ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 32/ मन्त्र 14
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि॒वेष॒ यन्मा॑ धि॒षणा॑ ज॒जान॒ स्तवै॑ पु॒रा पार्या॒दिन्द्र॒मह्नः॑। अंह॑सो॒ यत्र॑ पी॒पर॒द्यथा॑ नो ना॒वेव॒ यान्त॑मु॒भये॑ हवन्ते॥
स्वर सहित पद पाठवि॒वेष॑ । यत् । मा॒ । धि॒षणा॑ । ज॒जान॑ । स्तवै॑ । पु॒रा । पार्या॑त् । इन्द्र॑म् । अह्नः॑ । अंह॑सः । यत्र॑ । पी॒पर॑त् । यथा॑ । नः॒ । ना॒वाऽइ॑व । यान्त॑म् । उ॒भये॑ । ह॒व॒न्ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विवेष यन्मा धिषणा जजान स्तवै पुरा पार्यादिन्द्रमह्नः। अंहसो यत्र पीपरद्यथा नो नावेव यान्तमुभये हवन्ते॥
स्वर रहित पद पाठविवेष। यत्। मा। धिषणा। जजान। स्तवै। पुरा। पार्यात्। इन्द्रम्। अह्नः। अंहसः। यत्र। पीपरत्। यथा। नः। नावाऽइव। यान्तम्। उभये। हवन्ते॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 32; मन्त्र » 14
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यद्या धिषणा मा विवेष जजान तामहं स्तवै याह्न इन्द्रं पुरा पार्याद्यत्रांऽहसो मां पीपरद्यथा नो यान्तमुभये नावेव हवन्ते तथा नोऽस्मान्सर्व आह्वयन्तु ॥१४॥
पदार्थः
(विवेष) व्याप्नोति (यत्) या (मा) माम् (धिषणा) वाणी (जजान) जनयति (स्तवै) प्रशंसानि (पुरा) (पार्यात्) पारंगमयेत् (इन्द्रम्) ऐश्वर्य्यम् (अह्नः) दिवसात् (अंहसः) अपराधात् (यत्र) यस्मिन् व्यवहारे (पीपरत्) पारयेत् (यथा) येन प्रकारेण (नः) अस्मभ्यम् (नावेव) नौवत् (यान्तम्) गच्छन्तम् (उभये) दूरसमीपस्था जनाः (हवन्ते) आह्वयन्ते ॥१४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सा वाणी प्रज्ञा च सङ्ग्राह्या या सर्वदा दुष्टाचारात्पृथग्रक्ष्य दुःखान्नौवत्पारं नयेत् ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यत्) जो (धिषणा) वाणी (मा) मुझको (विवेष) व्याप्त होती और (जजान) उत्पन्न करती है उसकी मैं (स्तवै) प्रशंसा करूँ जो (अह्नः) दिन से (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को (पुरा) प्रथम (पार्य्यात्) पार पहुँचावे वा (यत्र) जिस व्यवहार में (अंहसः) अपराध से मुझको (पीपरत्) पार लगावे वा (यथा) जिस प्रकार से (नः) हम लोगों के अर्थ (यान्तम्) जाते हुए को (उभये) दूर और समीप में वर्त्तमान लोग (नावेव) नौका के सदृश (हवन्ते) पुकारते हैं, वैसे हम लोगों को सब लोग पुकारें ॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि उस वाणी और बुद्धि को ग्रहण करें, जो सब समय में दुष्ट आचरण से पृथक् रखके दुःख से नौका के सदृश पार उतारे ॥१४॥
विषय
जीवन में प्रभुस्मरण (मृत्यु से पूर्व ही )
पदार्थ
[१] (यत्) = जब (मा) = मुझे (धिषणा) = बुद्धि (विवेष) = व्याप्त करती है और (जजान) = मेरे में प्रादुर्भूत व विकसित होती है, तब मैं (पार्यात् अह्नः पुरा) = जीवन के परले पार होनेवाले दिन से पूर्व ही, अर्थात् मृत्युदिवस से पहले ही (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का (स्तवै) = स्तवन करता हूँ । समझदार व्यक्ति जीवनकाल में प्रभु का स्मरण करता है ताकि उसकी शक्ति ठीक बनी रहे और वह वैषयिकपंक में न फँस जाए। [२] इसलिए मैं प्रभु का स्मरण करता हूँ कि (यथा) = जिससे वे प्रभु (यः) = हमें (अंहंस:) = पाप से (पीपरत्) = पार करते हैं। पाप से वे प्रभु हमें इस प्रकार पार ले जाते हैं कि (यत्र) = जहाँ पाप से पार हो जाने पर इस उपासक