ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 32/ मन्त्र 9
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अद्रो॑घ स॒त्यं तव॒ तन्म॑हि॒त्वं स॒द्यो यज्जा॒तो अपि॑बो ह॒ सोम॑म्। न द्याव॑ इन्द्र त॒वस॑स्त॒ ओजो॒ नाहा॒ न मासाः॑ श॒रदो॑ वरन्त॥
स्वर सहित पद पाठअद्रो॑घ । स॒त्यम् । तव॑ । तत् । म॒हि॒ऽत्वम् । स॒द्यः । यत् । जा॒तः । अपि॑बः । ह॒ । सोम॑म् । न । द्यावः॑ । इ॒न्द्र॒ । त॒वसः॑ । ते॒ । ओजः॑ । न । अहा॑ । न । मासाः॑ । श॒रदः॑ । व॒र॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अद्रोघ सत्यं तव तन्महित्वं सद्यो यज्जातो अपिबो ह सोमम्। न द्याव इन्द्र तवसस्त ओजो नाहा न मासाः शरदो वरन्त॥
स्वर रहित पद पाठअद्रोघ। सत्यम्। तव। तत्। महिऽत्वम्। सद्यः। यत्। जातः। अपिबः। ह। सोमम्। न। द्यावः। इन्द्र। तवसः। ते। ओजः। न। अहा। न। मासाः। शरदः। वरन्त॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 32; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अद्रोघेन्द्र जगदीश्वर यद्यः सद्यो जातः सूर्यः सोममपिबस्तद्यस्य तव सत्यं महित्वं नोल्लङ्घयति ते तवस ओजो न द्यावो नाहा न मासाः शरदश्च वरन्त तं ह भवन्तं वयं निरन्तरं सेवेमहि ॥९॥
पदार्थः
(अद्रोघ) द्रोहरहित (सत्यम्) सत्यभाषणादिक्रियोज्ज्वलम् (तव) (तत्) सः (महित्वम्) महिमानम् (सद्यः) (यत्) यः (जातः) प्रकटः (अपिबः) पिबति (ह) किल (सोमम्) सर्वस्माज्जगतो रसम् (न) (द्यावः) प्रकाशमया लोकाः (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रद (तवसः) बलस्य (ते) तव (ओजः) पराक्रमम् (न) (अहा) अहानि दिनानि (न) निषेधे (मासाः) चैत्रादयः (शरदः) वसन्तादयः (वरन्त) वारयन्ति ॥९॥
भावार्थः
हे मनुष्या यथा परमेश्वरः कञ्चिन्न द्रुह्यति तथा यूयमपि भवत यस्य सृष्टौ सूर्य्यादयो महान्तः पदार्था विद्यन्ते यस्य स्वरूपस्य प्रभावस्य वान्तं कोऽपि न गच्छति स एवाऽस्माकमिष्टदेवोऽस्ति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (अद्रोघ) द्रोह से रहित (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के दाता जगदीश्वर ! (यत्) जो (सद्यः) तत्काल (जातः) प्रकट हुआ सूर्य (सोमम्) सब जगत् से रस को (अपिबः) पीता-खींचता है (तत्) वह जिन (तव) आपके (सत्यम्) सत्य (महित्वम्) महिमा को (न) नहीं उल्लङ्घन कर सकता है (ते) आपके (तवसः) बल के (ओजः) प्रभाव को न (द्यावः) प्रकाशस्वरूप लोक (न) न (अहा) दिन (न) न (मासाः) चैत्र आदि महीने और न (शरदः) वसन्त आदि ऋतुयें (वरन्त) धारण करती हैं (भवन्तं, ह) उन्हीं आपकी हम लोग निरन्तर सेवा करें ॥९॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे परमेश्वर किसी से द्रोह नहीं करता है, वैसे आप लोग भी हूजिये। जिस परमेश्वर की सृष्टि में सूर्य्य आदि बड़े-बड़े पदार्थ विद्यमान हैं और जिसके स्वरूप वा प्रभाव के अन्त को कोई भी नहीं प्राप्त होता है, वही हम लोगों का इष्टदेव है ॥९॥
विषय
दिक् कालानवच्छिन्न प्रभु
पदार्थ
[१] हे (अद्रोघ) = द्रोहवर्जित प्रभो ! सब प्रकार की द्रोह भावनाओं से रहित प्रभो ! (तव) = आपकी (तत् महित्वम्) = वह महिमा (सत्यम्) = सत्य है, (यत्) = जो कि (जात:) = प्रादुर्भूत हुए हुए आप (ह) निश्चय से (सोमं अपिब:) = सोमपान करते हो। वस्तुतः जिस समय हम ध्यान द्वारा हृदय में प्रभु को आसीन करते हैं, त्यों ही वासनाओं का विनाश हो जाता है और हम शरीर में सोम का रक्षण कर पाते हैं। यही प्रादुर्भूत हुए हुए प्रभु का सोमपान है। [२] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (तवस:) = महान् (ते) = आपके (ओजः) = ओज को (द्यावः) = द्युलोक से उपलक्षित सब लोक (न वरन्त) = आवृत नहीं कर पाते। आपका ओज सर्वलोकातीत है। लोकों की तरह आपके ओज को (अहा) = दिन (न वरन्त) = आवृत नहीं करते। (मासाः) = चैत्र आदि मास भी आपके तेज को आवृत नहीं कर पाते। (शरदः) = वर्ष भी आपके उस तेज को परिच्छिन्न करनेवाले नहीं होते। आपका तेज स्थान व समय से सीमित नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु दिक् काल आदि से अनवच्छिन्न व अनन्त हैं ।
