establish your good divine virtues and lineage. O enlightened persons! you are well praised by us. Come to us like your own home and take your seats on the Asanas (a small carpet for sitting). May one deliver good sermons to us for our welfare.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the winds in the firmament come and there should persons after leave in the same manner, the righteous learned always resort to Dharma (righteousness). The wicked persons should give up all their un-righteousness, while enlightened persons teach truth to all.

    Foot Notes

    (त्वष्ट:) विच्छेदक। = O destroyer of ignorance and miseries ! (जुजुषाण:) भृशं सेवमान:। = Serving well the people. (अन्धस:) अन्नस्य। अन्ध इत्यन्नाम् (N. G. 2. 7) =Of good food. (रणिष्टन) शब्दयतः। = Teach or deliver sermons. ( जनिभिः) जन्मभिः | जनिभिः is from जनी-प्रादुभार्वे। Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and many other translators have interpreted the word जनिभि: as with wives, like Rishi Dayananda Sarasvati = With births.

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