को (उभये) = भौतिक व अध्यात्म वृत्तिवाले दोनों ही पुरुष इस प्रकार (हवन्ते) = पुकारते हैं, (इव) = जैसे कि (नावा) = नौका से (यान्तम्) = जाते हुए को (उभये) = दोनों तटों पर होनेवाले लोग (हवन्ते) = पुकारते हैं। इस पार के लोग यदि भौतिकवृत्ति के हैं, तो उस पार के लोग अध्यात्मवृत्ति के हैं। उपासक ब्रह्मरूप नाव से पार जानेवाला है। उपासक को भौतिकवृत्ति के लोग उत्कृष्ट होने के कारण आदर देते हैं तथा अध्यात्मवृत्तिवालों के प्रेम का यह पात्र होता है।
भावार्थ
भावार्थ– समझदार व्यक्ति मृत्यु से पूर्व ही प्रभु का स्मरण करता है । यह भौतिकवृत्तिवालों से के आदर व अध्यात्मवृत्तिवालों के प्रेम का पात्र होता है।
विषय
रक्षक सर्वतारक प्रभु।
भावार्थ
(यत्) जब (मा) मुझे यह (धिषणा) उत्तम बुद्धि (विवेष) प्राप्त हो और प्रकट हो जाय कि मुझे (पार्यात् अह्नः पुरा) पार लगाने वाले दिन से पूर्ण ही (इन्द्रम्) उस ऐश्वर्यवान् पुरुष की (स्तवै) स्तुति करना आवश्यक है तब (यथा) जिस प्रकार से भी हो और (यत्र) जिस काल और जिस देश में भी होऊं वह (नः) हमें (अंहसः) पाप से (पीपरत्) रक्षा करता है। और (नावा इव यान्तम्) नाव से जाते हुए यात्री को जिस प्रकार (उभये हवन्ते) दोनों तटों के लोग पुकारते हैं उसी प्रकार सबको तारने वाले प्रभु के आश्रय से जाने वाले पुरुष को भी (उभये) सांसारिक और पारमार्थिक दोनों क्षेत्रों के लोग (हवन्ते) पुकारते हैं, उसको आदर से देखते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१–३, ७–६, १७ त्रिष्टुप्। ११–१५ निचृत्त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० भुरिक् पङ्क्तिः। ५ निचृत् पङ्क्तिः। ६ विराट् पङ्क्तिः। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी त्याच वाणी व बुद्धीचे ग्रहण करावे, जी सदैव दुष्ट आचरणापासून पृथक ठेवून दुःखातून नौकेप्रमाणे पार पाडते. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When thought is stirred and words arise in me in praise of Indra before the end of the day with gratitude how he would take us over across the world of sin and evil, then people too on both sides of the flood call upon him as captain of the ship on the move to take them over the seas to the shores of life beyond.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of duties of human beings is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Let me praise the speech that flows from my mouth and gives birth to so many (nice) words. It may lead me towards the attainment of prosperity in day-time and take me far away from all the sins. May all invoke us early for protection and advice, like the passengers call for help to fellow passengers in a boat, while men outcry on both banks of the river.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should always acquire and preserve that intellect and speech which keep them away from all evil actions and take them across all miseries like a boat.
Foot Notes
(धिषणा) वाणी । धिषणा इति वाङ्नाम। = (N.G. 1, 11) = Speech. (इन्द्रम) ऐश्वर्य्यम्। = (इन्द्रम्) इदि परमेश्वर्ये (भ्वा०) = Great wealth, prosperity.
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