विषय
जगद्-धारक वायुवत् राजा का कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (अद्रोघ) किसी से भी द्रोह या द्वेष बुद्धि न करनेहारे ! (तव) तेरा (तत्) वह महान् अपरिमित (सत्यं महित्वं) सच्चा महान् सामर्थ्य है (यत्) जिससे तू (जातः) प्रकट होकर (ह) निश्चय से (सोमम्) समस्त ऐश्वर्य और सामर्थ्य को (अपिबः) पालन और उपभोग करता है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! (तवसः) बलशाली (ते) तेरे और (ते तवसः) तेरे बल के (ओजः) पराक्रम और प्रताप को (न द्यावः) न सूर्य आदि तेजस्वी लोक, न भूमिगत प्रजाएँ (न अहा) न दिन (न मासाः) न मास और (न शरदः) न शरद् आदि ऋतु गण वा वर्ष ही (वरन्त) निवारण कर सकते हैं। प्रत्युत तेरे प्रताप को सब मानते हैं, वह स्थिर है। (२) परमेश्वर भी मित्र है वह किसी से द्रोह नहीं करता। वह समस्त महान् सामर्थ्य को धारता है। सूर्यादि लोक, दिन, मास, ऋतु आदि भी उसके महान् बल पराक्रम को समाप्त नहीं कर सकते, वह अनन्त बलशाली है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१–३, ७–६, १७ त्रिष्टुप्। ११–१५ निचृत्त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० भुरिक् पङ्क्तिः। ५ निचृत् पङ्क्तिः। ६ विराट् पङ्क्तिः। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जसा परमेश्वर कुणाशी द्रोह करीत नाही तसे तुम्हीही व्हा. ज्या परमेश्वराच्या सृष्टीत सूर्य इत्यादी महान पदार्थ विद्यमान असतात, ज्याचे स्वरूप किंवा अंत कुणालाही लागत नाही तोच आमचा इष्ट देव आहे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of love free from jealousy, negativity, discrimination or hypocrisy, ever true, inviolable and eternal is that greatness and glory of yours, that sun which, as it arises, drinks up the soma of nature to recreate, augment and return it to nature. Neither the heavens of light, nor days, nor months, nor seasons, nor years can evade or prevent or exceed or transgress the might and majesty of yours, omnipotent as you are.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of enlightened persons are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Guileless God ! you are free from all malice and give great wealth. The sun as soon as it was generated by You began to drink the Soma ( sap of this world). We all worship and serve You constantly whose true greatness is never transgressed by the Sun. Neither the heaven, nor days, months, and years can transgress Your power. You are almighty and irresistible.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should also be free from all malice as God is. Our adorable God is He, in Whose world there are vast and mighty substances like the Sun, and none can ever find His end or limit because of His Glory and Power.
Foot Notes
(अद्रोध) द्रोहरहित। = Free from all malice. (सोमम्) सर्वस्माज्जगतो रसम् । रसः सोमः । (Stph 7, 3, 1, 3) = The sap of the world. (तवस:) बलस्य | तव इति बलनाम । (N.G. 2, 9) = Of force or power.
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