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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 32/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वं स॒द्यो अ॑पिबो जा॒त इ॑न्द्र॒ मदा॑य॒ सोमं॑ पर॒मे व्यो॑मन्। यद्ध॒ द्यावा॑पृथि॒वी आवि॑वेशी॒रथा॑भवः पू॒र्व्यः का॒रुधा॑याः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । स॒द्यः । अ॒पि॒बः॒ । ज॒तः । इ॒न्द्र॒ । मदा॑य । सोम॑म् । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । यत् । ह॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आ । अवि॑वेशीः । अथ॑ । अ॒भ॒वः॒ । पू॒र्व्यः । का॒रुऽधा॑याः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं सद्यो अपिबो जात इन्द्र मदाय सोमं परमे व्योमन्। यद्ध द्यावापृथिवी आविवेशीरथाभवः पूर्व्यः कारुधायाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। सद्यः। अपिबः। जातः। इन्द्र। मदाय। सोमम्। परमे। विऽओमन्। यत्। ह। द्यावापृथिवी इति। आ। अविवेशीः। अथ। अभवः। पूर्व्यः। कारुऽधायाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 32; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    कथं जन्मनः साफल्यं स्यादित्याह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! त्वं परमे व्योमन् सद्यो जातः सन् मदाय सोममपिबोऽथ यद्यः पूर्व्यः कारुधाया अभवः स त्वं ह द्यावापृथिवी आविवेशीः ॥१०॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (सद्यः) शीघ्रम् (अपिबः) पिबसि (जातः) उत्पन्नः सन् (इन्द्र) इन्द्रियाऽधिष्ठातर्जीव (मदाय) आनन्दाय (सोमम्) बलबुद्धिवर्धकं रसम् (परमे) सर्वोत्कृष्टे (व्योमन्) व्यापके (यत्) यः (ह) किल (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (आ) समन्तात् (अविवेशीः) पुनः पुनराविश (अथ) आनन्तर्ये (अभवः) भवेः (पूर्व्यः) पूर्वैः कृतः (कारुधायाः) यः कारून् शिल्पीन् दधाति सः ॥१०॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ब्रह्मचर्येण शीघ्रं विद्वांसो भूत्वा युक्ताऽऽहारविहारेणाऽरोगाः सन्तः परमात्मन्यासीनाः सृष्टिपदार्थविद्यासु सर्वे प्रविशन्तु येन जन्मसाफल्यं स्यात् ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    जिस प्रकार जन्म की सफलता हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! (त्वम्) आप (परमे) उत्तम (व्योमन्) आकाशवत् व्यापक आत्मज्ञान में (सद्यः) शीघ्र (जातः) प्रकट वा प्रसिद्ध हुए (मदाय) आनन्द के लिये (सोमम्) बल और बुद्धि के बढ़ानेवाले रस को (अपिबः) पीते हैं (अथ) इसके अनन्तर (यत्) जो (पूर्व्यः) पूर्व लोगों में श्रेष्ठ (कारुधायाः) शिल्पी जनों का धारणकर्त्ता (अभवः) हो वह आप (ह) निश्चय से (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि में (आ) सब ओर से (आविवेशीः) बारम्बार प्रवेश कीजिये ॥१०॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! ब्रह्मचर्य्य से शीघ्र विद्वान् और नियमित आहार-विहार से रोगरहित हो के परमात्मा की आराधना करते हुए सृष्टि और पदार्थविद्याओं में आप सब प्रवेश करें, जिससे जन्म की सफलता हो ॥१०॥

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    विषय

    प्रभुस्मरण व सोमरक्षण

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (जातः) = प्रादुर्भूत हुए हुए (परमे व्योमन्) = इस हृदय-देश रूप परम आकाश में (सद्यः) = शीघ्र ही (सोमं अपिब:) = सोम का पान करते हैं और (मदाय) = हर्ष के लिए होते हैं। हृदय में प्रभु का प्रकाश होते ही वासनाओं का विनाश होता है, सोम का [वीर्य का] रक्षण होता है और जीवन में उल्लास का अनुभव होता है । [२] (यत्) = जो (ह) = निश्चय से आप (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक में (आविवेशी) = प्रवेश करते हैं उनमें व्याप्त होते हैं तो (अथा) = तब (पूर्व्यः) = हमारा पालन व पूरण करनेवालों में सर्वोत्तम (अभवः) = होते हैं और (कारुधाया:) = कुशलतापूर्वक सबका निर्माण व धारण करनेवाले होते हैं, हमारे द्यावापृथिवी, अर्थात् मस्तिष्कों व शरीरों का भी पालन व पूरण व धारण प्रभु ही करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे हृदयों में प्रभु का प्रकाश होने पर शरीर में सोमरक्षण होकर आनन्द की प्राप्ति होती है। हमारे मस्तिष्क व शरीर का तभी उत्तमता से धारण होता है।

