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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 32/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त इन्न्व॑स्य॒ मधु॑मद्विविप्र॒ इन्द्र॑स्य॒ शर्धो॑ म॒रुतो॒ य आस॑न्। येभि॑र्वृ॒त्रस्ये॑षि॒तो वि॒वेदा॑म॒र्मणो॒ मन्य॑मानस्य॒ मर्म॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । इत् । नु । अ॒स्य॒ । मधु॑ऽमत् । वि॒वि॒प्रे॒ । इन्द्र॑स्य । शर्धः॑ । म॒रुतः॑ । ये । आस॑न् । येभिः॑ । वृ॒त्रस्य॑ । इ॒षि॒तः । वि॒वेद॑ । अ॒म॒र्मणः॑ । मन्य॑मानस्य । मर्म॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त इन्न्वस्य मधुमद्विविप्र इन्द्रस्य शर्धो मरुतो य आसन्। येभिर्वृत्रस्येषितो विवेदामर्मणो मन्यमानस्य मर्म॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। इत्। नु। अस्य। मधुऽमत्। विविप्रे। इन्द्रस्य। शर्धः। मरुतः। ये। आसन्। येभिः। वृत्रस्य। इषितः। विवेद। अमर्मणः। मन्यमानस्य। मर्म॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 32; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः के विद्वांसो भवन्तीत्याह।

    अन्वयः

    ये मरुतोऽस्येन्द्रस्य शर्द्धो विविप्रे आसन्मधुमदिद्विविप्रे यो येभिरिषितो वृत्रस्येवाऽमर्मणो मर्म मन्यमानस्य विवेद ते स च नु स्वाभीष्टं प्राप्नुवन्ति ॥४॥

    पदार्थः

    (ते) पूर्वोक्ताः (इत्) एव (नु) सद्यः (अस्य) वर्त्तमानस्य (मधुमत्) बहूनि मधुरादिगुणयुक्तानि वस्तूनि विद्यन्ते यस्मिँस्तत् (विविप्रे) क्षिपन्ति (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्तस्य (शर्धः) बलम् (मरुतः) वायव इव वेगबलयुक्ताः (ये) (आसन्) आस्ये (येभिः) यैः (वृत्रस्य) मेघस्येव शत्रोः (इषितः) प्रेरितः (विवेद) विजानीयात् (अमर्मणः) अविद्यमानं मर्म यस्मिंस्तस्य (मन्यमानस्य) विज्ञातुः (मर्म) यस्मिन्प्रहते म्रियते तत् ॥४॥

    भावार्थः

    ये धनादिनैश्वर्य्येण सर्वस्य सुखं वर्धयित्वा दुःखानि निर्वाय सर्वान् प्रसादयन्ति त एव धार्मिका विद्वांसो मन्तव्याः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन लोग विद्वान् होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    (ये) जो (मरुतः) पवनों के सदृश वेग और बल से युक्त पुरुष (अस्य) इस वर्त्तमान (इन्द्रस्य) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त पुरुष के (शर्धः) बल को (विविप्रे) फेंकते हैं (आसन्) मुख में (मधुमत्) बहुत मधुर आदि गुणों से युक्त वस्तुओं से पूर्ण पदार्थ को (इत्) ही रखते हैं जो (येभिः) जिन्हों से (इषितः) प्रेरित हुआ (वृत्रस्य) मेघ के सदृश शत्रु वा (अमर्मणः) मर्म से रहित (मर्म) प्रहार करने से नाश होनवाले स्थान को (मन्यमानस्य) जाननेवाले को (विवेद) जानें (ते) वे पूर्व कहे हुए और वह पुरुष (नु) निश्चय अपने वाञ्छित फल को प्राप्त होते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    जो लोग धन आदि ऐश्वर्य्य से सबके सुख की वृद्धि और दुःखों का निवारण करके सबलोगों को प्रसन्न करते हैं, उनको ही धार्मिक विद्वान् मानना चाहिये ॥४॥