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    विषय

    राजा जीव और ईश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्य के स्वामिन् ! इन्द्रिय सामथ्यों के अधिष्ठाता जीवात्मन् ! (त्वं) तू (सद्यः) शीघ्र ही (जातः) उत्पन्न होकर वा उत्तम गुणों में प्रकाशित होकर (परमे) सबसे उत्कृष्ट (व्योमन्) विशेष रूप से सर्वत्र व्यापक, सर्वरक्षक परमेश्वर के आश्रय रहकर (मदाय) अति आनन्द लाभ करने के लिये (सोमम्) परमैश्वर्य और ब्रह्मानन्द रस को (अपिबः) उपभोग कर। इसी प्रकार हे (इन्द्र) परमेश्वर ! तू (परमे व्योमन्) परम रक्षकस्वरूप में सदा प्रकट होकर (मदाय) परम आनन्द देने के लिये (सोमम् अपिबः) ज्ञानवान् जीव की रक्षा कर। (यत् ह) निश्चय से तू (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि में (आविवेशीः) व्यापक हो रहा है। इसी प्रकार जीव (द्यावापृथिवी) प्राण और अपान वा माता पिता के बीच प्रविष्ट रहता है। तू (अथ) और वह तू (कारुधायाः) समस्त विश्व के विधायक जगदुत्पादक सामर्थ्यों, स्तुतिकर्त्ता विद्वानों और शिल्पियों को भी धारण करने वाला होकर सबसे (पूर्व्यः) पूर्व ही (अभवः) विद्यमान है। (२) इसी प्रकार राजा सब से ऊंचे पद पर स्थित होकर सबके हर्ष के लिये राष्ट्र की रक्षा करे। वह स्व और पर दोनों पक्ष में समान रहे, वह सब शिल्पियों का रक्षक पोषक हो। इति दशमोवर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१–३, ७–६, १७ त्रिष्टुप्। ११–१५ निचृत्त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० भुरिक् पङ्क्तिः। ५ निचृत् पङ्क्तिः। ६ विराट् पङ्क्तिः। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ब्रह्मचर्याने शीघ्र विद्वान बनून व नियमित आहार-विहाराने रोगरहित होऊन परमेश्वराची आराधना करीत सृष्टी व पदार्थविद्येचा अभ्यास करा, ज्यामुळे जन्म सफल होईल. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, mighty lord of light and senses and mind, as soon as you arise and manifest, you drink up the soma vitalities of the holiest regions of life and nature for pleasure and growth, since then, you pervade the heaven and earth and then you grow to be the maker and sustainer of the artists of beauty and singers of divinity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The key to success in human life is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (soul) ! you are the master of the senses and keep them wrapped up in the meditation to God. You drink the juice of Soma (knowledge coupled with devotion), which increases the power and intellect and the juice of the invigorating plants and herbs like the Soma (Moon plant). Taught and trained by the experienced teachers of advanced age, you become the upholder of the artists and technicians.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N./A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should acquire good knowledge early by the observance of Brahmacharya (continence) taking proper and nourishing diet and leading regular lives. Being seated in Him (absorbed in the meditation to God) acquire the correct knowledge of the Physics and other sciences, so that your life may be successful.

    Translator's Notes

    That by Indra is also meant soul. Besides God is quite evident from the well-known fact that the senses are called Indriyas as they manifest the power of the Soul, as stated in the aphorism of Panini's Ashtadhyāyï quoted above.

    Foot Notes

    (इन्द्र ) इन्द्रियाऽधिष्ठातर्जीव । इन्द्रियमिन्द्रलिंगमिन्द्रदृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा । (अष्टाध्याय्याम् 5, 2, 93 ) इन्द्र आत्मा इति काशिकायाम् | = O soul ! the lord or master of the senses. ( कारुधायाः) यः कारून् शिल्पिनो दधाति सः । करोतीति कारुः कर्ता शिल्पीवेति (दयानन्द सरस्वती भाष्ये) = Upholder or sustainer of the artists and artisans.

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