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    विषय

    इन्द्र के साथी मरुत्

    पदार्थ

    [१] (ये) = जो (मरुतः) = प्राण (आसन्) = थे (ते) = वे ही (इत् नु) = निश्चय से (अस्य इन्द्रस्य) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के (मधुमत् शर्ध:) = माधुर्य से युक्त बल को (विविप्रे) = [विप् क्षेपणे-प्रेरणे] प्रेरित करते हैं। प्राणों द्वारा ही शरीर में शक्ति का रक्षण होता है और नीरोगता व निर्मलता से जीवन माधुर्य-युक्त होता है, [२] ये बल वे होते हैं (येभिः) = जिनसे इषितः प्रेरित हुआ हुआ यह इन्द्र (अमर्मणः) = अज्ञात मर्मवाले (मन्यमानस्य) = अतएव अहन्तव्यता के गर्ववाले (वृत्रस्य) = ज्ञान के आवरणभूत कामदेव के (मर्म) = मर्म को (विवेद) = अच्छी प्रकार जान लेता है। इस ज्ञानाग्नि के बल द्वारा ही इस काम का यह विध्वंस कर देता है। यह सब कार्य इन्द्र इन मरुतों के साहाय्य से ही कर पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना द्वारा रेतः कणों की ऊर्ध्वगति होकर वह बल प्राप्त होता है, जिससे कि इन्द्र वृत्र का [काम का] विध्वंस करनेवाला होता है ।

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    विषय

    तेजस्वी राजा के वायुवत् बलवर्धक जन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (मरुतः) वायुगण ही (इन्द्रस्य शर्धं) विद्युत् के बल को धारण करके (इन्द्रस्य मधुमत् शर्धः विविप्रे) सूर्य या विद्युत् के बल से युक्त बल अर्थात् वर्षाकारी मेघ को सञ्चालित करते हैं और उन वायुओं से प्रेरित या उत्पन्न हुआ यह विद्युत् (वृत्रस्य मर्म विवेद) वृत्र अर्थात् मेघ के मर्म या मध्य भाग तक पहुंच जाता है उसी प्रकार (ये मरुतः) जो वीर विद्वान् पुरुष (इन्द्रस्य) इन्द्र अर्थात् ऐश्वर्यवान् राष्ट्रपति के अधीन रहकर (आसन्) उसके मुख अर्थात् मुख्य स्थान पर विराजते हैं वे ही (अस्य) ऐश्वर्यवान् राजा या सेनापति या राष्ट्र के (मधुमत् शर्धः) शत्रुगण को कंपा देने वाले बल को (विवि) सञ्चालित करते हैं। (येभिः) जिनसे (इषितः) प्रेरित और सैन्य युक्त होकर वह राजा (वृत्रस्य) अपने बढ़ते हुए और घेरने वाले (अमर्मणः) अज्ञात मर्म वाले (मन्यमानस्य) अभिमानी शत्रु के (मर्म) अति निर्बल मृत्युकारी मर्मस्थल को (विवेद) जाने। अथवा—(ये इन्द्रस्य शर्ध आसन्) जो वीर राजा के बलस्वरूप होते हैं वे ही उसके बलयुक्त सैन्य को सञ्चालित करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१–३, ७–६, १७ त्रिष्टुप्। ११–१५ निचृत्त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० भुरिक् पङ्क्तिः। ५ निचृत् पङ्क्तिः। ६ विराट् पङ्क्तिः। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक धनादी ऐश्वर्याने सर्वांच्या सुखाची वृद्धी व दुःखाचे निवारण करून सर्व लोकांना प्रसन्न करतात, त्यांनाच धार्मिक विद्वान मानले पाहिजे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indeed the Maruts stir the honey sweets of soma for Indra, lord ruler and commander of the world, and they, heroic brave like the winds of storm, are his force who rouse his passion against the evil. Stirred by these he knows and reaches the fatal core of Vrtra, the demon, who believes he is invulnerable.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The nature and functions of the enlightened persons is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The Maruts (heroes impetuous like the wind) promote the strength of wealthy and mighty commander of the arms, and thus fill their mouths with honey and other sweet nourishing things. Animated by those brave warriors, he (Indra) pierced the vital wing of the cloud-like enemy who considered himself to be invulnerable.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons only should be regarded as righteous and learned who increase the happiness of all with the means of their wealth and root out miseries and gladden all.

    Foot Notes

    (मस्त:) वायव इव वेगबलयुक्ताः। = Impetuous like the winds. (मर्म ) यस्मिन्प्रहते म्रियते तत् = Vital delicate part which when attacked may causes even the death of a person. (शर्धं:) बलम् । शर्धं इति बलनाम (N.G. 2, 9) मस्त: मितराविणो वा मितरोचिनो वा महद् द्रवन्तीति वा । (N.R.T. 11, 2, 14 ) = Strength.

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